Book Title: Gyan bhandaro par Ek Drushtipat
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 12
________________ જ્ઞાનાંજલિ १२] देवनागरी लिपिको भी लागू होती है जो कि हिन्दी, मराठी, ब्राह्मण और जैन आदि अनेक विभागोंमें विभक्त हो गई है । जैन-लिपि भी लेखनप्रणालीके वैविध्यको लेकर यतियोंकी लिपि, खरतर गच्छकी लिपि, मारवाड़ी लेखकोंकी लिपि, गुजराती लेखकोंकी लिपि आदि अनेक विभागोंमें विभक्त है । ऐसा होने पर भी वस्तुतः यह सारा लिपिभेद लेखनप्रणालीके ही कारण पैदा हुआ है। बाकी, लिपिके मौलिक स्वरूपकी जिसे समझ है उसके लिये जैन-लिपि जैसी कोई वस्तु ही नहीं है । प्रसंगोपात्त हम यहाँ पर एक ॐकार अक्षर ही लें। जैन-लिपि और मराठी, हिन्दी आदि लिपिमें भिन्न भिन्न रूपसे दिखाई देने वाले इस अक्षरके बारेमें यदि हम नागरी लिपिका प्राचीन स्वरूप जानते हों तो सरलतासे समझ सकते है कि सिर्फ अक्षरके मरोडमेंसे ही ये दो आकृतिभेद पैदा हुए हैं। वस्तुतः यह कुछ जैन या वैदिक ॐकारका भेद ही नहीं है। लिपिमाला की दृष्टिसे ऐसे तो अनेक उदाहरण हम दे सकते हैं। इसलिये यदि हम अपनी लिपिमालाके प्राचीन-अर्वाचीन स्वरूप जान लें तो लिपिभेदकी विचारणा हमारे सामने उपस्थित ही नहीं होती। जैन ग्रन्थों की लिपिमें सत्रहवीं शतीके अन्त तक पृष्ठमात्रा - पडिमात्रा और अग्रमात्राका ही उपयोग अधिक प्रमाणमें हुआ है, परन्तु उसके बाद पृष्ठमात्राने ऊर्ध्वमात्राका और अग्रमात्राने अधोमात्राका स्वरूप धारण किया। इसके परिणामस्वरूप बादके ज़मानेमें लिपिका स्वरूप संक्षिप्त और छोटा हो गया । लेखक अथवा लहिया - अपने यहाँ ग्रन्थ लिखनेवाले लेखक अथवा लहिए कायस्थ, ब्राह्मण आदि अनेक जातियोंके होते थे। कभी कभी तो पीढ़ी दर पीढ़ी उनका यह अविच्छिन्न व्यवसाय बना रहता था। ये लेखक जिस तरह लिख सकते थे उसी तरह प्राचीन लिपियाँ भी विश्वस्त रूपसे पढ़ सकते थे। लिपिके प्रमाण और सौष्ठवकी ओर उनका बहुत व्यवस्थित ख्याल रहता था। लिपिकी मरोड़ या उसका विन्यास भिन्न भिन्न संस्कारके अनुसार भिन्न भिन्न रूप लेता था और लिपिके प्रमाणके अनुसार आकार-प्रकारमें भी विविधता होती थी। कोई लेखक लम्बे अक्षर लिखते तो कोई चपटे, जबकि कोई गोल लिखते । कोई लेखक दो पंक्तियों के बीच मार्जिन कमसे कम रखते तो कोई अधिक रखते । पिछली दो-तीन शताब्दियोंको बाद करें तो ख़ास करके लिपिका प्रमाण ही बड़ा रहता और पंक्तियोंके ऊपर-नीचेका मार्जिन कमसे कम रहता। वे अक्षर स्थूल भी लिख सकते थे और बारीकसे बारीक भी लिख सकते थे। लेखकोके वहम भी अनेक प्रकारके थे। जब किसी कारणवश लिखते लिखते उठना पड़े तब अमुक कक्षर आए तभी लिखना बन्द करके उठते, अन्यथा किसी-न-किसी प्रकारका नुकसान उठाना पड़ता है - ऐसी उनमें मान्यता प्रचलित थी। जिस तरह अमुक व्यापारी दूसरेका रोज़गार खूब अच्छी तरहसे चलता हो तब ईर्ष्यावश उसे हानि पहुँचानेके उपाय करते हैं, उसी तरह लहिए भी एक-दूसरेके धन्धेमें अन्तराय डालनेके लिये स्याहीकी चालू दावातमें तेल डाल देते, जिससे कलमके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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