Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 19
________________ 4 समर्पण की छलांग ... 213 किसे समर्पण करें—इसकी तसल्ली कैसे हो ? और तब तक क्या जारी रखें ? / मन को कभी भी तसल्ली न होगी / भूल खोजने में पारंगत है मन / हमारी व्याख्याएं / महावीर, जीसस, मोहम्मद, कृष्ण आदि से बचने की तरकीबें / तसल्ली की तलाश हो, तो समर्पण असंभव / झुकने का सवाल है / तसल्ली की बात ही मत सोचो / तसल्ली अहंकार की मांग है / गुरजिएफ द्वारा अपने में अविश्वास पैदा कराने की हर संभव कोशिश / आप कैसे जांच सकेंगे? / अहंकार बचा कर समर्पण संभव नहीं / समर्पण की छलांग - अहंकार के बावजूद / धारणाओं की बंधी हुई लीक / कौन प्रबुद्ध है - जांचने का कोई उपाय नहीं है / प्रत्येक बुद्ध पुरुष का व्यवहार अलग-अलग / पूर्व-निश्चित मापदंड काम के नहीं / सौ प्रतिशत तसल्ली के लिए मत रुकें / दुकानदारों के लिए नहीं— जुआरियों के लिए धर्म / समर्पण में ही क्रांति है, गुरु तो सिर्फ बहाना है / मन अर्थात संदेह / मन से ऊब जाने पर समर्पण संभव / स्वयं पर संदेह और गुरु का मिलना / कुनकुनापन ही आदमी का दुख है / मन द्वार है - दुख का / इस पार या उस पार - या तो संदेह या श्रद्धा / यदि दूसरों के अनुभव काम नहीं आते, तो आप जैसे पुरुषों के बोलने में सार्थकता क्या है? / सत्पुरुष की निकटता प्रभावकारी / दूसरे की मौजूदगी से स्फुरण, प्रेरणा और धक्का संभव / खुला और समर्पित हृदय / अज्ञात का भय / शब्द इशारे हैं— अनुभव नहीं / अनुभव दिया नहीं जा सकता — प्यास जगाई जा सकती है / अनुभव तक पहुंचने की विधियां और मार्ग सीख सकते हैं / बुद्धत्व भी संक्रामक होता है, लेकिन हम संवेदनशील और खुले नहीं हैं / अपनी तुच्छता का बोध हीनता की ग्रंथि बनाता है; हीनता से बचकर अहंकार विसर्जन के लिए क्या किया जाए? / हीनता की ग्रंथि — अहंकार का ही हिस्सा है / जितना बड़ा अहंकार - उतनी बड़ी हीनता / दंभी और अविनम्र को ही हीनता पकड़ती है / आत्म-हीनता और ऊंची एड़ी के जूते / प्रतिस्पर्धा विक्षिप्तता लाती है / विनम्र आदमी को कभी हीनता नहीं पकड़ती / जो अंतिम होने को राजी है, वह परमात्मा का प्यारा है / अस्तित्व के साथ बहने की कला है - समर्पण / अनेक-अनेक बार मर कर भी मृत्यु से अपरिचय / मरते क्षण में भी बेहोश हो जाना / पीड़ा के असह्य होते ही मूर्च्छित हो जाना / समर्पण है जीते जी मृत्यु से परिचय / योगियों, तांत्रिकों एवं ध्यानियों द्वारा मृत्यु का सहज स्वीकार / होश हो, तो मृत्यु एक नया द्वार है / सजग-मृत्यु के लिए जरूरी : वैराग्य और अभ्यास / ज्ञानरूपी नेत्रों वाले ज्ञानी जन / ज्ञान-नेत्र अर्थात होशपूर्वक जन्म, जीवन और मृत्यु को देखने की क्षमता / सामान्य जीवन में सतत होश कायम रखें / होश टूट-टूट जाए, तो फिर-फिर साधें / साधना में श्रम और हृदय की शुद्धि दोनों साथ-साथ जरूरी / शुद्धि के अभाव में एकाग्रता की शक्ति खतरनाक / अदभुत शक्तियों का स्वामी रासपुतिन / परंतु हृदय शुद्ध न था / रासपुतिन ने रूस को बरबाद करवा दिया / योगी भक्त भी हो / यत्न और शुद्ध भाव का मिलन | 5 एकाग्रता और हृदय-शुद्धि... ... 229 रासपुतिन ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया, तो क्या शक्ति का जागरण व्यक्ति को पवित्र नहीं बनाता ? / शक्ति स्वयं में निष्पक्ष है / अशुभ उपयोग या शुभ उपयोग की संभावना / अशुद्ध अंतःकरण में भी शक्ति की उपलब्धि संभव / शुद्ध अंतःकरण द्वारा शांति की आकांक्षा-शक्ति की नहीं / शक्ति मिलती है— प्रयास और साधना से / अधर्म ध्यान और धर्म ध्यान / ध्यान अर्थात मन का ठहर जाना / क्रोध और वासना में मन की एकाग्रता / एकाग्रता शक्ति है / रासपुतिन का हृदय शुद्ध न था / अशुद्ध हृदय द्वारा शक्ति से शोषण / हिटलर की अदभुत एकाग्रता की क्षमता / शक्ति का मूलस्रोत परमात्मा है / हृदय का यंत्र - शुद्ध या अशुद्ध / राम और रावण में एक ही शक्ति का प्रवाह / सृजन या विनाश / सदगुरुओं द्वारा साधकों की शुद्धि की अनेक व्यवस्था / शक्ति के स्रोतों की गुप्तता के कारण / विज्ञान की शक्ति का राजनीतिज्ञों द्वारा दुरुपयोग / पूरब में धर्म और विज्ञान के सूत्रों की प्राचीन काल से गुप्तता / गुरु-शिष्य-प्रणाली / शास्त्र अधूरे रखे गए हैं / ज्ञान की कुंजियों को अनधिकारी से बचाना / वर्ण-व्यवस्था के पीछे

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