Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 12
________________ की अचेतन कोशिश / शंकाओं का निरसन / अज्ञानी अर्जुन को कृष्ण हे निष्पाप अर्जुन क्यों कहते हैं? / छिपा हुआ चैतन्य निष्पाप है / सब पाप-पुण्य ऊपर-ऊपर हैं / पाप की धूल और ध्यान का स्नान / अंतरात्मा कभी अशुद्ध नहीं होती / सारा जगत पुरुष और प्रकृति का खेल है, तो फिर हम दुख के भागीदार क्यों हैं? / कर्ता होने की भ्रांति / सुख पाने के लिए तादात्म्य जरूरी / दुखी होने के लिए भी तादात्म्य जरूरी / लोगों का नाटक व सिनेमा-गृह में रोना / अभिनय की कुशलता में कर्ताभाव उपयोगी / पूरा जीवन एक नाटक है / जापान का नो-ड्रामा / जब तक सुख-तब तक दुख भी / गुण अर्थात जो बांधे / निर्गुण अर्थात परम स्वतंत्र / स्वतंत्रता कभी खोती नहीं, सिर्फ अवरुद्ध होती है / स्वर्ग है सुखद बंधन / सत्व देवत्व तक ले जा सकता है | आसक्ति अर्थात दूसरे से सुख की चाह / आसक्त व्यक्ति फलाकांक्षी होगा / फल हजारों कारणों पर निर्भर / अनंत कारणों के जोड़ का ही नाम है-परमात्मा, भाग्य / फलासक्ति रजोगुण के कारण / तमोगुण मूर्छा और प्रमाद से बांधता / अनापान-सती-योग / सम्यक स्मृति-सुरति योग / पनिहारिन की सुरति / अज्ञान अर्थात स्वयं को न जानना / प्रमुख गुण शेष दो गुणों को भी प्रभावित करता है / रजोगुणी-उपद्रवी, महत्वाकांक्षी, राजनीतिज्ञ / अपराधी और राजनेता–दोनों रजोगुणी / रजोगुण की शक्ति से-सृजन भी, विध्वंस भी / विद्यार्थियों का अनियोजित रजोगुण ही उपद्रव और विध्वंस बनता है / बाल विवाह व्यवस्था थी-रजोगुण के निकास की / शिक्षा जगत में त्रिगुण की स्थिति। होश : सत्व का द्वार ... 49 यदि कष्ण जानते हैं कि अर्जन का भविष्य क्या है. उसका स्व-धर्म क्या है, तो वे अर्जन से उन अनेक मार्गों की चर्चा क्यों कर रहे हैं जिन को चलना नहीं है? / सभी का भविष्य है-मोक्ष / मन की अनेक संभावनाएं / स्वयं चुनाव की सुविधा / गुरु सब मार्ग समझा देता है / अंतिम निर्णायक आप हैं / निष्पक्ष भाव से कृष्ण द्वारा सब मार्गों की गरिमा बताना / भूलने-भटकने में जीवन का विकास / स्वानुभवों से प्रौढ़ता / नई-नई भूलों से शिक्षण / साहस और सामर्थ्य का बढ़ना / खोज से बचने का मन / स्व-अर्जित विकास–जो दूसरे नष्ट न कर सकें / संघर्ष से गुजर कर अंतःप्रज्ञा का . जन्म / शिष्य की सही-गलत सभी प्रकार की संभावनाओं का गुरु द्वारा निरीक्षण करना / अर्जुन की प्रतिक्रियाओं का सूक्ष्म अध्ययन / अचेतन मन में हो रही घटनाएं / विकर्षण के पहले आकर्षण जरूरी / घृणा के पहले प्रेम जरूरी / ज्ञानी के सामने व्यक्ति पारदर्शी / गुरु के सामने छिपाए गए रूपों का प्रकट होना / शिष्य के आभामंडल का गुरु द्वारा सतत अध्ययन / आत्मिक यात्रा में शिष्य की स्वतंत्रता को कायम रखना जरूरी / गरिमा को बचाना और अहंकार को मिटाना / अठारह अध्यायों की व्यूह-रचना / गुरु के सब प्रयास परोक्ष / प्रमाद से मुक्त होने के लिए क्या करूं? / आलस्य के प्रति जागरूकता से सत्व का जन्म / होश सत्व का द्वार है / मूर्छा-क्रिया से भी, आलस्य से भी / पद का नशा / व्यस्तता की शराब / जितना होश, उतनी सात्विकता / जागरूकता से उत्पन्न करुणा और सेवा सात्विक है / सेवा से कोई धार्मिक बन जाए-जरूरी नहीं / धर्म से सेवा जरूर निकलती है / रमण की अदृश्य सेवा / मंगल का महास्रोत-रमण का होना मात्र / महाकाश्यप का संक्रामक बुद्धत्व / तीन गुणों का परस्पर रूपांतरण / साधारणतः परिस्थिति द्वारा गुणों का निर्धारण / खांसी, जम्हाई आदि की संक्रामकता / हिटलर द्वारा भीड़ के मनोविज्ञान का शोषण / मंदिर और मस्जिद-सत्व के जन्म की सुविधाएं / सम्यक श्रम और सम्यक विश्राम का संतुलन / निन्यानबे का चक्कर / झेन ध्यान-तमोगुण और रजोगुण के संतुलन से सत्व गुण पैदा करना / न निद्रा, न क्रिया / सत्व गण से निर्गण में छलांग। संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति ... 65 कृष्ण परम ज्ञानी और त्रिगुणातीत हैं, फिर भी क्यों झूठ बोलते, धोखा देते, युद्ध करते हैं? / बुद्ध, महावीर, लाओत्से आदि ऐसा कुछ भी नहीं करते

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