Book Title: Dwandwa aur Unka Nivaran Author(s): Ramnarayan, Ranjankumar Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 5
________________ - यतीन्द गरिरमारक गत आतिक सन्दर्भ में जैनधर्मके चक्रव्यूह में फंसे दोनों व्यक्तियों को शैलक यक्ष द्वारा मुक्ति मिठाई जैसे जलेबी खाने को रख दी जाए, तब वह भी ऐसी ही दिलाने के लिए जो शर्त रखी गई थी, वही दोनों व्यक्तियों के मन दुविधा में पड़ जाता है, क्योंकि पुराना मधुमेह का रोगी होने के में उत्पन्न इस द्वन्द्व का जनक माना गयी। यक्ष ने कहा मैं तुम कारण जलेबी खाने से तुरंत उसका रोग और भी अधिक बढ़ जाता दोनों को रत्नदेवी के चंगुल से मुक्त कर सकता हूँ। तुम दोनों है और गरम-गरम जलेबी खाने को मन भी खूब ललचाता है। मेरी पीठ पर बैठ जाना मैं वायु मार्ग से इस देवी की परिसीमा से इस प्रकार उपागम-परिहार द्वन्द्व की स्थिति व्यक्ति के तम्हें बाहर कर दूंगा। परंतु तुम दोनों किसी भी स्थिति में पीछे लिए एक लक्ष्य की ओर बढने तथा साथ ही साथ उससे बचने मडकर नहीं देखोगे अगर ऐसा करोगे तो तुम्हें मैं अपने पीठ से की भी रहती है तथा जैसे-जैसे व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर नीचे गिरा दंगा और तुम अपने प्राणों से हाथ धो बैठोगे। यक्ष ने बढ़ता है. वैसे-वैसे ही उसके दन्द्र का रूप उग्र होने लगता है यह भी कहा कि वह रत्नदेवी हम सबका पीछा करेगी और तम अथवा ऐसी स्थिति में लक्ष्य की धनात्मक शक्ति व नकारात्मक दोनों को अपने मायाजाल में फँसाकर पुनः वापस बुलाने के पानी की जाती हैं और राति सेकल सारे प्रयत्न भी करेगी। तुम्हें इनसे सावधान रहना होगा और फँस जाता है कि क्या करे और क्या न करे? पीछे मुड़कर नहीं देखना होगा। अन्यथा मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊँगा और तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। जैन-चिंतन में १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थंकर बनने के पूर्व की एक घटना को उपागम - परिहार द्वन्द्व के उदाहरण यक्ष उन दोनों को लेकर रत्नदेवी के सीमा क्षेत्र से बाहर र के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है- (ज्ञाताधर्म- कथा, अष्टम जाने लगा। रत्नदेवी ने उनका पीछा किया। उन्हें बहुत सारे प्रलोभन अध्ययन) मल्लिनाथ के आकर्षक और चित्तभावन रूप पर दिए। जिनपालित शैलक यक्ष की चेतावनी को ध्यान में रखकर मोहित होकर प्रतिबुद्धि चंद्रच्छाय, शंख, रुक्मि, अदनिशत्रु और किसी प्रकार के द्वन्द्व का शिकार नहीं हुआ। परंतु जिनरक्षित द्वन्द्व जितशत्रु इन छह राजाओं ने कुंभराजा (मल्लिनाथ के पिता) से का शिकार हुआ और अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। यद्यपि उसकी पुत्री का हाथ माँगा। कुंभ के इनकार करने पर छहों जिनपालित ने अपने मन को द्वन्द्व से मुक्त रखने का प्रयत्न राजाओं ने सम्मिलित रूप से उसके राज्य पर आक्रमण करने किया और सफल भी हुआ, लेकिन उसके मन में दो निषेधात्मक का निर्णय लिया। इसकी जानकारी मल्लि राजकुमारी को भी भाव उत्पन्न हुए। हुई। मल्लिराजकुमारी भावी तीर्थंकर होने वाली थी। उसे १. प्राण जाने का भय, २.सुख-वैभव छूटने का भय। . जातिस्मरणादि का बोध था। वह अपने एवं उन छहों राजाओं के सख वैभव र... जिनरक्षित ...> प्राण जाने का भय पूर्वभव एव आगामी भव के परिणाम से अवगत थी। वह उन छूटने का दुःख राजाओं को इसके संबंध में बताना चाहती थी। यह उसका उन छहों के प्रति आकर्षण था। लेकिन उसी क्षण उसके मन में यह (iii) उपागम-परिहार द्वन्द्व - इस में व्यक्ति के सामने ऐसी भी था कि अगर वह ऐसा करती है तो राजागण उसके पिता के स्थिति होती है जिसमें दो विरोधी तत्त्व एक साथ मिलकर उसके राज्य पर आक्रमण करेंगे और व्यापक नरसंहार हो सकता है। व्यवहार में द्वन्द्व उत्पन्न कते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति एक ही यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव था। अतः समय पर एक विषय अथवा व्यक्ति के प्रति आकर्षित होकर मल्लिकुमारी के मन में एक ही क्षण में दो परस्पर विरोधी भाव उसकी ओर बढ़ना भी चाहता है, परंतु साथ ही साथ उसकी ओर उठ रहे थे-आकर्षण एवं विकर्षण (भय)। ये दोनों मिलकर बढ़ने से उसे भय भी लगता है। जैसे जब एक व्यक्ति अपने उपागम यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव Boss से अपनी वेतनवृद्धि या किसी अन्य अनुमति के लिए था। परिहार द्वन्द्व उत्पन्न कर रहे थे। आता है, तब उसके मन में कभी-कभी यह संकोच भी होने लगता है कि कहीं उसका दे उसके इस क्रियाकलाप से गस्सा न (iv) दोहरा उपागम-परिहार द्वन्द्व - ऐसे द्वन्द्व की स्थिति में हो जाए और उसे प्राप्ति के स्थान पर उल्टे क्षति ही न हो जाए। व्यक्ति ऐसी दुविधाओं में एक साथ पड़ जाता है कि उसे कुछ ऐसे ही, जब एक पुराने मधुमेह के रोगी के सम्मुख स्वादिष्ट भी निश्चित रूप से करने में संतुष्टि के साथ - साथ असंतुष्टि भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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