Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ 10 अव्यभिचारी भक्ति...149 - एक सत्य को कहने के लिए सिद्धांतों का इतना बड़ा जाल क्यों खड़ा किया जाता है ? / बुद्धि को तृप्त करने के लिए / प्रश्न व्यर्थ हैं / सदगुरु के उत्तर - ताकि घिस घिस के जिज्ञासा शांत हो जाए / पूछ-पूछ कर थकना - करने का प्रारंभ / ज्यादा बुद्धि के लिए ज्यादा सिद्धांतों की जरूरत / बुद्धि की खुजली और गुरु का धैर्य / प्रश्नों को गिराने की योजना / कांटे से कांटा निकालना / शब्दों की चुभन / शास्त्र की दवाई / स्वस्थ होने पर औषधि को फेंक देना / असत्य को काटना - सत्य देना नहीं / संदेह का एंटिडोट - शास्त्र / कम संदेह - तो कम शास्त्रों की जरूरत / करने की व्यर्थता को जान पाना साधनाओं की क्या इतनी ही उपादेयता है? / करने की व्यर्थता का बोध और कर्ता का गिरना / अहंकार को सिद्ध करने की ही कोशिश – धन, ज्ञान, त्याग / आत्मघात - असफल अहंकारियों द्वारा ही / अहंकार की विफलता / संसार में हार से परमात्मा में विजय संभव / गुरु का प्रयासः तुम्हें न-करने में ले जाना / झूठे अनुभवः झूठे गुरु / सदगुरु का दोहरा काम / सदगुरु तुम्हें मिटाएगा / करने और होने का फर्क / हमारी आत्मवंचना / सागर बिच मीन पियासी / उसे कभी खोया ही नहीं / भटक कर स्वयं पर वापसी / साक्षीभाव साधने के लिए क्या करूं? / साक्षीभाव कृत्य नहीं है / कर्म की आदत / साक्षीभाव अर्थात कर्ता न बनना सिर्फ देखना / हो जाए, तो ठीक न हो, तो ठीक / सहजता और साक्षीभाव / चुपचाप प्रतीक्षा / जब तक कर्ता तब तक साक्षी नहीं / साक्षीभाव को वासना न बनाएं / सिर्फ देखने की कलां / अविवाहित रह कर काम-वासना का साक्षी बनना कब संभव है? / अविवाहित रहने की इच्छा जिम्मेदारी से पलायन / विवाह और वासना पर्यायवाची नहीं हैं / विवाह का बंधन; विवाह के दुख / दुविधा बताती है कि भीतर वासना है / साक्षीभाव के साथ वासना का अनुभव - मुक्तिदायी / भागें मत – जागें / अनुभव में पकें / जरा भी रस हो, तो उसे भोग ही लें / सहज बनें / सजग अनुभव से क्रांति / अव्यभिचारी भक्तिरूप योग / अनेक दिशाओं में बहता मन व्यभिचारी है / व्यभिचारी मन वाला कभी शांत नहीं हो सकता / एकजुट ऊर्जा से सत्य की उपलब्धि सरल / समग्र चेतना से निकला कृत्य - आनंद / प्रार्थना अर्थात चित्त की अव्यभिचारी धारा / भजन अर्थात प्रभु को पाने की सतत गहन अभीप्सा / एक धुन – सतत भीतर बजती / स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के प्रयोग / रुचि अरुचि के अनुकूल आंख की पुतली का छोटा-बड़ा होना / प्रकाश में सिकुड़ना, अंधेरे में फैलना / नग्न स्त्री का चित्र देख पुरुष की पुतली का फैलना / नग्न पुरुष में स्त्री को कोई रुचि नहीं / छोटे बच्चे का चित्र देख स्त्री की पुतली का बड़ा होना / स्त्री का शिखर मातृत्व में / पुरुष का शिखर - स्वामित्व में / रजनीश का संन्यासी स्वामी कहलाता / रजनीश की संन्यासिनी मां कहलाती / ऊपरी सतही भाव का कोई मूल्य नहीं / परमात्मा को अपनी वासनाओं की लिस्ट में न जोड़ें / प्रत्येक कृत्य प्रभु स्मरण बन जाए / परिधि पर अनेक / केंद्र पर एक ही संभव / ब्रह्म में एकीभाव की योग्यता / आनंद, ब्रह्म, निर्वाण - सब का आश्रय मैं हूं / कृष्ण का मैं अर्थात समग्र अस्तित्व की शुद्धतम अवस्था / गुणातीत परब्रह्म से एकीभाव - अव्यभिचारी चेतना की - - - धारा का । —

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 450