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द्वन्द्व और उनका निवारण
डा. रामनारायण एवं डा. रज्जन कुमार.....
प्रवक्ता, पार्श्वनाथविद्यापीठ, वाराणसी.
द्वन्द्व मनुष्य की एक प्रमुखं मनोवैज्ञानिक समस्या है। मनुष्य मार्क्स (१९७६) के शब्दों में द्वन्द्व को एक ऐसी परिस्थिति के रूप को जीवन के प्रारंभ से ही द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है। द्वन्द्व में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें परस्पर विरोधी प्रेरक उत्पन्न होने के कई कारण हैं जिनमें से एक कारण कुण्ठा भी है। सक्रिय होते हैं, जिसमें सभी की पूर्ति नहीं की जा सकती है। कण्ठा द्वन्द्व का रूप उस समय ले लेती है, जब व्यक्ति विभिन्न लैजारस के शब्दों में-दन्द उस समय उत्पन्न होता है. जबकि परिस्थितियों के बीच समायोजन का प्रयास करता है और उसमें
एक व्यक्ति को दो असंगत अथवा पारस्परिक रूप से विरोधी वह सफल नहीं हो पाता है। मनुष्य की अनेक इच्छाएँ,
आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रायः एक ही समय पर पूरा करना आवश्यकताएँ तथा रुचियाँ होती हैं किन्त यह जरूरी नहीं कि
होता है, अथवा जब विवश होकर एक आवश्यकता की पूर्ति उसकी सभी इच्छाएँ व आवश्यकताएँ पूरी ही हो जाएँ। इन सबके
करने पर दूसरी आवश्यकता की पूर्ति कर पाना असंभव ही हो कारण एक ऐसा वातावरण बन जाता है जिसकी परिधि में वह
जाता है। उलझ जाता है। वातावरण की इस परिधि में मनुष्य को कुछ विरोधी शक्तियों का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण
द्वन्द्व का अर्थ है-विपरीत विचारों, इच्छाओं, उद्देश्यों का उसके मन में संघर्ष उत्पन्न होता है और यही संघर्ष द्वन्द्व का
विरोध। जनक बन जाता है।
रच (१९६७) ने भी कहा है - "जब कोई व्यक्ति दो में से कोई संघर्ष के अनेक रूप हो सकते हैं- जैसे- एक व्यक्ति का
लक्ष्य चुनने को बाध्य होता है या किसी एक लक्ष्य के प्रति दूसरे से संघर्ष, व्यक्ति का उसके वातावरण से संघर्ष, पारिवारिक ।
विधेयात्मक या निषेधायात्मक भाव रखता है तो उसे द्वन्द्वसंघर्ष, सांस्कृतिक संघर्ष, आदि। इन सबसे कहीं अधिक गम्भीर कुण्ठा का सामना करना पड़ता है।"
और भयानक है - आंतरिक संघर्ष। यह संघर्ष व्यक्ति के विचारों, मानसिक द्वन्द्व का अर्थ स्पष्ट करते हुए फ्रायड ने लिखा है संवेगों, इच्छाओं, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में होता है। कि 'इदम् अहम् और परम् अहम् के बीच सामंजस्य का अभाव
संघर्ष का मुख्य आधार--उचित और अनचित का विचार होने से मानसिक द्वन्द्व उत्पन्न होता है।' होता है।
. उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि द्वन्द्व का द्वन्द्व की परिभाषा - द्वन्द्व, अन्तर्द्वन्द्व तथा कहीं-कहीं संघर्ष इन अनुभव व्यक्ति उस समय करता है, जब उसे दो वांछित लक्ष्यों
में से किसी एक का चयन करना होता है, या किसी एक लक्ष्य तीनों का English अनुवाद Cinflict है तथा Conflict शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Conlictus शब्द से हुई है, जिसका अर्थ
के प्रति उसकी धारणा विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों तरह है एक साथ टकराना। अतः द्वन्द्व का अर्थ एक ऐसी स्थिति से है,
की होती है। इसके अतिरिक्त द्वन्द्व का अनुभव उन दशाओं में भी जिसमें दो आवेगों का एक समय पर ही पारस्परिक रूप से
होता है, जिनमें लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दो मार्ग उपलब्ध हैं, टकराव व संघर्ष होता है। या यों कहा जाय कि द्वन्द्व की अवस्था
परंतु व्यक्ति यह तय नहीं कर पाता है कि किस मार्ग का चयन उस समय उत्पन्न होती है, जब पर्यावरण में आवश्यकता की
किया जाय या उपलब्ध लक्ष्यों में से सभी निषेधात्मक है, परंतु पूर्ति के लिए एक से अधिक लक्ष्य उपलब्ध होते हैं. परंत चयन किसी एक का चयन करना ही है। किसी एक ही का करना हो या एक ही लक्ष्य के प्रति व्यक्ति की द्वन्द्व का वर्गीकरण आवृत्ति विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों प्रकार की होती है।
द्वन्द्वों का वर्गीकरण उनके स्रोतों व चेतन तथा अचेतन roine
రంగసాగరసారం : రవారందరంగం
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- यतीन्द्रसरिक ग्रन्थ - आधुतिक सन्दर्भ में जैनधर्मरूपों के आधार पर निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है-- नहीं देते। उदाहरणार्थ परिवार में जब एक बड़ा बालक किसी (क) स्त्रोतों ( sources) के आधार पर वर्गीकरण - दूसरे छोटे बालक से खिलौना छीन लेता है तब छोटे बालक
को कभी-कभी एकदम क्रोध आ जाता है, और वह बड़े बालक (i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में द्वन्द्व।
से अपना खिलौना न मिलने पर उसको मारने व गाली देने (ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व।
लगता है परंतु तुरंत ही माता-पिता या घर-परिवार के अन्य (iii) दो आंतरिक आवश्यकताओं के परस्पर विरोध से द्वन्द्व।
व्यक्ति उसके ऐसे असभ्य व्यवहार अथवा क्रोध के आवेगों की
गलत रूप से अभिव्यक्ति से मना करते हैं। इस प्रकार यहाँ (ख) चेतन के आधार पर वर्गीकरण -
बालक के लिए बाह्य प्रतिरोधों के कारण आंतरिक आवेगों की (i) उपागम-उपागम द्वन्द्व (Approach-Approach Conflict) पर्ति न होने पर द्वन्द्व उत्पन्न होता है। बालक के लिए आरंभिक (ii) परिहार-परिहार द्वन्द्व (Avoidance-Avoidance Conflict) ।
जीवन में ऐसी अनेक स्थितियाँ आती हैं, परंतु धीरे-धीरे समय
बीतने के साथ-साथ उनका रूप समाजीकृत होता चला जाता (iii) उपागम-परिहार द्वन्द्व (Approach-Avoidance Conflict)
है तथा फिर उनमें प्रायः ऐसा तीव्र द्वन्द्व उत्पन्न नहीं होने पाता। (iii) दो हरा उपागम - परिहार द्वन्द्व ( Double Approach
जैन-चिंतकों ने भी इस प्रकार के द्वन्द्व का उल्लेख किया Avoidence Conflict)
है। उनका यह मानना है कि यह द्वन्द्व बाह्य एवं आंतरिक संवेगों (ग) अचेतन के आधार पर वर्गीकरण
में पारस्परिक संघर्षों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। उपासकदशांग (i) इदम् तथा अहम् के द्वन्द्व (Conflict between id and Ego) में चुल्लशतक नामक गृहस्थ साधक इसी द्वन्द्व से पीड़ित व्यक्ति
है। यद्यपि वह आत्मविकास की साधना में रत रहता है, लेकिन (ii) अहम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Ego and
देव द्वारा बाह्य वस्तु (धन, सम्पत्ति आदि) के नष्ट करने की super Ego)
धमकी से वह भयभीत हो जाता है। इससे बचने हेतु वह देव को (iii) इदम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Id and पकडना चाहता है और अपने व्रत को भंग कर लेता है। धन, super Ego)
सम्पत्ति आदि बाह्य साधन हैं जो व्यवहारिक रूप में मनुष्य की द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों में कठोर आधार पर मौलिक इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। इच्छाएं बाह्य और आंतरिक दोनों अंतर नहीं होता है, बल्कि इनमें पर्याप्त मात्रा में पारस्परिक रूप होती है। यहाँ चुल्लशतक बाह्य वस्तु को बचाने के लिए आंतरिक से overlapping ही रहता है। द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों के उद्वेग से ग्रसित होकर देव को पकड़ना चाहता है क्योंकि उसके विधिवत् वर्णन करने से पहले यहाँ पर द्वन्द्व के स्रोतों का विवेचन मन में यह भय बैठ जाता है कि धन-सम्पत्तिविहीन व्यक्ति करना अति आवश्यक प्रतीत होता है।
शक्तिहीन होता है। शक्तिहीन होकर संघर्ष में जीना नहीं चाहता। द्वन्द्व के विभिन्न स्रोत - व्यक्ति में प्रायः द्वन्द्वों के मुख्य स्त्रोत
उस समय वह सोचता है कि देव को वह पकड़ लेगा और अपने निम्नलिखित ढंग से होते हैं
धन का अपहरण नहीं होने देगा। लेकिन वह इस मिथ्या माया से
ठगा जाता है तब वह पुनः अपनी व्रताराधना में ठीक उसी तरह (i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में टकराव
प्रवृत्त हो जाता है, जैसे कि परिपक्व बालक समाजगत समस्याओं से उत्पन्न द्वन्द्व - व्यक्ति अपनी विभिन्न जैविक आवश्यकताओं
को समझ लेने पर इस तरह के द्वन्द्व से बचने लगता है। व आवेगों की पूर्ति अपने बाह्य पर्यावरण के अंतर्गत ही करता
(ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व - समाज है, परंतु बाह्य पर्यावरण के इस संबंध में अनेक प्रतिरोध अधिकांशतः भौतिक अवरोधों, सामाजिक परंपराओं तथा
कभी-कभी व्यक्ति के सम्मुख परस्पर रूप से विरोधी भूमिकाएँ सांस्कृतिक मूल्यों के रूप में होते हैं और वे व्यक्ति के आवेगों प्रस्तुत करता है, तथा उनका परिपालन करने के लिए भारी की पूर्ति तथा संतुष्टि गलत तरीकों से व्यक्त करने की अनुमति
आग्रह करता है। उदाहरणार्थ, समाज के नैतिक व धार्मिक उपदेश
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यतीन्द्रसूरि मा आधृतिक सन्दर्भ में जैनधर्म - व्यक्ति से संसार के अन्य समस्त व्यक्तियों के एक ही ईश्वर की से तीव्र द्वन्द्व उत्पन्न होता है, क्योंकि जब वह विद्यार्थी परीक्षा में संतान होने के नाते उनके प्रति एक ओर समानता का व्यवहार उच्च अंक प्राप्त करने के लिए अधिक समय तक पढ़ना चाहता करने की अपेक्षा रखते हैं तथा दूसरी ओर ठीक इसके विपरीत, है, तब वह खेलकूद को अधिक समय नहीं दे सकता और यदि उससे अपने राष्ट्र, अपने धर्म, समाज व समूह को ही सर्वश्रेष्ठ वह अधिक समय अपने खेल में देता है तब वह परी मानने का भी आग्रह करते हैं। मूलरूप से ऐसी सामाजिक अंक नहीं पा सकता। ठीक इसी प्रकार, जब एक विद्यार्थी रात में भूमिकाओं से व्यक्ति में द्वन्द्व उत्पन्न स्वाभाविक ही है। ऐसे ही पढ़ना भी चाहे व साथ ही साथ शीघ्र ही सोने की भी उसकी समाज व्यक्ति को एक ओर सामाजिक अनुरूपता (Social इच्छा रहती हो, तब ऐसी स्थिति में उसमें दो आंतरिक इच्छाओं Conformity) के व्यवहार के लिए पढ़ाता है तथा दूसरी ओर के परस्पर विरोध से द्वन्द्व उत्पन्न होना स्वाभाविक ही होता है। आर्थिक स्तर पर उसे व्यक्तिवाद (Individualism) की शिक्षा
यहाँ हम उपासकदशांग में वर्णित सुरादेव नामक गृहस्थ देता है तथा उसे घोर प्रतिस्पर्धा भी सिखाता है। इसी प्रकार कहा जा
साधक का उदाहरण प्रस्तुत करके इस द्वन्द्व को स्पष्ट करना सकता है कि समाज व्यक्ति को एक ओर सहयोग तथा दूसरी ओर
चाहेंगे। सुरादेव आध्यात्मिक साधना में रत है। उसकी आंतरिक विरोध (प्रतिस्पर्धा) के परस्पर विरोधी आग्रहों से उन व्यक्तियों में
इच्छा है कि वह शुद्ध और संयमपूर्ण जीवन जिए। इसके लिए द्वन्द्व की स्थितियाँ उत्पन्न करता है। आधुनिक युग में जिस तरह से
साधनाक्रम में एक देव उसे यह धमकी देता है कि वह अपनी सामाजिक परिवर्तन हो रहा है, उसमें ऐसे मूल्यों के द्वन्द्व (Con
उग्र साधना से विरत हो जाए अन्यथा उसके शरीर में एक साथ flict in Values) साधारणत: अत्यधिक देखने को मिलते हैं।
१६ महारोग उत्पन्न कर देगा। जिसके कारण तीव्र वेदना के साथ जैन-दर्शन में सभी जीवों को सैद्धांतिक रूप से समान उसकी मृत्यु हो जाएगी। सुरादेव देव की इस धमकी से भयभीत समझा जाता है, परंतु व्यावहारिक स्तर पर इसमें भिन्नता भी हो जाता है और इससे बचने के लिए उसे पकड़ना चाहता है देखी जाती है। यद्यपि यह भिन्नता सामाजिक स्तर पर ही परिलक्षित और अपना व्रत भंग कर लेता है। सुरादेव की आंतरिक इच्छा है होती है, फिर भी यह द्वन्द्व की जनक तो है ही। वस्तुत: इस तरह कि वह आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त करे साथ ही साथ उसका शरीर के द्वन्द्व का उदाहरण जैन-चिंतन में नहीं मिलता है क्योंकि यहाँ । स्वस्थ रहे, लेकिन देव द्वारा उसके शरीर में सोलह महारोग एक सभी जीवों को निश्चयात्मक दृष्टि से समान माना गया है, लेकिन साथ उत्पन्न करने की धमकी उसे उनके कारण उत्पन्न महावेदना पर्यायदृष्टि से यहाँ जीवगत भेद दृष्टिगोचर होता है और इसका का बोध कराती है। वह इस वेदना से बचना चाहता है। कारण जीव के कर्मों को मान लिया जाता है । अतः इस रूप में फलस्वरूप वह इसे उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारण देव को इसके कारण मनुष्य के मन में जो द्वन्द्व उत्पन्न होता है, वह दो पकड़ना चाहता है। अतः इसे दो आंतरिक इच्छाओं के परस्पर बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध का ही परिणाम माना जा सकता विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व का उदाहरण माना जा सकता है। है। यही कारण है कि जैनों में सभी दुःखों से मुक्ति के लिए मोक्ष तानी
चेतन स्तरीय द्वन्द्व - Lewin के अनुसार व्यक्ति के चेतन द्वन्द्व पद को स्वीकार किया है, लेकिन इसकी प्राप्ति व्यक्तिगत साधना सी
के भी प्रायः निम्नलिखित चार रूप होते हैं-- से ही संभव है।
(i) उपागम-उपागम द्वन्द्व - ऐसे द्वन्द्व को आकर्षण-आकर्षण (iii) दो आंतरिक आवश्यकताओं के परस्पर विरोध से द्वन्द्व- दन्ट भी कहते हैं. इसके अंतर्गत व्यक्ति की दविधा यह रहती है
___ व्यक्ति कभी-कभी परस्पर रूप से विरोधी अपनी ही कि वह दो समान लक्ष्यों में से किस लक्ष्य को स्वीकार करे और आंतरिक आवश्यकताओं के द्वन्द्व के जाल में फँस जाता है। किसे अस्वीकार करे, क्योंकि स्थिति ऐसी है कि वह उन दोनों में उदाहरणार्थ, जब एक विद्यार्थी परीक्षा में भी उच्च श्रेणी के अंक से केवल एक को स्वीकार कर सकता है तथा एक के स्वीकार प्राप्त करना चाहता है व साथ ही साथ खेलकूद में भी अपनी करने पर यहाँ दूसरे लक्ष्य की प्राप्ति स्वयं ही समाप्त हो जाती प्रबल रुचि रखना चाहता है, तब ऐसी स्थिति में एक सामान्य है। जैसे एक नवयुवती के सामने विवाह के लिए दो ऐसे उत्तम विद्यार्थी के लिए ऐसी दो परस्पर रूप से विरोधी आवश्यकताओं प्रस्ताव विचाराधीन होते हैं, जो कि सब दृष्टियों से एकदम आकर्षक పరవాడతారురురురురురురువారmade 6 సారయుతంగురువారం సాయంతirationుసారంగ
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - होते हैं, तब उसकी मानसिक उलझन यह होती है कि वह किसे में से किसी एक का चयन करना होता है, जबकि यह दोनों में से स्वीकारे तथा किसे अस्वीकारे। उसकी वास्तविक मानसिक द्वन्द्व किसी को भी नहीं चाहता है। जैसे जब एक बीमार बालक से का ऐसी स्थिति को आरेख के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है- उसकी माँ कड़वी गोली लेने या फिर उसके स्थान पर इंजेक्शन उपागम - उपागम द्वन्द्व
लेने के लिए पूछती है, तब बालक स्वाभाविकतः इन दोनों कटु
व कष्टकारक स्थितियों में से किसी एक को भी स्वीकार नहीं सुंदर व आकर्षक युवक
सुंदर व आकर्षक युवक
करना चाहता, परंतु साथ ही साथ उसका संकट यह भी है कि तथा < > नवयुवती
तथा
वह इस स्थिति से बच भी नहीं सकता। दाँत के दर्द से पीड़ित उपागम
उपागम दिल्लीवि.वि.का प्रवक्ता
जवाहरलालहरूवि.वि. व्यक्ति के सम्मुख भी कभी-कभी ऐसे ही संकट की स्थिति उस काप्रवक्ता
समय आ जाती है, जब वह दाँत के डाक्टर के पास दाँत निकलवाने
के भय से भी डरता है, तथा घर पर दाँत के दर्द को भी सहन नहीं इस आरेख में नवयुवती विवाह के लिए दोनों युवकों की
कर पाता। ऐसे ही, पारिवारिक जीवन में जब एक युवक की माँ ओर समान रूप से आकर्षित है, परंतु वह उनमें से केवल एक
व उसकी पत्नी में घोर युद्ध छिड़ जाता है, तब उसके मन में यह का ही चयन कर सकती है, वह किसे स्वीकार करे तथा किसे
द्वन्द्व उठ खड़ा होता है कि वह इन दोनों में से किसका पक्ष ले व अस्वीकार करे, यही उस युवती का द्वन्द्व है। जिसे उपागम
किसका न ले। माँ का पक्ष लेने पर पत्नी के प्रकोप को भी वह उपागम द्वन्द्व कहा जा सकता है।
भलीभांति जानता है और पत्नी का पक्ष लेकर वह माँ के कोमल जैन-दर्शन में इस द्वन्द्व का चित्रण भावना अधिकार द्वारा ।
हृदय को भी ठेस नहीं पहुँचाना चाहता। आरेख की सहायता से समझाया जा सकता है। व्यक्ति के मन में उत्पन्न स्थायी मिथ्या इस दन्द को स्पष्ट किया जा सकता है-- संस्कारों के निर्माण करने की प्रक्रिया भावना कहलाती है इनकी
परिहार-परिहार द्वन्द्व कुल संख्या बारह है, जिनमें अन्यत्व भावना भी एक है जो व्यक्ति को अन्य वस्तओं से उसकी भिन्नता का अर्थ-बोध पत्नी के प्रकोप का भय <--------पति ---------->माके भावोंकोठेस का भयपहचने
परिहार परिहार कराती है। मरणविभत्ति में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है-- हमारा यह शरीर भिन्न है, हमारे बंधु-बांधव भिन्न हैं। संसार के उपर्युक्त आरेख के माध्यम से व्यक्ति के परिहार-परिहार समस्त भौतिक पदार्थ उनके रिश्ते-नाते हमसे भिन्न हैं तथा हम द्वन्द्व को दर्शाया गया है। पारिवारिक कलह में माँ व पत्नी के (आत्मा) उन पदार्थों से भिन्न हैं (मरणविभत्ति, ५९०)। इस बीच कलह की स्थिति यह है कि वह किसका पक्ष ले। अपनी आध्यात्मिक चिंतन से किसी के मन में जो द्वन्द्व उत्पन्न होता है माँ का पक्ष ले या पत्नी का। दोनों स्थितियों में से एक का पक्ष उसे निम्न आरेख द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है--
उसके लिए लेना खतरे की घंटी के बजने के ही समान है। आध्यात्मिक मोह <--- माता ---> पुत्रमोह (इसी तरह के अन्य परिहार - परिहार द्वन्द्व की स्थिति में भी व्यक्ति के लिए अपने
सांसारिक मोह) विवेक से तथा तर्क वितर्क के सहारे एक उपयुक्त निर्णय का इस आरेख में माता के समक्ष दो पक्ष हैं--पत्रमोह तथा समय पर लेना आवश्यक होता है। यहाँ व्यक्ति द्वारा कोई भी दूसरी तरफ अन्यत्व भावना के रूप में आध्यात्मिक मोह । वह ।
निर्णय न लेना भी एक प्रकार से उसका एक निर्णय ही होता है, दोनों प्रकार के मोह-बंधन को तोड नहीं पा रही है। इसके परंतु एक निष्क्रिय निर्णय की अपेक्षा व्यक्ति का सक्रिय निर्णय कारण उसके मन में जो द्वन्द्र उत्पन्न हो रहा है. वह उपाग- अधिक उपयुक्त व उचित रहता है, क्योंकि इसमें उसके विवेक उपागम, द्वन्द्व का उदाहरण है।
की शक्ति व मानसिक बल की शक्ति सम्मिलित रहती है। परिहार-परिवार नन्द-कभी कभी व्यक्ति ऐसी टट की जैन-चिंतन में मकरन्द-पुत्र जिन पालित और जिनरक्षित स्थिति में फँस जाता है, जब व्यक्ति को दो निषेधात्मक लक्ष्यों को परिहार-परिहार द्वन्द्व से ग्रसित माना जा सकता है। रत्नदेवी
torolarordandidrobodoorowondwordroidrorists
१७ Horondinirbudvard-ordrobarodroidododcordinarodar
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- यतीन्द गरिरमारक गत आतिक सन्दर्भ में जैनधर्मके चक्रव्यूह में फंसे दोनों व्यक्तियों को शैलक यक्ष द्वारा मुक्ति मिठाई जैसे जलेबी खाने को रख दी जाए, तब वह भी ऐसी ही दिलाने के लिए जो शर्त रखी गई थी, वही दोनों व्यक्तियों के मन दुविधा में पड़ जाता है, क्योंकि पुराना मधुमेह का रोगी होने के में उत्पन्न इस द्वन्द्व का जनक माना गयी। यक्ष ने कहा मैं तुम कारण जलेबी खाने से तुरंत उसका रोग और भी अधिक बढ़ जाता दोनों को रत्नदेवी के चंगुल से मुक्त कर सकता हूँ। तुम दोनों है और गरम-गरम जलेबी खाने को मन भी खूब ललचाता है। मेरी पीठ पर बैठ जाना मैं वायु मार्ग से इस देवी की परिसीमा से
इस प्रकार उपागम-परिहार द्वन्द्व की स्थिति व्यक्ति के तम्हें बाहर कर दूंगा। परंतु तुम दोनों किसी भी स्थिति में पीछे लिए एक लक्ष्य की ओर बढने तथा साथ ही साथ उससे बचने मडकर नहीं देखोगे अगर ऐसा करोगे तो तुम्हें मैं अपने पीठ से की भी रहती है तथा जैसे-जैसे व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर नीचे गिरा दंगा और तुम अपने प्राणों से हाथ धो बैठोगे। यक्ष ने बढ़ता है. वैसे-वैसे ही उसके दन्द्र का रूप उग्र होने लगता है यह भी कहा कि वह रत्नदेवी हम सबका पीछा करेगी और तम
अथवा ऐसी स्थिति में लक्ष्य की धनात्मक शक्ति व नकारात्मक दोनों को अपने मायाजाल में फँसाकर पुनः वापस बुलाने के पानी की जाती हैं और राति सेकल सारे प्रयत्न भी करेगी। तुम्हें इनसे सावधान रहना होगा और
फँस जाता है कि क्या करे और क्या न करे? पीछे मुड़कर नहीं देखना होगा। अन्यथा मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊँगा और तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।
जैन-चिंतन में १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थंकर बनने
के पूर्व की एक घटना को उपागम - परिहार द्वन्द्व के उदाहरण यक्ष उन दोनों को लेकर रत्नदेवी के सीमा क्षेत्र से बाहर
र के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है- (ज्ञाताधर्म- कथा, अष्टम जाने लगा। रत्नदेवी ने उनका पीछा किया। उन्हें बहुत सारे प्रलोभन
अध्ययन) मल्लिनाथ के आकर्षक और चित्तभावन रूप पर दिए। जिनपालित शैलक यक्ष की चेतावनी को ध्यान में रखकर
मोहित होकर प्रतिबुद्धि चंद्रच्छाय, शंख, रुक्मि, अदनिशत्रु और किसी प्रकार के द्वन्द्व का शिकार नहीं हुआ। परंतु जिनरक्षित द्वन्द्व
जितशत्रु इन छह राजाओं ने कुंभराजा (मल्लिनाथ के पिता) से का शिकार हुआ और अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। यद्यपि
उसकी पुत्री का हाथ माँगा। कुंभ के इनकार करने पर छहों जिनपालित ने अपने मन को द्वन्द्व से मुक्त रखने का प्रयत्न
राजाओं ने सम्मिलित रूप से उसके राज्य पर आक्रमण करने किया और सफल भी हुआ, लेकिन उसके मन में दो निषेधात्मक
का निर्णय लिया। इसकी जानकारी मल्लि राजकुमारी को भी भाव उत्पन्न हुए।
हुई। मल्लिराजकुमारी भावी तीर्थंकर होने वाली थी। उसे १. प्राण जाने का भय, २.सुख-वैभव छूटने का भय। . जातिस्मरणादि का बोध था। वह अपने एवं उन छहों राजाओं के सख वैभव र... जिनरक्षित ...> प्राण जाने का भय पूर्वभव एव आगामी भव के परिणाम से अवगत थी। वह उन छूटने का दुःख
राजाओं को इसके संबंध में बताना चाहती थी। यह उसका उन
छहों के प्रति आकर्षण था। लेकिन उसी क्षण उसके मन में यह (iii) उपागम-परिहार द्वन्द्व - इस में व्यक्ति के सामने ऐसी
भी था कि अगर वह ऐसा करती है तो राजागण उसके पिता के स्थिति होती है जिसमें दो विरोधी तत्त्व एक साथ मिलकर उसके
राज्य पर आक्रमण करेंगे और व्यापक नरसंहार हो सकता है। व्यवहार में द्वन्द्व उत्पन्न कते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति एक ही
यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव था। अतः समय पर एक विषय अथवा व्यक्ति के प्रति आकर्षित होकर
मल्लिकुमारी के मन में एक ही क्षण में दो परस्पर विरोधी भाव उसकी ओर बढ़ना भी चाहता है, परंतु साथ ही साथ उसकी ओर
उठ रहे थे-आकर्षण एवं विकर्षण (भय)। ये दोनों मिलकर बढ़ने से उसे भय भी लगता है। जैसे जब एक व्यक्ति अपने
उपागम यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव Boss से अपनी वेतनवृद्धि या किसी अन्य अनुमति के लिए
था। परिहार द्वन्द्व उत्पन्न कर रहे थे। आता है, तब उसके मन में कभी-कभी यह संकोच भी होने लगता है कि कहीं उसका दे उसके इस क्रियाकलाप से गस्सा न (iv) दोहरा उपागम-परिहार द्वन्द्व - ऐसे द्वन्द्व की स्थिति में हो जाए और उसे प्राप्ति के स्थान पर उल्टे क्षति ही न हो जाए। व्यक्ति ऐसी दुविधाओं में एक साथ पड़ जाता है कि उसे कुछ ऐसे ही, जब एक पुराने मधुमेह के रोगी के सम्मुख स्वादिष्ट भी निश्चित रूप से करने में संतुष्टि के साथ - साथ असंतुष्टि भी
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यतीन्द्रसूरि स्मारक गन्य अपरिहार्य रूप से मिलती है। जब विद्यार्थी खेल भी दक्षता तथा अध्ययन में उच्च श्रेणी की सफलता चाहता है, तब उसका द्विस्तरीय संघर्ष यह रहता है कि खेल में दक्ष होने पर वह अपने कालेज में लोकप्रिय अवश्य होता है, परंतु साथ ही साथ खेल में अधिक समय देने पर उसके अध्ययन का बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर जब वह शैक्षिक उपलब्धि चाहता है व इससे उसको माता-पिता का अनुमोदन प्राप्त होता है, उसकी कक्षा में प्रतिष्ठा बढ़ती है, परंतु केवल अध्ययन में ही व्यस्त रहने पर वह अपने मित्रों में अप्रिय बन जाता है। अतः ऐसे द्वन्द्व का समाधान करने के लिए उसे काफी सोच-समझकर विवेकपूर्ण निर्णय लेना होगा।
जैन ग्रंथ उपासकदशांग में चुल्लशतक नामक गृहस्थ साधक दोहरे उपागम-परिहार द्वन्द्व से पीड़ित व्यक्ति लगता है। ( उपासकदशांग, पंचम अध्ययन)। एक तरफ वह उग्र साधना अपनी आध्यात्मिक उन्नति हेतु कर रहा है दूसरी तरफ वह लौकिक संपदा से भी मुक्त रहना चाहता है, क्योंकि यह कहा गया है कि इस संसार में धन या अर्थ वह परम साधन है, जो व्यक्ति को सब कुछ उपलब्ध करा सकता है। पारलौकिक या आध्यात्मिक चिंतन में इस सिद्धांत को महत्त्वहीन ही माना गया है। लेकिन आध्यात्मिक साधना में रत चुल्लशतक संभवतः इस बात को विस्मृत कर बैठा और द्वन्द्व का शिकार हो गया। जब देव उपसर्ग के रूप में उसे यह धमकी देने लगा कि मैं तुम्हारी सारी सम्पत्ति राजमार्गो पर बिखेर दूँगा तुम निर्धन एवं धनहीन हो जाओगे । तुम्हें महादरिद्रता का कष्ट भोगना पड़ेगा। चुल्लशतक यह कष्ट उठाना नहीं चाहता था, फलस्वरूप देव को उसने पकड़ना चाहा और अपने व्रत को खण्डित कर लिया।
अचेतन स्तरीय द्वन्द्व - व्यक्ति के अचेतन द्वन्द्व के निम्नलिखित तीन रूप होते हैं-
(i) इदम् तथा अहम् के द्वन्द्व - इदम् के आवेग अभिन्न रूप से सुखात्मक सिद्धान्त द्वारा संचालित होते रहते हैं, जबकि अहम् का संबंध जीवन की कठोर वास्तविकताओं से रहता है। अतः इदम् के आवेगों तथा अहम् के प्रतिरोधों में टकराव से द्वन्द्व उत्पन्न होना सहज रूप से ही समझा जा सकता है।
वस्तुतः व्यक्ति के अहम् का उद्गम व विकास इदम् के मुक्त आवेगों पर आवश्यक संयम व नियंत्रण स्थापित होने के
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
पश्चात् ही सम्भव होता है । व्यक्ति का विकसित अहम् इस तथ्य. का द्योतक होता है कि अब इदम् के आनन्दभोगी आवेगों का स्वरूप अधिकांशतः समाजीकृत अथवा सामाजिक मानकों व मूल्यों के अनुरूप संगठित हो गया है। परंतु यदि अहम् विकास में कुछ निर्बलता रहती है, तब इससे यह भी स्पष्ट पता लगता है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति की इदम् की दमित इच्छाएँ अचेतन रूप से अनेक रूप धारण करके विविध मनोश्चनाओं व लक्षणों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति के मार्गों की सतत् खोज कर रही हैं।
ऐसा माना गया है कि इदम् ही अहम् के रूप में विकसित होता है। अगर सामान्य ढंग से यह परिवर्तन होता रहे तो इसके कारण व्यक्ति के मन में किसी प्रकार का द्वन्द्व नहीं बनता, लेकिन जब मूल्यबोध और नैतिकता की परिधि में आकर विचार करते हैं तो इदम् की कुछ अनुभूतियों को दबाना पड़ता है। वही दबी हुई इदम् की वृत्ति क्रियाशील होकर विविध प्रकार की विकृतियों को जन्म देती है यही द्वन्द्व भी उत्पन्न करती है । द्वन्द्व चलने, बात करने, सोचने आदि सभी क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। जैन - चिंतकों ने भी इस तरह के द्वन्द्व के संबंध में विचार किया। उन्होंने भी मनुष्य की विभिन्न क्रियाओं का वर्णन करने का प्रयत्न किया और आचार पक्ष एवं नैतिक मान्यताओं की परिधि में ले आया। जैनग्रंथों में इस पर चिंतन करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति किस प्रकार गमन करे, किस प्रकार आसन ग्रहण करे, किस प्रकार शयन करे, कैसे आहार ले, किस प्रकार बोले ताकि अल्प पापकर्मों का बंधन हो । (दशवैकालिक, ४/ ७) यद्यपि जैनों ने पाप कर्मों का अल्प बंधन और क्रियाओं को नैतिकता की परिधि में लाकर इसे आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है, परंतु इसे इदम् तथा अहम् के संघर्षो का परिणाम मान जा सकता है। यह संघर्ष एक द्वन्द्व को उत्पन्न करता है जिसे मनोवैज्ञानिकों ने इदम् तथा अहम् का द्वन्द्व कहा है।
Conscious चेतन अवचेतन Unconscious
Ego ( अत्यहम)
Ego अहम्
Ego अहम्
बाहरी यथार्थता
Reality or External stimuli
सेन्सर Censor
अहम् का संबंध एक ओर
(ii) अहम् तथा पराहम् के द्वन्द्व इदम् की आनन्द-योग इच्छाओं तथा दूसरी ओर पराहम् के
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. चतीन्दयग्रिमारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म. धार्मिक व नैतिक मानदण्डों से जुड़ा रहता है। अहम् की इन तरह के अपमान सहने के लिए किया है। मैं प्रात: वापस अपने दोनों विपरीत व विरोधी व्यवहारों में समन्वय तथा तालमेल राज्य लौट जाऊँगा। यह उनके अहम् की चेतना थी। उसी क्षण कभी-कभी इदम् की वासनापूर्ण इच्छाओं को भी दुरुत्साहित उनके मन में विचार आया कि संघ के प्रमुख आचार्य भगवान कर जाता है। इससे पराहम व्यक्ति के अहम् को कचोटने लगता महावीर हैं, संघ से जाने के पहले मुझे उनसे इसकी अनुमति है। इससे ही व्यक्ति में अपराध-भावना, पाप-धारणा व प्रायश्चित लेनी चाहिए। उनके मन में यह भावना पराहम् के कारण जागृत की कटु वेदना होने लगती है। सामान्यत: अहम् अनेक अवसरों हुई। एक तरह कष्टों से ऊबकर उन्हें छोड़ने का भाव दूसरी तरफ पर पराहम् की ऐसी साधारण कटु आलोचनाओं व संघर्षों की प्रमुख से अनुमति लेकर जाना अनुशासन की मर्यादा बनाए स्थिति को सहन भी कर जाता है, तथा ऐसे द्वन्द्व की व्यवहारिक रखने का द्योतक है। इसलिए इसे पराहम् का ही कार्य माना जा जीवन में विशेष रूप से चिंता भी नहीं करता। परंतु ऐसे द्वन्द्वों का सकता है। अत: एक ही समय छोड़ना और पूछकर छोड़ने का स्वरूप उस स्थिति में अति कष्टदायक हो जाता है, जबकि पराहम् जो भाव मेघमुनि के मन में उठता है, उसे अहम् और पराहम् के का रूप अति विकसित हो जाता है। इससे अहम् की सुरक्षात्मक संघर्ष के फलस्वरूप उत्पन्न द्वन्द्व ही कहा जा सकता है। संरचना विघटित होकर टूटने लगती है, तथा व्यक्ति के व्यवहार
(iii) इदम् तथा पराहम् के द्वन्द्व - इदम् के वासनापूर्ण क्षणिक में कभी-कभी अनेक मानसिक व संवेगात्मक विकृति के लक्षण
आवेगों तथा पराहम् के कठोर नैतिक आदशों में संघर्ष सहजरूप भी दिखाई देने लगते हैं।
से ही बोधगम्य है। सामान्यतः व्यक्ति का सुसंगठित अहम् इन वस्तुत: ऐसे संघर्ष अथवा द्वन्द्व पराहम् के ही एक रूप दोनों परस्पर विरोधी आग्रहों में समन्वय व तालमेल बैठाने में अन्तरात्मा की कठोरता द्वारा प्रभावित होते हैं व कभी-कभी सफल रहता है, परंतु फिर भी व्यक्ति के व्यवहारिक व सामाजिक ऐसे गंभीर द्वन्द्व पराहम् के दोषपूर्ण अहम्-आदर्शों द्वारा निर्धारित जीवन में ऐसे द्वन्द्वों का प्रक्रम नित चलता ही रहता है। ऐसे द्वन्द्वों होते हैं। ऐसे ही जब कभी व्यक्ति के अहम्-आदर्शों का रूप से प्रायः तंत्रिका-तापी तथा मनोविकृति की स्थिति तब तक अलौकिक व अव्यवहारिक होता है, तब सामान्यतः ऐसे उच्च उत्पन्न नहीं होती, जब तक व्यक्ति का अहम् इन दोनों परस्पर आदर्शों से व्यक्ति सदैव नीचे व पीछे ही रहता है। इस कारण रूप से विरोधी आग्रहों में संतुलन बनाए रखने में पर्याप्त रूप से व्यक्ति में निरंतर ऐसे अभाव के बने रहने से यह उसके अचेतन शक्तिशाली रहता है। परंतु जब व्यक्ति के अहम् में इनके के द्वन्द्व का मुख्य कारण बन जाता है।
परस्पर विरोधी आग्रहों पर नियंत्रण व समन्वय करने में स्थायी जैन-चिंतन में मेघमुनि का दृष्टान्त अहम् तथा पराहम् के
शिथिलता आ जाती है, तब व्यक्ति में या तो इदम् के आवेग ही संघर्ष के कारण उत्पन्न द्वन्द्व का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करता है।
या फिर पराहम् के आदेश ही व्यक्तित्व का केन्द्रीय संचालक सम्राट मेघकमार ने अपने समस्त वैभवों का परित्याग करके बन जाता है। उस स्थिति में व्यक्ति या तो इदम् के प्रभाव के भगवान महावीर के सानिध्य में मुनिधर्म को अंगीकार किया।
कारण भोग-इच्छाओं में ही लिप्त हो जाता है, या फिर पराहम् के रात्रि-विश्राम के समय श्रमण-परंपरा में ज्येष्ठानुक्रम में मुनियों
कठोर आदर्शों के आग्रहों के कारण अति धार्मिक व व्यवहारिक के लिए छोटे-बड़े क्रम से संस्तारक बिछाने का विधान है।
बन जाता है। सांसारिक तथा व्यवहारिक जीवन में ऐसी दोनों मेघमनि उस समय सबसे कनिष्ठ थे। उन्हें बिस्तर विश्राम-स्थल कठोर प्रवृत्तियाँ प्रायः कुसमायोजन की ही ओर उम्मुख रहती हैं। के द्वार के पास मिल पाया। द्वार के पास मनियों का आने-जाने प्रायः द्वन्द्वों का ऐसा स्वरूप व्यक्तित्व के लिए विघटनकारी का क्रम लगा रहा । इसी अनुत्क्रम में उनके शरीर पर दूसरे
तथा क्षतिजनक ही होता है। सामान्य व्यक्ति में भी कुछ अचेतन मुनियों के पाँव का आघात भी लगा। इस कारण उन्हें नींद नहीं
द्वन्द्व रहते हैं, परंतु उनके रूप प्रायः कभी भी अहम् के सुरक्षात्मक आई। वे प्रतापी सम्राट थे। एशोआराम में पले थे इस तरह के संगठन का उल्लंघन नहीं करने पाते हैं। कष्ट को सहन नहीं कर पाए। इन सबके कारण उनके अहम् को जैनमत में इस द्वन्द्व को रथनेमि और राजीमति के उदाहरण ठेस लगी। वे सोचने लगे मैंने अपने वैभव का त्याग क्या इस द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। जहाँ राजमति १६वें तीर्थंकर sardarodisardarodariwarobarsaridroid २०diridrinidadrdasardaariusdaidasranslation
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक संदर्भ में जैनधर्म - अरिष्टनेमि की होने वाली पत्नी थी, वहीं रथनेमि अरिष्टनेमि के
वर्गीकरण भाई थे। अरिष्टनेमि के वैराग्य लेने के बाद राजीमति भी दीक्षित (Lewin 1935 Ruch 1967 पर आधारित) होकर रैवतक पर्वत पर आरूढ़ अरिष्टनेमि की वंदना करने जा
द्वन्द्व की प्रवणता (Gradients of Conflict)--अधिकांश रही थी। उसी पर्वत की एक गुफा में रथनेमि भी त्यागमय
द्वन्द्वों की उत्पत्ति ऐसे लक्ष्यों से होती है, जिनमें आकर्षण और जीवन को अपनाकर तपाराधना में लीन था। वर्षा के कारण
विकर्षण दोनों पाए जाते हैं। जैसे किसी छात्र को मक्खन खाने राजीमति को उसी गुफा में शरण लेनी पड़ी। परंतु इस बीच वह
का शौक है, परंतु मोटापे का भी भय है, किसी छात्र को पर्वतारोहण वर्षा से पूरी तरह भीग गई थी। उसने अपने गीले वस्त्रों को
में रुचि है, परंतु दुर्घटना से डरता है या कोई बच्चा बत्तख को सुखाने के लिए उसे जमीन पर फैला दिया। इसी बीच साधनारत
पकड़ने के लिए अग्रसर होना चाहता है, परंतु उसकी आवाज से रथनेमि की दृष्टि राजीमति के वस्त्रहीन देह पर पड़ी। वह वासना
डरता भी है। इन सभी परिस्थितियों में आकर्षणात्मक विकर्षण के आवेग से भर गया और राजीमति की शरीर को पाने के लिए
दोनों है। इन परिस्थितियाँ को उभय कर्षणात्मक (Ambivalent) उससे अनुनय विनय करने लगा। राजीमति ने उसे ऐसा करने से
परिस्थितियां कहते हैं। लक्ष्य-वस्तुओं से व्यक्ति की समझ से रोका और उपदेश देकर उसे उसके लक्ष्य का ज्ञान कराया।
आकर्षण एवं विकर्षण की मात्रा जितनी होगी, उसी के अनुरूप राजीमति के उपदेश से वह वासनात्मक आवेग से मुक्त हुआ
व्यक्ति के व्यवहार में लक्ष्यों के प्रति उपागम या परिहार की और अपने त्यागमय जीवन पर दृढ हो गया। यहाँ रथनेमि द्वारा
तीव्रता भी होगी। उसे द्वन्द्व की प्रवणता या तीव्रता कहते हैं राजीमति के शरीर को पाने की चाहत इदम् की आनंदात्मक
(Brown, १९४८) हिलगार्ड (१९७५) इत्यादि ने इस प्रसंग में अनुभूति को प्रकट करती है, दूसरी तरफ राजीमति के उपदेश
निम्नलिखित निष्कर्ष प्रस्तुत किया है-- द्वारा विवेक का जागरण पराहम् की भावना पर प्रकाश डालता है। रथनेमि के मन में उस समय जो द्वन्द्व उत्पन्न हआ उसे इदम (i) यदि प्रयोज्य विधेयात्मक लक्ष्य (+ve) के समीप है तो उसे तथा पराहम के संघर्ष का परिणाम ही कहा जा सकता है जहां प्राप्त करने का प्रयास तीव्र हो जाएगा। अहम् इन विरोधी भावों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। (ii) निषेधात्मक उद्दीपक (-ve) प्रयोज्य के जितना ही समीप
होगा, वह उससे उतना ही दूर होना चाहेगा। (A)
(iii) सामान्यतया विधेयात्मक उद्दीपक (+ve) की तुलना में निषेधात्मक उद्दीपक (-ve) से दूर होने की प्रवृत्ति अधिक प्रबल होती है। जैनमत में द्वन्द्वप्रवणता-द्वन्द्वप्रवणता की अवधारणा जैन मत में निम्न रूपों में देखी जा सकती है--
लक्ष्य
(i) प्रयोज्य विधेयात्मक लक्ष्य के समीप रहने पर उसे प्राप्त करने का अधिक प्रयत्न करता है। यही प्रवणता चुल्लशतक में पाई जाती है। जब देव उसकी धन-सम्पत्ति को अपहरण करने की धमकी देता है तब वह (चुल्लशतक) उस देव को पकड़कर इस कार्य को होने ही नहीं देना चाहता है। यहाँ चुल्लशतक के समक्ष देव के रूप में लक्ष्य समीप था। उसने सोचा कि अगर मैं इसे पकड़ लेता हं तो मेरे धन का अपहरण नहीं हो पाएगा क्योंकि इसे लेने वाला देव मेरी गिरफ्त में आ
जाएगा। aniramidrorarianoonironironionbondonoonistant२१Hdniroinororaniranoranidroritiiranikariramirrowrir
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-- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म -
तिना अधिक समीप रक्षा-युक्तियों के महत्त्वपूर्ण कार्य-- होता है, वह उससे उतना ही अधिक दूर रहना चाहता है। यहाँ
सामान्य व्यक्ति के जीवन में समायोजन की दृष्टि से रक्षा मकरंद-पुत्र जिनपालित को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उसके समक्ष मृत्यु के भय के रूप में निषेधात्मक
" युक्तियों का विशेष योगदान माना जाता है। इस संबंध में इसके
त्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं-- लक्ष्य था- पीछे मुड़कर नहीं देखना। उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने प्राणों की रक्षा की। जबकि वह नित्य भोग (१) रक्षायुक्तियों से व्यक्ति की समायोजन संबंधी आवश्यकता विलासों में रत्नदेवी के साथ लिप्त रहा था, लेकिन यह भोग की सरलता पूर्वक संतुष्टि होती है। विलास भी अंततः उसकी मृत्यु का कारण बनता। इसलिए वह (२) इनसे व्यक्ति में कंठाजनित तनाव, निराशा व असफलता इनसे बचना चाहा तथा रत्नदेवी के लाख प्रलोभनों का भी उस
की प्रबलता तथा कटुता में विशेष रूप से कमी आती पर प्रभाव नहीं पड़ा। क्योंकि उसके समक्ष मृत्यु के रूप में अत्यंत बलशाली निषेधात्मक लक्ष्य था, जिससे उसे बचना था।
(३) इनसे व्यक्ति के विघटन की प्रक्रिया की कारगर रूप से (iii) मल्लिनाथ के उदाहरण में तृतीय निष्कर्ष को समझाया
रोकथाम होती है। जा सकता है। स्वर्णमूर्ति के अंदर सड़े हुए अन्न की दुर्गंध एवं
(४) इनसे व्यक्ति में दुश्चिन्ता की मात्रा कम होती है। बिना दुर्गंध के स्वर्णमूर्ति का छहों राजाओं द्वारा जो अवलोकन किया गया, वह वस्तुतः विधेयात्मक उद्दीपक की तलना में (५) इनसे एक प्रकार से व्यक्ति के आत्म सम्मान की रक्षा निषेधात्मक उद्दीपक से दूर होने की मनुष्य की प्रवृत्ति का
होती है, तथा साथ ही साथ व्यक्ति के अहम की संरचना सूचक है। प्रायः दुर्गंध से मनुष्य दूर भागता है, जबकि मनोरम
की भी पर्याप्त सुरक्षा रहती है। एवं आकर्षक वस्तुएँ मनुष्य को लुभाती है और वह इनके पास (६) इनसे व्यक्ति में द्वन्द्वों के प्रति सहनशीलता की शक्ति में आना चाहता है।
वृद्धि होती है, क्योंकि रक्षा-युक्तियाँ, व्यक्ति तथा उसके द्वन्द्व के निवारण - व्यक्ति को जीवन में अनेक प्रबल कुण्ठाओं,
द्वन्द्वों के मध्य में बफर का काम करती है तथा इस प्रकार द्वन्द्वों तथा विभिन्न प्रतिबल स्थितियों का मुख्य रूप से सामना
व्यक्ति को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचने पाती है। करना पड़ता है, तथा इनके प्रति यथासंभव समायोजन खोजने (७) इनकी समायोजी प्रक्रिया अप्रत्यक्षतः तथा अचेतन रूप का भी प्रयास करना पड़ता है। व्यक्ति अपने तर्क व विवेक के से निर्धारित होती है, अतः व्यक्ति के लिए ऐसी क्रियाएँ आधार पर अपने द्वन्द्वों से उत्पन्न निराशाओं, विफलताओं व
एक प्रकार के प्रयास रहित रूप से स्वतः ही सम्पन्न होती हीनताओं के दुष्प्रभाव को कम करने का चेतन रूप से भरसक
रहती हैं। प्रयास करता है, परंतु जब व्यक्ति इस प्रक्रम में असफल हो जाता है, तब व्यक्ति का अचेतन अति कुशलता के साथ उसके .
(८) इनसे व्यक्तित्व की एकता व्यावहारिकता अखंडित अथवा द्वन्द्वों के तनावों के दुष्प्रभावों तथा कटु अनुभवों का निवारण
समाकलित रहती है, तथा इनके कारण व्यक्तित्व की प्रायः विभिन्न मानसिक रचनाओं के माध्यम से सम्पन्न करता है।
स्थाई संरचना के विघटित होने की आशंका प्रायः नहीं इन मानसिक रचनाओं का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति में द्वन्द्वों से उत्पन्न
रहती। आंतरिक संवेगात्मक तनावों के प्रति विभिन्न युक्तियों के द्वारा (९) इनसे व्यक्ति के आत्म-सम्प्रत्यय पर भी प्रायः प्रतिकूल व्यक्ति के आत्म-सम्मान तथा उसके अहम् की रक्षा करना प्रभाव नहीं पड़ने पाता। होता है। इसी कारण मनोरचनाओं को रक्षायुक्तियों की संज्ञा दी
१०) इनके प्रभाव के कारण अधिकांशतः व्यक्तित्व के जाती है। वस्तुतः व्यक्ति के समायोजन-प्रक्रम तथा उसके व्यक्तित्व के विकास में रक्षा-युक्तियों की अति महत्त्वपूर्ण तथा
समायोजन तथा विकास की प्रक्रिया विशेष सीमाओं के
अंतर्गत सहज रूप से ही सम्पन्न होती रहती है। प्रभावी भूमिका रहती है।
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- यतीन्दमनिमारक गन्य आधतिक गर्भ में जैन धर्मरक्षायुक्तियों के उपयोग की परिसीमाएँ--
मानसिक विरचनाओं के कारण व्यक्ति समस्या की इनके दो कारण हैं
वास्तविकता को नजरअंदाज करने लगता है। ऐसा करने से (१) प्रथम यह कि रक्षा-युक्तियों का स्वरूप अधिकांशतः
उसका मानसिक दबाव कम हो जाता है। उदाहरणार्थ एक छोटे
से बच्चे की माँ जो किसी खतरनाक रोग से पीड़ित है, यह अचेतन रूप से ही निर्धारित होता है। अतः स्वयं व्यक्ति
दिखावा कर सकती है कि वह पीड़ित नहीं है, क्योंकि वास्तविकता को भी यह ज्ञात नहीं होने पाता कि वह इसके माध्यम से
को दिल से स्वीकार कर लेने पर अत्यधिक मानसिक कष्ट अपने किस द्वन्द्व व विफलता को छिपाने अथवा इनके उपयोग से वह अपने किस वेदनापूर्ण अनुभव के प्रभाव
होगा। अत: वह वास्तविकता को नजरअंदाज करके प्रसन्नचित
रहने का प्रयास कर सकती है। दैनिक जीवन में भी.देखने में आता को कम कर रहा है।
है कि व्यक्ति अपने प्रति की गई आलोचनाओं को नजरअंदाज (२) दूसरे यह कि जब व्यक्ति रक्षा-युक्तियों का उपयोग चेतन · करता रहता है, क्योंकि उन पर ध्यान केन्द्रित करते रहने से व्यक्ति
स्तर पर विस्तृत रूप से करने लगता है, तब स्वाभाविकतः उलझनों से ग्रस्त हो सकता है। फ्रायड ने कहा है कि व्यक्ति इससे व्यक्ति के व्यवहार में अधिक कृत्रिमता आ जाती असुखद अनुभवों का दमन कर देता है या उसे स्मृति से निकाल देने है, तथा व्यक्ति स्वयं अपने मिथ्या व्यवहार से आंतरिक का प्रयास भी कर सकता है, ताकि उसका समायोजन बना रहे। रूप से आत्म-अवमूल्यन व कुछ स्थितियों में आत्म
मानसिक विरचना अनेक प्रकार की हो सकती है, परंतु छल का अनुभव भी करने लगता है। इस प्रकार व्यक्ति
अभी तक यह निश्चित नहीं हो पाया है कि किन्हें मुख्य और के चेतन रूप से रक्षा-युक्ति के उपयोग के प्रयास से
किन्हें गौण माना जाए। सामान्यतः व्यक्ति में निम्नलिखित समायोजन के स्थान पर उल्टे उससे कुसमायोजन ही
मनोरचनाएँ अथवा रक्षा-युक्तियाँ क्रियाशील रहती हैं जो निम्न उत्पन्न होता है।
हैं, जिनके द्वारा द्वन्द्व का समाधान हो सकता है। संक्षेप में, रक्षा युक्तियों का समायोजी मूल्य व महत्त्व
१.दमन Repression -दमन से तात्पर्य चेतना में से किसी ऐसी कुछ विशेष परिसीमाओं के अंतर्गत ही रहता है, इन सीमाओं के
इच्छा, विचार या अनुभव को निकाल देना है जो दुःखद या उल्लंघन होने पर व्यक्ति के व्यवहार में असामान्य व्यवहार के ।
कष्टकर है। कोलमैन (१९७४) के कथनों के अनुसार किसी लक्षण निश्चित रूप से दिखाई देने लगते हैं।
खतरनाक इच्छा या असहनीय स्मृति को चेतना से हटा देना ही द्वन्द्वों की समस्याओं से बचने के विभिन्न रूप-- दमन है। इसी कारण दमन को प्रेरित विस्मरण (Motivated
forgetting) भी कहा जाता है। सामान्यतया समायोजन के लिए समायोजन की समस्याओं से बचने के लिए व्यक्ति प्रत्यक्ष
ऐसा करना लाभकारी होता है, परंतु सदैव ऐसा करना हानिकारक उपायों के अतिरिक्त मानसिक विरचनाओं का भी सहारा ले
भी हो सकता है। फ्रायड के कहने के मुताबिक दमित इच्छाएँ सकता है। इस अवधारणा का उपयोग फ्रायड ने उन अचेतन
अचेतन मन में पड़ी रहती हैं और अनुकूल अवसर मिलने पर प्रक्रमों के लिए किया है जिनके द्वारा व्यक्ति चिंता आदि से
चेतना में आने का प्रयास करती हैं। इनका प्रदर्शन स्वप्नों में बंचने का प्रयास करता है। फ्रायड का विश्वास था कि अचेतन ।
प्रायः होता है। प्रक्रम संकट की वास्तविकता को न्यून कर देता है। और इनके परिणामस्वरूप समस्याओं के प्रति व्यक्ति की धारणा में अंतर दमन की मनोरचना का यहाँ अन्य समरूप मानसिक आ जाता है। परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि संकट वास्तव में संरचनाओं से अंतर स्पष्ट करना अति आवश्यक है। ये संरचनाएँ घट जाता है बल्कि व्यक्ति को उसके बारे में विभ्रम होने लगता निम्नांकित हैं--(i) निरोध तथा (ii) अवदमन। है और समस्या की तीव्रता इस प्रकार मानसिक स्तर पर घट (i) निरोध--इसके अंतर्गत व्यक्ति सोच-विचार के आधार पर जाती है।
एक विशेष क्रिया अथवा इच्छित अभिव्यक्ति से अपने आपको
दूर रखता है। ordedridrordidroidiariramidnididrodairidल २३drinidirodriwaridriomaritriaritariandodkar
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म(ii) अवदमन--इसके अंतर्गत वह अपनी अनैतिक इच्छापूर्ति द्वन्द्व-निवारण में दमन के ही अंतर्गत निरोध की भी प्रक्रिया का चेतन स्तर पर विरोध करता है और उसे जान बूझकर अपनाई जाती है। जैनों ने इस हेतु संवर का प्रयोग किया है। संवर अचेतन में धकेल देता है।
कर्माश्रय को करने की एक प्रक्रिया है। निरोध में द्वन्द्व उत्पन्न शैशवकालीन अवस्था में दमन-दमन का प्रक्रम मनुष्य ।
करने वाली इच्छाओं पर रोक लगाई जाती है। जबकि संवर की में उसके शैशवकालीन जीवन से ही प्रारंभ हो जाता है। दमन के
प्रक्रिया में आत्मा की ओर आने वाले उन कर्म पुद्गलों को जो प्रक्रम के अंतर्गत ही शिशु अपनी अनेक शैशवकालीन घृणाओं,
उन्हें विकृत कर सकते हैं, रोका जा सकता है। (तत्त्वार्थसूत्र, ९/ द्वन्द्रों व संघर्षों को ऐसे दमन के कारण भल जाता है तथा इससे १) यद्यपि यह एक आध्यात्मिक क्रिया है. लेकिन जैनों ने उसके आने वाले जीवन में समायोजन तथा विकास का मार्ग
मानसिक, कायिक तथा वाचिक इन तीनों ही क्रियाओं को
मा प्रशस्त होता है। जिन शिशुओं में अहम् का संगठन अधिक ।
कर्मबंधन का कारण माना है,(तत्त्वार्थ सूत्र ६/१,२) जबकि प्रशस्त हो जाता है, उनके अचेतन दमन का प्रक्रम भी तदनुसार ।
मनोवैज्ञानिकों ने मुख्य रूप से द्वन्द्व के लिए मानसिक विचारों अधिक प्रबल ही ही रहता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति में
को ही मुख्य स्थान दिया है। जैनों के अनुसार मानसिक विचार दमित असामाजिक व अनैतिक इच्छाएँ भी व्यक्ति के चेतन
भी कर्म की कोटि में आते हैं जो जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप स्तर पर नहीं आ पाती है। परंतु यदि व्यक्ति के अहम् का संगठन
को विकृत करते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार द्वन्द्व भी व्यक्ति किसी कारण निर्बल रहता है, तब इससे ऐसी अनेक दमित
की सामान्य प्रकृति को असामान्य बनाने की क्षमता रखता है, इच्छाएँ व इदम् की वासनाएँ व्यक्ति के अहम् की सुरक्षा,
इसीलिए वे द्वन्द्व निवारण की बात करते हैं। संरचना के अवरोध को लाँघकर या फिर कुछ थोड़ा अपना रूप २. प्रक्षेपण(Projection) - यह एक ऐसी रक्षायुक्ति होती है, ही बदलकर चेतन स्तर अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग विभिन्न जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी कमजोरियों एवं दोषों को लक्षणों के रूप में खोजने लगती हैं। इस प्रकार की स्थिति प्रायः दूसरे पर आरोपित करता है, या दूसरों को माध्यम बनाता है। इस तंत्रिकातापी तथा मनोविकृति व्यक्ति में ही देखने को मिलती प्रक्रम के कारण व्यक्ति अपनी असफलता के लिए स्वयं को है। अत: विभिन्न व्यक्तियों में अपने-अपने अहम् की संरचना के उत्तरदाययी न मानकर दूसरों को जिम्मेदार ठहराता है (Page आधार पर दमन की मात्राएँ भी भिन्न-भिन्न होती है। मानसिक दृष्टि १९६२)। फ्रायड ने प्रक्षेपण को एक अचेतन प्रक्रिया बताया से स्वस्थ व्यक्तियों में इसकी मात्रा प्राय: अधिक ही रहती है। जबकि मार्क्स (१९७६) ने प्रक्षेपण को वास्तविकता को अस्वीकार द्वन्द्व-निवारण हेतु जैन-परंपरा में मनोवैज्ञानिक प्रविधियों
करने का एक विशेष रूप कहा है। सीयर्स (१९३७) के भी को दार्शनिक रूप से प्रस्तत किया गया है। मनोवैज्ञानिकों ने अनुसार इस विरचना का प्रकार्य अपने दोषों को दूसरे पर आरोपित जिस प्रकार दमन (Repression) की प्रक्रिया के आधार पर
करना है। जैसे, परीक्षा में असफल होने पर छात्र अपने अध्यापकों अवांछित इच्छाओं को चेतन स्तर से हटाकर अचेतन में दबाने
र या परीक्षकों को दोषी ठहराता है। की विधि को स्वीकार किया है, ठीक उसी तरह जीव के फ्रायड के कथानुसार प्रक्षेपण वह प्रक्रम है, जिसमें इद विविध भावों को व्यक्त करते हुए जैनों ने औपशमिक भाव (Id) की इच्छापूर्ति में असफल होने पर अहम् (Ego) बाहरी पर प्रकाश डाला है(तत्त्वार्थसूत्र, २/१)। औपशमिक भाव कारणों को उत्तरदायी मानता है। क्योंकि यदि स्वयं को उत्तरद उपशम से पैदा होता है। उपशम की इस क्रिया में जीव कर्मों मान लिया जाए तो मानसिक तनाव अधिक उत्पन्न होगा। अन्य से उसी प्रकार शुद्ध हो जाता है. जैसे गंदा जल गंदगी के नीचे मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि प्रक्षेपण विरचना के परिणामस्वरूप बैठ जाने से शुद्ध हो जाता है यद्यपि मात्र कर्म को ही जीव के व्यक्ति वास्तविकता से भागना चाहता है. इसी कारण वह भावों का जनक नहीं कहा जा सकता फिर भी इसे जीव को अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है विकत करने वाला एक सर्वप्रमुख कारण अवश्य कहा जा (Kleinmuntz १९९६)। सकता है।
३. प्रतिक्रिया संरचना-प्रतिक्रिया संरचना वह मानसिक विरचना
roaridwardrobworkwordwordwordwordwardrobirodibM २४d iridwaridroidrordrobiritd-standroid-iduotard
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थहै जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति किसी तीव्र प्रेरक या इच्छा को छिपाने के प्रयास में उसके विपरीत व्यवहार करता है ( हिल गार्ड आदि १९७५) ।
मनोविश्लेषणवादी विचारधारा के अनुसार, एक व्यक्ति के व्यवहार में कभी-कभी ऐसा देखने में आता है कि वह वस्तुतः कोई एक विशेष व्यवहार करना चाहता है, परंतु वह वैसा न करके ठीक उसके विपरीत ही व्यवहार करते देखा जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति किसी एक व्यक्ति अथवा विषय के प्रति घृणा के स्थान पर प्रेम करने लगता है और प्रेम के स्थान पर घृणा करने लगता है। वस्तुतः यहाँ व्यक्ति की ऐसी विपरीत प्रतिक्रिया से ही उसका अहम् व समायोजन सुरक्षित रहता है। जैसे जब एक कर्मचारी पर उसके बॉस (Boss) की नित अकारण ही डाँट फटकार पड़ती रहती है, तब ऐसी स्थिति में संबंधित अधीनस्थ कर्मचारी की स्वाभाविक प्रतिक्रिया अपने बॉस को उल्टी कड़ी डाँट-फटकार लगाने की भी होती है, परंतु ऐसे व्यवहार के परिणाम को देखकर प्रायः वह ऐसा न करके ठीक इसके विपरीत बॉस के प्रति विनम्रता का ही व्यवहार करते देखा जाता है और निरंतर स्थिति को सँभालते हुए अपने वास्तविक आवेगों व संवेगों को नियंत्रित व दमित कर लेता है । इस प्रकार प्रतिक्रिया संरचना एक ऐसी रक्षायुक्ति होती है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति अपने कष्टकर, संकट-सूचक व क्षति-जनक आवेगों व भावनाओं को अचेतन में धकेल देता है और उनके स्थान पर उनके विपरीत भाव व व्यवहार को प्रदर्शित करने लगता है। इस प्रकार यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिक्रिया संरचना की रक्षायुक्ति का व्यक्तित्व के समायोजन में एक विशेष सीमा तक महत्त्वपूर्ण योगदान है।
४. युक्तीकरण ( Rationalization) - जब व्यक्ति अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के प्रयास में वास्तविक कारण के स्थान पर अवास्तविक कारणों के आधार किसी बात का औचित्य सिद्ध करता है तो उस प्रक्रम को युक्तीकरण कहते हैं कोलमैन, (१९७४) ने भी लिखा है कि इस विरचना में व्यक्ति अपने द्वारा किए जाने वाले कार्यों को (तर्कों) के आधार पर उचित ठहराने का प्रयास करता है।
युक्तीकरण की रक्षा युक्ति से व्यक्ति न केवल अपने अतीत के अल्प व विफल प्रयासों के संबंध में ही बनावटी व
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दिखावटी तर्क प्रस्तुत करता है, बल्कि अपने वर्तमान निष्फल प्रयासों को भी न्यायोचित ठहराने का प्रयास करता है । उदाहरणार्थं जब एक विद्यार्थी परीक्षा में फेल हो जाता है, तब प्रायः यही कहते सुना जाता है कि पेपर बहुत कठिन थे, उत्तर पुस्तिका के जाँचने में जरूर कुछ गड़बड़ी हुई है, परीक्षाकाल में उसकी तबीयत खराब थी और इन्हीं कारणों से वह परीक्षा में सफल नहीं हो सका, परंतु वह यह कभी स्वीकार नहीं करता कि मैंने परीक्षा में सफल होने के लिए आवश्यक परिश्रम नहीं किया । क्योंकि ऐसा कहने व मानने से उसके अहम् को गहरी चोट लगती है व उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी कम होती है तथा इस आत्मस्वीकृति से उसकी अयोग्यता प्रत्यक्षतः सिद्ध होती है। स्पष्टतः व्यक्ति इस कठोर व कटु स्थिति को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता। इस कारण वह अपने अहम् की रक्षा व सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए अपने निष्फल प्रयासों पर पर्दा डालने का प्रयास करता है व लज्जा की वेदना से बचना चाहता है।
युक्तीकरण के मुख्यतः दो रूप होते हैं-
(i) प्रथम, जिसके अंतर्गत व्यक्ति अपनी पसंद व नापसंद के अधिकार पर अपने व्यवहार का युक्तीकरण करता है, जैसे जब एक विश्वविद्यालय के प्रॉफेसर से यह पूछा जाता है कि वे अपनी योग्यता के आधार पर एक I.A.S. आफिसर क्यों नहीं बने। इस प्रश्न के उत्तर में प्रोफेसर महोदय यह कहते हैं कि उन्हें आफिसर बनना पसंद ही नहीं था, तब उनका ऐसा युक्तीकरण अपनी पसंद व नापसंद के आधार पर कहा जाता है।
(ii) द्वितीय प्रकार के युक्तीकरण के अंतर्गत व्यक्ति अपनी विफलता के लिए बाह्य परिस्थितियों की कठोरता व क्रूरता को दोषी ठहराता है।
इन दो मुख्य रूपों के अतिरिक्त, व्यक्ति की प्रतिक्रिया के आधार पर भी युक्तीकरण के दो और अन्य रूप होते हैं-(i) अंगूर खट्टे हैं - इसके अनुसार जब एक व्यक्ति को मनपसंद लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, तब वह उसमें अनेक दोष निकालकर अपने अहम् की रक्षा करता है। इस संबंध में लोमड़ी व मीठे अंगलों की कहानी अति लोकप्रिय है। जंगल में एक ऊँचे स्थान पर एक लोमड़ी सुन्दर, पके व मीठे अंगूरों के गुच्छे लटकते देखती है, लोमड़ी का मन अंगूरों को पाने के लिए अति लालयित
मটটि{ 24 मिनि
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ हो उठता है और उसके लिए वह अंगूरों के गुच्छों को ऊपर की ओर कूद-कूदकर पकड़ने का प्रयास करने लगती है, परंतु बार-बार प्रयास करने पर भी जब वह अंगूर के गुच्छे तक नहीं पहुँच पाती, तब वह अति निराश होकर वहाँ से चल देती है। इसी बीच जब वहाँ पेड़ पर बैठा कौआ, लोमड़ी से पूछता है कि उसने अंगूरों को क्यों छोड़ दिया तब लोमड़ी का यह कहना है कि अंगूर खट्टे थे, इस लिए उनका पाना तथा खाना पसंद नहीं किया । यहाँ लोमड़ी द्वारा प्रस्तुत यह तर्क स्पष्टतः कितना ऊपरी तथा छिछला है, इसको सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। इसी कहानी के संदर्भ में जब व्यक्ति अपने मन पसंद लक्ष्य के प्राप्त न होने पर अपने अनेक तर्क प्रस्तुत करते देखा जा सकता है, तब ऐसे युक्तीकरण को अंगूर खट्टे हैं, की संज्ञा दी जाती है।
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(ii) नीबू मीठा होता है - वास्तव में, नीबू खट्टा होता है, परंतु व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त जब कोई अन्य विकल्प नहीं होता, तब वह विवश होकर खट्टे नीबू को ही मीठा कहने लगता है। ऐसे ही जब निर्धन व्यक्ति अपनी सूखी रोटी में ही असली स्वाद की बातें करता है, और अपनी झोंपड़ी में सुख और शांति का अधिक गुणगान करते देखा जाता है, तथा सारे जीवन को ही उच्च श्रेणी का सिद्ध करते देखा जाता है, तब उसके ऐसे युक्तीकरण का स्वरूप नीबू मीठा होता है, के युक्तीकरण के समरूप ही होता है।
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
ही मिल पाता है और व्यक्ति का दृष्टिकोण अवास्तविक हो जाता है। अतः व्यक्ति को चाहिए कि वह सदैव वास्तविकता को महत्त्व दे और आवश्यकतानुसार अपने व्यवहार में सुधार करे ।
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इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि युक्तीकरण की रक्षायुक्ति का व्यक्ति के जीवन में समायोजन के प्रक्रम में महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। इससे व्यक्ति जीवन की अनेक कठोरताओं व कटुताओं को सहनशील बना लेता है व व्यर्थ की अन्तर्द्वन्द्व से मुक्त होने का प्रयास करता है और अन्ततोगत्वा अपने अहम् व सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने में सफल रहता है। ५. विस्थापन ( Displacement ) विस्थापन वह मानसिक विरचना है जिसके द्वारा व्यक्ति को द्वन्द्व को नियंत्रित या कम करने में सहायता मिलती है तथा इसके साथ-साथ प्रेरक या इच्छा की किसी न किसी रूप में पूर्ति भी होती है । हिलगार्ड (१९७५) के कहने के अनुसार विस्थापन की दशा में चिंता, द्वन्द्व तथा अन्य तनावपरक दशाओं में संतुलन स्थापित करने में सहायता मिलती है। इस प्रसंग में यह भी ध्यान देने की बात है कि मानसिक विरचनाओं से समस्याओं का अस्थाई समाधान
६. बौद्धिककरण (Inlellectualization) - मानसिक विरचना का यह वह प्रक्रम है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति दुःखद, भयपूर्ण या कष्टकर परिस्थितियों के प्रति विमुखता या तटस्थता की भावना विकसित करता है, ताकि उसका व्यवहार या कार्य संबंधित संवेगात्मक दशाओं से प्रभावित न हो सके। डाक्टरों में इस विरचना को देखा जा सकता है। वे चीड़फाड़ करते समय रोगियों को कष्ट में देखकर भी कष्ट का चेतन अनुभव नहीं करते हैं उनके लिए ऐसा करना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि वे भी भावुक हो जाएँ तो शल्यक्रिया में बाधा पड़ सकती है (Mahi 1971, Coleman 1975) ।
बौद्धिककरण की रक्षायुक्ति का एक दूसरा रूप उस स्थिति में भी देखने में आता है, जब व्यक्ति दो विरोधी तथा असंगत मूल्यों का बौद्धिक स्तर पर युक्तीकरण प्रस्तुत करते देखा जाता है। ऐसी रक्षायुक्ति प्रायः उस स्थिति में भी देखने में आती है, जबकि एक व्यापारी भ्रष्ट ढंग से धन कमाकर उसमें से कुछ अंश मंदिर के निर्माण के लिए दान कर देता है । ऐसी रक्षायुक्ति से व्यक्ति भ्रष्ट ढंग से धन कमाने के लिए अपनी अंतरात्मा की धिक्कार से बचने का कुशल प्रयास करते देखा जाता है, तथा इससे अपने अहम् की सुरक्षा करते देखा जाता है।
७. क्षतिपूर्ति - यदि कोई व्यक्ति किसी लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल हो जाता है तो उसमें हीन भावना विकसित हो जाती है और उसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए किसी अन्य लक्ष्य को प्राप्त करके संतुष्टि चाहता है। रच, १९६९ के मतानुसार, क्षतिपूर्ति एक ऐसा प्रयास है, जिसमें किसी कमी या अवांछित विशेषता को छिपाकर वांछित गुणों के विकास पर बल दिया जाता है। उदाहरणार्थ, शारीरिक सौंदर्य में कमी होने पर व्यक्ति एक अच्छा वार्ताकार बनकर सामाजिक प्रशंसा अर्जित कर सकता है परंतु असुरक्षा एवं हीनता की भावना अत्यधिक हो जाने पर व्यक्ति क्षतिपूर्ति में असफल हो जाता है।
८. तदात्मीकरण (Identification) फ्रायड, १९४४ ने समायोजन स्थापित करने में तदात्मीकरण का विशेष महत्त्व बतलाया है। इस मानसिक विरचना के आधार पर व्यक्ति किसी ট[ २६ JGGম
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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्मआदर्श की विशेषताओं के अनुरूप अपने अंदर विशेषताएँ अतिरिक्त अनुकरण अधिकांशतः एक चेतन क्रिया होती है, जबकि विकसित करने का प्रयास करता है, जैसे बच्चे अपने माता- तदात्मीकरण का रूप प्रायः अचेतन प्रक्रिया का होता है। पिता या अन्य सदस्यों के व्यवहारों की नकल करके उनके जैसा विस्तृत रूप से तदात्मीकरण की रक्षायक्ति न केवल व्यवहार करने का प्रयास करते हैं। आजकल युवक एवं युवतियाँ व्यक्तित्व के अहम् के विस्तार तथा रक्षा में ही सहायक होती है, फिल्मी कलाकारों के हावभावों की नकल करते देखे जा रहे हैं। बल्कि व्यक्ति की दमित प्रबल इच्छाओं की पूर्ति का साधन भी इसी प्रकार विभिन्न दलों के कार्यकर्ता अपने दलों के अध्यक्षों होती है। उदाहरणार्थ जब एक विद्यार्थी में एक प्रसिद्ध डाक्टर जैसा व्यवहार करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि तदात्मीकरण अथवा प्रशासनिक अधिकारी बनने की इच्छा रहती है, परंत अपनी कमजोरी छिपाने का एक तरह का प्रयास है कभी-कभी कुछ कारणवश उसकी ये इच्छाएँ उस समय पूरी नहीं होने पातीं, व्यक्ति संभावित कष्ट से बचने के लिए उस व्यक्ति के अनुसार स व्याक्त के अनुसार तब वह अपनी इन दमित इच्छाओं की संतुष्टि बड़े होकर एक कार्य करने लगता है जो उसे कष्ट पहुँचाने में सक्षम है Bettetheim पिता के रूप में अपने एक लडके को डाक्टर तथा दसरे को 1943 / यहाँ तदात्मीकरण का रूप एक प्रकार से अनुकरण का प्रशसानिक अधिकारी बनाने में देखने में आती है। ऐसे ही एक ही होता है। अतः यहाँ अनुकरण तथा तदात्मीकरण के अंतर व्यक्ति स्वयं अशिक्षित रहने पर अपनी सन्तान को उच्च स्तर को स्पष्ट करना भी आवश्यक है। की शिक्षा-दीक्षा देकर अपने व्यक्तित्व की शिक्षा के दमित अनुकरण तथा तदात्मीकरण में अंतर . अभाव की पूर्ति में तदात्मीकरण की रक्षायुक्ति ही अपनाते देखा जाता है। ___ अनुकरण का रूप प्रायः स्थूल व भौतिक होता है, जैसे जब एक बालक अन्य बालकों को ताली बजाते देखकर स्वयं 9. उदात्तीकरण-उदात्तीकरण से तात्पर्य उस मानसिक भी ताली बजाने लगता है. तब व्यवहार का ऐसा रूप अनकरण विरचना से है, जिसके द्वारा व्यक्ति किसी लक्ष्य को प्राप्त करने कहलाता है, परंतु जब बालक या व्यक्ति अपना व्यवहार किसी में असफल होने पर किसी दूसरे लक्ष्य का चयन करके अपनी प्रतिष्ठित व्यक्ति के व्यवहार के अनुकूल उस जैसी प्रतिष्ठा, प्रभाव इच्छा पूति इच्छा पूर्ति करने का प्रयास करता है। यद्यपि नवीन लक्ष्य से उसे व सम्मान पाने के लिए करता है, तब उसके व्यवहार में उतनी संतुष्टि नहीं मिलती है जितनी की मूल लक्ष्य से संभावित तदात्मीकरण की मनोरचना देखने में आती है। दूसरे, अनुकरण .. थी फिर भी ऐसा करने से उसकी समस्या का समाधान हो जाता की प्रक्रिया में उद्दीपक विषय-वस्तु या घटना का होना एक है और समायोजन स्थापित करने में भी सहायता मिलती है। प्रकार से आवश्यक होता है, जबकि तदात्मीकरण के लिए व्यक्ति जैसे आक्रामकता के स्थान पर पहलवानी, मुक्केबाजी या खेलकूद के सम्मुख संबंधित व्यक्ति की उपस्थिति प्रायः इतनी आवश्यक में भाग लेना। इससे मिलती-जुलती एक और विरचना है जिसे नहीं होती। तीसरे, अनुकरण एक सरल, शारीरिक क्रिया है. जबकि प्रतिस्थापन कहते हैं इसमें भी व्यक्ति मूल लक्ष्य की जगह नया तदात्मीकरण एक अपेक्षाकृत जटिल मानसिक क्रिया है. इसके लक्ष्य चुनकर अपना काम चलाता है। Doordaroridrioridroiwomarwaridwardridrodaridrod- 2760AGribraridroidriomorrowinidroidroid-ideatheditorar