Book Title: Gyan bhandaro par Ek Drushtipat
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 13
________________ જ્ઞાનભંડા પર એક દષ્ટિપાત [13 ऊपर स्याही ही जमने न पाती और उसके दाग़ कागज़ पर पड़ने लगते । खास करके ऐसा काम कोई कोई मारवाड़ो लहिये ही करते थे किन्तु ऐसी प्रवृत्तिको कुसमादी - कमीनापन ही कहा जाता था। कुछ लहिए जिस फट्टी पर पन्ना रखकर पुस्तक लिखते उसे खडी रख करके लिखते तो कुछ आड़ी रख कर लिखते, जब कि काश्मीरी लहिए ऐसे सिद्धहस्त होते थे कि पन्नेके नीचे फट्टी या वैसा कोई सहारा रखे बिना ही लिखते थे। अधिकतर लहिए आड़ी फट्टी रख कर ही लिखते हैं, परन्तु जोधपूरी लहिए फट्टी खड़ी रखकर लिखते हैं। उनका मानना है कि “आड़ी पाटीसे लुगाइयां लिखें, मैं तो मरद हों सा!" इसके अतिरिक्त अपने धन्धेके बारेमें ऐसी बहुतसी बातें है जिन्हें लहिए पसन्द नहीं करते । वे अपनी बैठनेकी गद्दी पर दूसरे किसीको बैठने नहीं देते, अपनी चालू दावातमें से किसीको स्याही भी नहीं देते और अपनी चालू कलम भी किसीको नहीं देते । लहियों के बारेमें इस तरहकी विविध हकीकतोके सूचक बहुतसे सुभाषित आदि हमें प्राचीन ग्रन्थोंमें से मिलते हैं, जो उनके गुण-दोष, उनके उपयोगकी वस्तुओं तथा उनके स्वभाव आदिका निर्देश करते हैं। जिस तरह लहिए ग्रन्थ लिखते थे उसी तरह जैन साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाएँ भी सौष्ठवपरिपूर्ण लिपिसे शास्त्र लिखते थे । जैन साध्वीयों द्वारा तथा देवप्रसाद (वि. सं. ११५७) जैसे श्रावक अथवा सावदे (अनुमानतः विक्रमकी १४वीं शती), रूपादे आदि श्राविकाओं द्वारा लिखे गए ग्रन्थ तो यद्यपि बहुत ही कम हैं परन्तु जैन साधु एवं जैन आचार्योंके लिखे ग्रन्थ तो सैकड़ोकी संख्यामें उपलब्ध होते हैं। पुस्तकोंके प्रकार - प्राचीन कालमें (लगभग विक्रमकी पांचवी शतीसे लेकर) पुस्तकों के आकार-प्रकार पर से उनके गण्डीपुस्तक, मुष्टिपुस्तक, संपुटफलक, छेदपाटी जैसे नाम दिए जाते थे। इन नामोका उल्लेख निशीथभाष्य और उसकी चूर्णि आदिमें आता है । जिस तरह पुस्तकोंके आकार-प्रकार परसे उन्हें उपर्युक्त नाम दिए गए है उसी तरह बादके समयमें अर्थात् पन्द्रहवीं शतीसे पुस्तकोंकी लिखाईके आकार-प्रकार परसे उनके विविध नाम पड़े हैं; जैसे कि शूड अथवा शूढ पुस्तक, द्विपाठ पुस्तक, पंचपाठ पुस्तक, सस्तबक पुस्तक । इनके अतिरिक्त चित्रपुस्तक भी एक प्रकारान्तर है । चित्रपुस्तक अर्थात् पुस्तकों में खींचे गए चित्रोंकी कल्पना कोई न करे । यहाँ पर 'चित्रपुस्तक' इस नामसे मेरा आशय लिखावटकी पद्धतिमें से निष्पन्न चित्रसे है । कुछ लेखक लिखाईके बीच ऐसी सावधानीके साथ जगह खाली छोड़ देते हैं जिससे अनेक प्रकारके चौकोर, तिकोन, षटकोण, छत्र, स्वस्तिक, अग्निशिखा, वज्र, डमरू, गोमूत्रिका आदि आकृतिचित्र तथा लेखकके विवक्षित ग्रन्थनाम, गुरुनाम अथवा चाहे जिस व्यक्तिका नाम या श्लोक - गाथा आदि देखे किंवा पढ़े जा सकते हैं। अतः इस प्रकारके पुस्तकको हम 'रिक्तलिपिचित्रपुस्तक' इस नामसे पहचानें तो वह युक्त ही होगा। इसी प्रकार, ऊपर कहा उस तरह, लेखक लिखाईके बोचमें खाली जगह न छोड़कर काली स्याहीसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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