Book Title: Gunsthan Prakaran Author(s): Fulchand Shastri, Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ १६ गुणस्थान- प्रकरण अभव्यसिद्धिक जीवों के मिथ्यात्व की अपेक्षा 'काल अनादिअनन्त है' ऐसा कहा गया है; क्योंकि, अभव्य के मिथ्यात्व का आदि, मध्य और अन्त नहीं होता है। भव्यसिद्धिक जीव के मिथ्यात्व का काल एक तो अनादि और सान्त होता है, जैसा कि वर्द्धनकुमार का मिथ्यात्वकाल । तथा एक और प्रकार का भव्यसिद्धिक जीवों का मिथ्यात्वकाल हैं, जो कि सादि और सान्त होता है, जैसे कृष्ण आदि का मिथ्यात्व-काल । उनमें से जो सादि और सान्त मिथ्यात्वकाल होता है, उसका यह निर्देश है। वह दो प्रकार का है, जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल । उनमें से जघन्यकाल की प्ररूपणा की जाती है, यह बतलाने के लिए 'जघन्य से' ऐसा पद कहा। मुहूर्त के भीतर जो काल होता है, उसे अन्तर्मुहूर्तकाल कहते हैं । इस पद से मिथ्यात्व के जघन्यकाल का निर्देश कहा गया है, जो कि इसप्रकार है - मिथ्यात्व गुणस्थान में आगमन - १. कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा २ असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा ३. संयतासंयत, अथवा ४ प्रमत्त संयत जीव, परिणामों के निमित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके (रहता है) । मिथ्यात्व गुणस्थान से गमन - फिर भी १. सम्यग्मिथ्यात्व को अथवा २. असंयम के साथ सम्यक्त्व को अथवा ३. संयमासंयम को अथवा ४. अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ । इसप्रकार से प्राप्त होनेवाले जीव के मिथ्यात्व का सर्वजघन्य काल होता है । १५. शंका - सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व को क्यों नहीं प्राप्त कराया गया? अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि को भी मिथ्यात्व पहुँचाकर उसका जघन्यकाल क्यों नहीं बतलाया ? में षट्खण्डागम सूत्र २, ३, ४ समाधान- नहीं; क्योंकि, सासादनसम्यक्त्व से पीछे आनेवाले, अतितीव्र, संक्लेशवाले मिथ्यात्वरूपी तृष्णा से विडम्बित मिथ्यादृष्टि जीव के सर्व जघन्य काल से गुणान्तरसंक्रमण का अभाव है, अर्थात् १७ सासादन गुणस्थान से आया हुआ मिथ्यादृष्टि अति शीघ्र अन्य गुणस्थान को प्राप्त नहीं हो सकता । अब मिथ्यात्व के उत्कृष्ट काल को बतलाने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं - सूत्र - एक जीव की अपेक्षा सादि-सान्त मिथ्यात्व का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद् गलपरिवर्तन है ॥ ४ ॥ १६. शंका - अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन किसे कहते हैं? समाधान - इस अनादि संसार में भ्रमण करते हुए जीवों के १. द्रव्यपरिवर्तन २. क्षेत्रपरिवर्तन ३. कालपरिवर्तन ४. भवपरिवर्तन और ५. भावपरिवर्तन, इस प्रकार पाँच परिवर्तन होते रहते हैं। इसमें से जो द्रव्यपरिवर्तन है, वह दो प्रकार का हैं - १. नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन और २. कर्मपुद्गलपरिवर्तन । उनमें से पहले नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन को कहते हैं । वह इस प्रकार है - यद्यपि पुद्गलों के गमनागमन के प्रति कोई विरोध नहीं है, तो भी बुद्धि से (किसी विवक्षित पुद् गलपरमाणुपुंज को) आदि करके नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन के कहने पर विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर सर्वपुद्गल राशि में से एक भी परमाणु नहीं भोगा है, ऐसा समझकर पुद्गल परिवर्तन के प्रथम समय में सर्व पुद्गलों की अगृहीत संज्ञा करना चाहिए। अतीतकाल में भी सर्व जीवों के द्वारा सर्व पुद्गलों का अनन्तवाँ १. तीसरे, चौथे, पाँचवें तथा छठवें गुणस्थान से मिथ्यात्व में आनेवाले जीव की अपेक्षा सासादन गुणस्थान से मिथ्यात्व में आनेवाला जीव, अधिक संक्लेश परिणामी होने से मिथ्यात्व को अल्पकाल में छोड़ नहीं सकता। देखो परिणामों की विचित्रता !Page Navigation
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