Book Title: Dwandwa aur Unka Nivaran
Author(s): Ramnarayan, Ranjankumar
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 2
________________ - यतीन्द्रसरिक ग्रन्थ - आधुतिक सन्दर्भ में जैनधर्मरूपों के आधार पर निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है-- नहीं देते। उदाहरणार्थ परिवार में जब एक बड़ा बालक किसी (क) स्त्रोतों ( sources) के आधार पर वर्गीकरण - दूसरे छोटे बालक से खिलौना छीन लेता है तब छोटे बालक को कभी-कभी एकदम क्रोध आ जाता है, और वह बड़े बालक (i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में द्वन्द्व। से अपना खिलौना न मिलने पर उसको मारने व गाली देने (ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व। लगता है परंतु तुरंत ही माता-पिता या घर-परिवार के अन्य (iii) दो आंतरिक आवश्यकताओं के परस्पर विरोध से द्वन्द्व। व्यक्ति उसके ऐसे असभ्य व्यवहार अथवा क्रोध के आवेगों की गलत रूप से अभिव्यक्ति से मना करते हैं। इस प्रकार यहाँ (ख) चेतन के आधार पर वर्गीकरण - बालक के लिए बाह्य प्रतिरोधों के कारण आंतरिक आवेगों की (i) उपागम-उपागम द्वन्द्व (Approach-Approach Conflict) पर्ति न होने पर द्वन्द्व उत्पन्न होता है। बालक के लिए आरंभिक (ii) परिहार-परिहार द्वन्द्व (Avoidance-Avoidance Conflict) । जीवन में ऐसी अनेक स्थितियाँ आती हैं, परंतु धीरे-धीरे समय बीतने के साथ-साथ उनका रूप समाजीकृत होता चला जाता (iii) उपागम-परिहार द्वन्द्व (Approach-Avoidance Conflict) है तथा फिर उनमें प्रायः ऐसा तीव्र द्वन्द्व उत्पन्न नहीं होने पाता। (iii) दो हरा उपागम - परिहार द्वन्द्व ( Double Approach जैन-चिंतकों ने भी इस प्रकार के द्वन्द्व का उल्लेख किया Avoidence Conflict) है। उनका यह मानना है कि यह द्वन्द्व बाह्य एवं आंतरिक संवेगों (ग) अचेतन के आधार पर वर्गीकरण में पारस्परिक संघर्षों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। उपासकदशांग (i) इदम् तथा अहम् के द्वन्द्व (Conflict between id and Ego) में चुल्लशतक नामक गृहस्थ साधक इसी द्वन्द्व से पीड़ित व्यक्ति है। यद्यपि वह आत्मविकास की साधना में रत रहता है, लेकिन (ii) अहम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Ego and देव द्वारा बाह्य वस्तु (धन, सम्पत्ति आदि) के नष्ट करने की super Ego) धमकी से वह भयभीत हो जाता है। इससे बचने हेतु वह देव को (iii) इदम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Id and पकडना चाहता है और अपने व्रत को भंग कर लेता है। धन, super Ego) सम्पत्ति आदि बाह्य साधन हैं जो व्यवहारिक रूप में मनुष्य की द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों में कठोर आधार पर मौलिक इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। इच्छाएं बाह्य और आंतरिक दोनों अंतर नहीं होता है, बल्कि इनमें पर्याप्त मात्रा में पारस्परिक रूप होती है। यहाँ चुल्लशतक बाह्य वस्तु को बचाने के लिए आंतरिक से overlapping ही रहता है। द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों के उद्वेग से ग्रसित होकर देव को पकड़ना चाहता है क्योंकि उसके विधिवत् वर्णन करने से पहले यहाँ पर द्वन्द्व के स्रोतों का विवेचन मन में यह भय बैठ जाता है कि धन-सम्पत्तिविहीन व्यक्ति करना अति आवश्यक प्रतीत होता है। शक्तिहीन होता है। शक्तिहीन होकर संघर्ष में जीना नहीं चाहता। द्वन्द्व के विभिन्न स्रोत - व्यक्ति में प्रायः द्वन्द्वों के मुख्य स्त्रोत उस समय वह सोचता है कि देव को वह पकड़ लेगा और अपने निम्नलिखित ढंग से होते हैं धन का अपहरण नहीं होने देगा। लेकिन वह इस मिथ्या माया से ठगा जाता है तब वह पुनः अपनी व्रताराधना में ठीक उसी तरह (i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में टकराव प्रवृत्त हो जाता है, जैसे कि परिपक्व बालक समाजगत समस्याओं से उत्पन्न द्वन्द्व - व्यक्ति अपनी विभिन्न जैविक आवश्यकताओं को समझ लेने पर इस तरह के द्वन्द्व से बचने लगता है। व आवेगों की पूर्ति अपने बाह्य पर्यावरण के अंतर्गत ही करता (ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व - समाज है, परंतु बाह्य पर्यावरण के इस संबंध में अनेक प्रतिरोध अधिकांशतः भौतिक अवरोधों, सामाजिक परंपराओं तथा कभी-कभी व्यक्ति के सम्मुख परस्पर रूप से विरोधी भूमिकाएँ सांस्कृतिक मूल्यों के रूप में होते हैं और वे व्यक्ति के आवेगों प्रस्तुत करता है, तथा उनका परिपालन करने के लिए भारी की पूर्ति तथा संतुष्टि गलत तरीकों से व्यक्त करने की अनुमति आग्रह करता है। उदाहरणार्थ, समाज के नैतिक व धार्मिक उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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