Book Title: Dwandwa aur Unka Nivaran Author(s): Ramnarayan, Ranjankumar Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 6
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक गन्य अपरिहार्य रूप से मिलती है। जब विद्यार्थी खेल भी दक्षता तथा अध्ययन में उच्च श्रेणी की सफलता चाहता है, तब उसका द्विस्तरीय संघर्ष यह रहता है कि खेल में दक्ष होने पर वह अपने कालेज में लोकप्रिय अवश्य होता है, परंतु साथ ही साथ खेल में अधिक समय देने पर उसके अध्ययन का बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर जब वह शैक्षिक उपलब्धि चाहता है व इससे उसको माता-पिता का अनुमोदन प्राप्त होता है, उसकी कक्षा में प्रतिष्ठा बढ़ती है, परंतु केवल अध्ययन में ही व्यस्त रहने पर वह अपने मित्रों में अप्रिय बन जाता है। अतः ऐसे द्वन्द्व का समाधान करने के लिए उसे काफी सोच-समझकर विवेकपूर्ण निर्णय लेना होगा। जैन ग्रंथ उपासकदशांग में चुल्लशतक नामक गृहस्थ साधक दोहरे उपागम-परिहार द्वन्द्व से पीड़ित व्यक्ति लगता है। ( उपासकदशांग, पंचम अध्ययन)। एक तरफ वह उग्र साधना अपनी आध्यात्मिक उन्नति हेतु कर रहा है दूसरी तरफ वह लौकिक संपदा से भी मुक्त रहना चाहता है, क्योंकि यह कहा गया है कि इस संसार में धन या अर्थ वह परम साधन है, जो व्यक्ति को सब कुछ उपलब्ध करा सकता है। पारलौकिक या आध्यात्मिक चिंतन में इस सिद्धांत को महत्त्वहीन ही माना गया है। लेकिन आध्यात्मिक साधना में रत चुल्लशतक संभवतः इस बात को विस्मृत कर बैठा और द्वन्द्व का शिकार हो गया। जब देव उपसर्ग के रूप में उसे यह धमकी देने लगा कि मैं तुम्हारी सारी सम्पत्ति राजमार्गो पर बिखेर दूँगा तुम निर्धन एवं धनहीन हो जाओगे । तुम्हें महादरिद्रता का कष्ट भोगना पड़ेगा। चुल्लशतक यह कष्ट उठाना नहीं चाहता था, फलस्वरूप देव को उसने पकड़ना चाहा और अपने व्रत को खण्डित कर लिया। अचेतन स्तरीय द्वन्द्व - व्यक्ति के अचेतन द्वन्द्व के निम्नलिखित तीन रूप होते हैं- (i) इदम् तथा अहम् के द्वन्द्व - इदम् के आवेग अभिन्न रूप से सुखात्मक सिद्धान्त द्वारा संचालित होते रहते हैं, जबकि अहम् का संबंध जीवन की कठोर वास्तविकताओं से रहता है। अतः इदम् के आवेगों तथा अहम् के प्रतिरोधों में टकराव से द्वन्द्व उत्पन्न होना सहज रूप से ही समझा जा सकता है। वस्तुतः व्यक्ति के अहम् का उद्गम व विकास इदम् के मुक्त आवेगों पर आवश्यक संयम व नियंत्रण स्थापित होने के Jain Education International आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म पश्चात् ही सम्भव होता है । व्यक्ति का विकसित अहम् इस तथ्य. का द्योतक होता है कि अब इदम् के आनन्दभोगी आवेगों का स्वरूप अधिकांशतः समाजीकृत अथवा सामाजिक मानकों व मूल्यों के अनुरूप संगठित हो गया है। परंतु यदि अहम् विकास में कुछ निर्बलता रहती है, तब इससे यह भी स्पष्ट पता लगता है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति की इदम् की दमित इच्छाएँ अचेतन रूप से अनेक रूप धारण करके विविध मनोश्चनाओं व लक्षणों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति के मार्गों की सतत् खोज कर रही हैं। ऐसा माना गया है कि इदम् ही अहम् के रूप में विकसित होता है। अगर सामान्य ढंग से यह परिवर्तन होता रहे तो इसके कारण व्यक्ति के मन में किसी प्रकार का द्वन्द्व नहीं बनता, लेकिन जब मूल्यबोध और नैतिकता की परिधि में आकर विचार करते हैं तो इदम् की कुछ अनुभूतियों को दबाना पड़ता है। वही दबी हुई इदम् की वृत्ति क्रियाशील होकर विविध प्रकार की विकृतियों को जन्म देती है यही द्वन्द्व भी उत्पन्न करती है । द्वन्द्व चलने, बात करने, सोचने आदि सभी क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। जैन - चिंतकों ने भी इस तरह के द्वन्द्व के संबंध में विचार किया। उन्होंने भी मनुष्य की विभिन्न क्रियाओं का वर्णन करने का प्रयत्न किया और आचार पक्ष एवं नैतिक मान्यताओं की परिधि में ले आया। जैनग्रंथों में इस पर चिंतन करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति किस प्रकार गमन करे, किस प्रकार आसन ग्रहण करे, किस प्रकार शयन करे, कैसे आहार ले, किस प्रकार बोले ताकि अल्प पापकर्मों का बंधन हो । (दशवैकालिक, ४/ ७) यद्यपि जैनों ने पाप कर्मों का अल्प बंधन और क्रियाओं को नैतिकता की परिधि में लाकर इसे आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है, परंतु इसे इदम् तथा अहम् के संघर्षो का परिणाम मान जा सकता है। यह संघर्ष एक द्वन्द्व को उत्पन्न करता है जिसे मनोवैज्ञानिकों ने इदम् तथा अहम् का द्वन्द्व कहा है। Conscious चेतन अवचेतन Unconscious Ego ( अत्यहम) For Private & Personal Use Only Ego अहम् Ego अहम् बाहरी यथार्थता Reality or External stimuli सेन्सर Censor अहम् का संबंध एक ओर (ii) अहम् तथा पराहम् के द्वन्द्व इदम् की आनन्द-योग इच्छाओं तथा दूसरी ओर पराहम् के { १९ JGnGnG mimbimbin www.jainelibrary.orgPage Navigation
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