Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 10
________________ अनुक्रम गीता-दर्शन अध्याय 14 चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि ...1 अनिर्णय की दुविधा / परिणाम का भय / खुद निर्णय लेने से बचने की वृत्ति / अर्जुन की कठिनाई सब की कठिनाई है / प्रत्येक निर्णय जीवन को भिन्न बनाता है | जब तक मन, तब तक दुविधा / उत्तर की तलाश / अर्जुन का मनो-मंथन / मन के गिरते ही-संदेह, भविष्य और कर्ताभाव का गिर जाना / चिंता की जड़-अहंकार, कर्ताभाव / निश्चित कैसे हों-इसकी चिंता / तुम मिटो तो निश्चितता घटे / शिष्य कुछ पाना चाहता है / गुरु शिष्य को मिटाना चाहता है / गुरु और शिष्य के बीच एक आंतरिक संघर्ष / कृष्ण का अथक प्रयास / गीता का प्रत्येक अध्याय अर्जुन को मिटाने का प्रयास है / शिष्य के मिटने में ही समाधान है / गलत ज्ञान की उलझन / भीम का अज्ञान सरल है / अर्जुन का अज्ञान जटिल है । अर्जुन का अज्ञान पांडित्यपूर्ण है / स्प्लिट (खंडित) व्यक्तित्व / युद्ध के बीज अर्जुन ने ही बोए हैं / द्रौपदी को पाने की वासना : युद्ध का कारण बनी / द्रौपदी को अनेक लोग पाना चाहते थे / चाह अर्थात प्रतियोगिता, संघर्ष, युद्ध / युद्ध की स्थिति धीरे-धीरे मजबूत होती गई है / काम-वासना ही–जन्म और मृत्यु दोनों का कारण / महाभारत के सभी पात्र प्रतीकात्मक अर्थ से भरे हैं / कांच के महल में दुर्योधन पर द्रौपदी द्वारा व्यंग करना / गाली से भी ज्यादा चोट–व्यंग से / बुराई का प्रारंभ अत्यंत छोटा / वासनाओं के दो चरण-स्वेच्छा नियंत्रित और स्वेच्छा के पार / वासना के प्रारंभ में • ही अपने को रोक लेना / युद्ध की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं / आखिरी क्षण में अर्जुन घबड़ा रहा है / महावीर का सूत्रः प्रारंभ में ही रुक जाना / कृष्ण का सूत्रः न रुकने की स्थिति आ जाए तो निमित्त बन जाना / युद्ध का प्रारंभ द्रौपदी के स्वयंवर से हो चुका था / युद्ध की अवश्यम्भावी स्थिति / पहले ही क्षण में रुक जाने पर निमित्त बनने की जरूरत ही नहीं आती / साधना के सूत्रः पहले क्षण में मालिक और अंतिम क्षण में निमित्त बनना / संसार से मुक्त होना अर्थात मन से मुक्त होना / मन का प्रिज्म और संसार का इंद्रधनुष / इंद्रधनुष से भागना नहीं-उसे पहचानना / मन एक चाक की तरह घूमता है / सिद्ध अर्थात जिसकी सारी यात्राएं समाप्त हुईं / सिद्धि अर्थात मन से मुक्ति / वासनाओं की तृप्ति के लिए ही नए-नए शरीर ग्रहण करना / गर्भ में प्रवेश के लिए करोड़ों वीर्य-कणों में संघर्ष / सिद्ध पुरुष पूरी सृष्टि के विनाश और सजन में भी डांवाडोल नहीं होता / त्रिगुणमयी माया से संपूर्ण जगत का जन्म / पदार्थ का आण्विक स्वभाव भी माया जैसा / भारतीय मनीषा की तीन खोजें: सत्य, असत्य और माया / माया अर्थात जो नहीं है, परंतु दिखाई पड़ती है कि है । वासनाएं स्वप्नवत हैं / धारणा के कारण स्वप्न की सत्य जैसी प्रतीति / मनुष्य संभोग है—पदार्थ और परमात्मा का / मृत्यु असंभव है, केवल संयोग टूटते हैं / जागने पर सारा संसार स्वप्नवत व्यर्थ / समाधि है वह जागरण।

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