Book Title: Gyan bhandaro par Ek Drushtipat
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 17
________________ જ્ઞાનભાંડા પર એક દષ્ટિપાત [१७ उनकी सुरक्षितता अलमारियोंमें होने पर भी मजूसा ही अधिक दिखाई देती हैं । इसका कारण उनकी मज़बूती और विप्लवके समय तथा दूसरे चाहे जिस अवसर पर उनके स्थानान्तर संचारण की सरलता ही हो सकता है। यही कारण है कि इन मजूसोको पहिए भी लगाए जाते थे। यह बात चाहे जैसी हो, परंतु ग्रन्थ-संग्रहकी सुरक्षितता और लेने-रखनेकी सुविधा तो ऊर्ध्वमहामंजूषा अर्थात् अलमारीमें ही है। जेसलमेरके तहख़ानेमें लकड़ी एवं पत्थरकी मजूसाएँ तथा पत्थरकी अलमारियाँ विद्यमान थीं परन्तु मेरे वहाँ जानेके बाद वे सब वहाँसे हटा लिए गए हैं और उनके स्थानमें वहाँ पर स्टीलकी अलमारियां आदि बनवाई गई हैं। हम जब जेसलमेर गए तब वहाँका ग्रन्थसंग्रह उपर्युक्त मजूसाओंमें रखनेके बदले पत्थरकी अलमारियों में रखा जाता था । बड़ी मारवाड़में लकड़ीकी अपेक्षा पत्थर सुलभ होनेके कारण ही उनकी अलमारियाँ बनाई जाती थी। अतः इनकी मजबूती आदिके बारेमें किसी भी प्रकारके बिचारको अवकाश ही नहीं है । जैन श्रीसंघका लक्ष्य ज्ञानभाण्डार बसानेकी ओर जब केन्द्रित हुआ तब उसके सम्मुख उनके रक्षणका प्रश्न भी उपस्थित हुआ। इसके प्रश्नके समाधानके लिये दूसरे साधनोंकी तरह उसने एक पर्व-दिवसको भी अधिक महत्त्व दिया। वह पर्व है ज्ञानपंचमी -- कार्तिक शुक्ला पंचमीका दिन । समूचे वर्षकी सर्दी, गरमी तथा नमी जैसी ऋतुओं की विविध असरोंमेंसे गुज़री हुई शास्त्रराशिको यदि उलट-पुलट न किया जाय तो वह असमयमें ही नाशाभिमुख हो जाय । अतः उसे बचाने के लिये उसको हेरफेर वर्षमें एक बार अवश्य करनी चाहिए जिससे उनमेंकी अनेकविध विकृत असर दूर हो और शास्त्र कायमो आरोग्य-दशामें रहें। परन्तु विशाल ज्ञानभाण्डारोंके उलटफेरका यह काम एकाध व्यक्तिके लिये दुष्कर और थकानेवाला न हो तथा अनेक व्यक्तिओंका सहयोग अनायास ही मिल सके इसलिये इस धर्म-पर्वकी योजना की गई है। आज इस धार्मिक पर्वको जो महत्त्व दिया जाता है उसके मूलमें प्रधान रूपसे तो यही उद्देश था, परन्तु मानवस्वभावके स्वाभाविक छिछलेपन तथा निरुद्यमोपनके कारण इसका मूल उद्देश विलुप्त हो गया है और उसका स्थान बाहरी दिखावे एवं स्थूल क्रियाओंने ले लिया है। ज्ञानभाण्डारों में उपलब्ध सामग्री ये ज्ञानभाण्डार विविध दृष्टिसे समृद्ध और महत्त्वके हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि इनका संग्रह यद्यपि जैनोंने किया है फिर भी वे मात्र जैनशास्त्रोंके संग्रह तक ही मर्यादित नहीं हैं। उनमें जैन-जैनेतर अथवा वैदिक-बौद्ध-जैन, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, मराठी, फारसी आदि भाषाओंका तथा जैन-जैनेतर ऋषि-स्थविर-आचार्योंके रचे हुए धर्मशास्त्रोंके अतिरिक्त व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, मंत्र, तंत्र, कल्प, नाट्य, नाटक, ज्योतिष, लक्षण, आयुर्वेद, दर्शन एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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