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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - होते हैं, तब उसकी मानसिक उलझन यह होती है कि वह किसे में से किसी एक का चयन करना होता है, जबकि यह दोनों में से स्वीकारे तथा किसे अस्वीकारे। उसकी वास्तविक मानसिक द्वन्द्व किसी को भी नहीं चाहता है। जैसे जब एक बीमार बालक से का ऐसी स्थिति को आरेख के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है- उसकी माँ कड़वी गोली लेने या फिर उसके स्थान पर इंजेक्शन उपागम - उपागम द्वन्द्व
लेने के लिए पूछती है, तब बालक स्वाभाविकतः इन दोनों कटु
व कष्टकारक स्थितियों में से किसी एक को भी स्वीकार नहीं सुंदर व आकर्षक युवक
सुंदर व आकर्षक युवक
करना चाहता, परंतु साथ ही साथ उसका संकट यह भी है कि तथा < > नवयुवती
तथा
वह इस स्थिति से बच भी नहीं सकता। दाँत के दर्द से पीड़ित उपागम
उपागम दिल्लीवि.वि.का प्रवक्ता
जवाहरलालहरूवि.वि. व्यक्ति के सम्मुख भी कभी-कभी ऐसे ही संकट की स्थिति उस काप्रवक्ता
समय आ जाती है, जब वह दाँत के डाक्टर के पास दाँत निकलवाने
के भय से भी डरता है, तथा घर पर दाँत के दर्द को भी सहन नहीं इस आरेख में नवयुवती विवाह के लिए दोनों युवकों की
कर पाता। ऐसे ही, पारिवारिक जीवन में जब एक युवक की माँ ओर समान रूप से आकर्षित है, परंतु वह उनमें से केवल एक
व उसकी पत्नी में घोर युद्ध छिड़ जाता है, तब उसके मन में यह का ही चयन कर सकती है, वह किसे स्वीकार करे तथा किसे
द्वन्द्व उठ खड़ा होता है कि वह इन दोनों में से किसका पक्ष ले व अस्वीकार करे, यही उस युवती का द्वन्द्व है। जिसे उपागम
किसका न ले। माँ का पक्ष लेने पर पत्नी के प्रकोप को भी वह उपागम द्वन्द्व कहा जा सकता है।
भलीभांति जानता है और पत्नी का पक्ष लेकर वह माँ के कोमल जैन-दर्शन में इस द्वन्द्व का चित्रण भावना अधिकार द्वारा ।
हृदय को भी ठेस नहीं पहुँचाना चाहता। आरेख की सहायता से समझाया जा सकता है। व्यक्ति के मन में उत्पन्न स्थायी मिथ्या इस दन्द को स्पष्ट किया जा सकता है-- संस्कारों के निर्माण करने की प्रक्रिया भावना कहलाती है इनकी
परिहार-परिहार द्वन्द्व कुल संख्या बारह है, जिनमें अन्यत्व भावना भी एक है जो व्यक्ति को अन्य वस्तओं से उसकी भिन्नता का अर्थ-बोध पत्नी के प्रकोप का भय <--------पति ---------->माके भावोंकोठेस का भयपहचने
परिहार परिहार कराती है। मरणविभत्ति में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है-- हमारा यह शरीर भिन्न है, हमारे बंधु-बांधव भिन्न हैं। संसार के उपर्युक्त आरेख के माध्यम से व्यक्ति के परिहार-परिहार समस्त भौतिक पदार्थ उनके रिश्ते-नाते हमसे भिन्न हैं तथा हम द्वन्द्व को दर्शाया गया है। पारिवारिक कलह में माँ व पत्नी के (आत्मा) उन पदार्थों से भिन्न हैं (मरणविभत्ति, ५९०)। इस बीच कलह की स्थिति यह है कि वह किसका पक्ष ले। अपनी आध्यात्मिक चिंतन से किसी के मन में जो द्वन्द्व उत्पन्न होता है माँ का पक्ष ले या पत्नी का। दोनों स्थितियों में से एक का पक्ष उसे निम्न आरेख द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है--
उसके लिए लेना खतरे की घंटी के बजने के ही समान है। आध्यात्मिक मोह <--- माता ---> पुत्रमोह (इसी तरह के अन्य परिहार - परिहार द्वन्द्व की स्थिति में भी व्यक्ति के लिए अपने
सांसारिक मोह) विवेक से तथा तर्क वितर्क के सहारे एक उपयुक्त निर्णय का इस आरेख में माता के समक्ष दो पक्ष हैं--पत्रमोह तथा समय पर लेना आवश्यक होता है। यहाँ व्यक्ति द्वारा कोई भी दूसरी तरफ अन्यत्व भावना के रूप में आध्यात्मिक मोह । वह ।
निर्णय न लेना भी एक प्रकार से उसका एक निर्णय ही होता है, दोनों प्रकार के मोह-बंधन को तोड नहीं पा रही है। इसके परंतु एक निष्क्रिय निर्णय की अपेक्षा व्यक्ति का सक्रिय निर्णय कारण उसके मन में जो द्वन्द्र उत्पन्न हो रहा है. वह उपाग- अधिक उपयुक्त व उचित रहता है, क्योंकि इसमें उसके विवेक उपागम, द्वन्द्व का उदाहरण है।
की शक्ति व मानसिक बल की शक्ति सम्मिलित रहती है। परिहार-परिवार नन्द-कभी कभी व्यक्ति ऐसी टट की जैन-चिंतन में मकरन्द-पुत्र जिन पालित और जिनरक्षित स्थिति में फँस जाता है, जब व्यक्ति को दो निषेधात्मक लक्ष्यों को परिहार-परिहार द्वन्द्व से ग्रसित माना जा सकता है। रत्नदेवी
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