Book Title: Gurutattva Vinischaya
Author(s): Yashovijay Gani, Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 528
________________ पत्राङ्क. द्यनुक्रमणिका। 0 06 0 गुरु०वृत्ति- गाथादि. गतगाथा- सा वेक्खो त्ति व काउं साहारणे विरेगे ॥१७॥ | सिद्धतगयमेगं पि सिणाए णं पुच्छा सिणाए णं भंते ! कतिसिणाए पुच्छा गो. स , ,, सि४ सुअवं अतिसयजुत्तो | सुअंमे आउसंतेणं | सुत्तमणागयविसयं | सुत्तेण अत्थेण य उसुद्धो सुद्धादेसो सुविगणविजाकहियं | सुहृदुक्खिएण जो पर PROGRESS BARBORG पत्राङ्क. गाथादि. ११६ सूइज्जइ अणुरागो १४५ सेदि णियमा छम्मा ३७ सेविट्ठाणठियाणं २१२ से नूणं भंते ! कण्ह१८७ से भयवं कयरेणं २०२ से भयवं किं तेसिं २०८ से भयवं किं पञ्चइ ४से भयवं केरिसगुण ३ से भयवं केवइएणं का६५ से भयवं जया णं सीसे ७१ से भयवं जे णं गणी .६ से भयवं तित्थयर१५४ सो अ अहाछंदो १०६ सो उभयक्खयहेऊ पत्राङ्क. गाथादि. १६३ सो पंचविहो अच्छवी २११ सोही उज्जुअभूअस्स ३० संखडिं पलोएइ २०३ संख्येयभागादिषु "संजमजोगेसु सया संज्ञानं संज्ञा ३६ संतिभावं पडुच्च णो दुस " सुससंत्यज्यलोकचिन्ता४६ संपूर्णवस्तुकथनं प्रमा ३ स्थविरकल्पादिरूप१६१ स्वाभिप्रेतादशादित१८ हत्थसयं खलु देसो स-ह। १९६ १९५ २१६ ७ ॥ Jain E aston tema For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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