________________
. चतीन्दयग्रिमारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म. धार्मिक व नैतिक मानदण्डों से जुड़ा रहता है। अहम् की इन तरह के अपमान सहने के लिए किया है। मैं प्रात: वापस अपने दोनों विपरीत व विरोधी व्यवहारों में समन्वय तथा तालमेल राज्य लौट जाऊँगा। यह उनके अहम् की चेतना थी। उसी क्षण कभी-कभी इदम् की वासनापूर्ण इच्छाओं को भी दुरुत्साहित उनके मन में विचार आया कि संघ के प्रमुख आचार्य भगवान कर जाता है। इससे पराहम व्यक्ति के अहम् को कचोटने लगता महावीर हैं, संघ से जाने के पहले मुझे उनसे इसकी अनुमति है। इससे ही व्यक्ति में अपराध-भावना, पाप-धारणा व प्रायश्चित लेनी चाहिए। उनके मन में यह भावना पराहम् के कारण जागृत की कटु वेदना होने लगती है। सामान्यत: अहम् अनेक अवसरों हुई। एक तरह कष्टों से ऊबकर उन्हें छोड़ने का भाव दूसरी तरफ पर पराहम् की ऐसी साधारण कटु आलोचनाओं व संघर्षों की प्रमुख से अनुमति लेकर जाना अनुशासन की मर्यादा बनाए स्थिति को सहन भी कर जाता है, तथा ऐसे द्वन्द्व की व्यवहारिक रखने का द्योतक है। इसलिए इसे पराहम् का ही कार्य माना जा जीवन में विशेष रूप से चिंता भी नहीं करता। परंतु ऐसे द्वन्द्वों का सकता है। अत: एक ही समय छोड़ना और पूछकर छोड़ने का स्वरूप उस स्थिति में अति कष्टदायक हो जाता है, जबकि पराहम् जो भाव मेघमुनि के मन में उठता है, उसे अहम् और पराहम् के का रूप अति विकसित हो जाता है। इससे अहम् की सुरक्षात्मक संघर्ष के फलस्वरूप उत्पन्न द्वन्द्व ही कहा जा सकता है। संरचना विघटित होकर टूटने लगती है, तथा व्यक्ति के व्यवहार
(iii) इदम् तथा पराहम् के द्वन्द्व - इदम् के वासनापूर्ण क्षणिक में कभी-कभी अनेक मानसिक व संवेगात्मक विकृति के लक्षण
आवेगों तथा पराहम् के कठोर नैतिक आदशों में संघर्ष सहजरूप भी दिखाई देने लगते हैं।
से ही बोधगम्य है। सामान्यतः व्यक्ति का सुसंगठित अहम् इन वस्तुत: ऐसे संघर्ष अथवा द्वन्द्व पराहम् के ही एक रूप दोनों परस्पर विरोधी आग्रहों में समन्वय व तालमेल बैठाने में अन्तरात्मा की कठोरता द्वारा प्रभावित होते हैं व कभी-कभी सफल रहता है, परंतु फिर भी व्यक्ति के व्यवहारिक व सामाजिक ऐसे गंभीर द्वन्द्व पराहम् के दोषपूर्ण अहम्-आदर्शों द्वारा निर्धारित जीवन में ऐसे द्वन्द्वों का प्रक्रम नित चलता ही रहता है। ऐसे द्वन्द्वों होते हैं। ऐसे ही जब कभी व्यक्ति के अहम्-आदर्शों का रूप से प्रायः तंत्रिका-तापी तथा मनोविकृति की स्थिति तब तक अलौकिक व अव्यवहारिक होता है, तब सामान्यतः ऐसे उच्च उत्पन्न नहीं होती, जब तक व्यक्ति का अहम् इन दोनों परस्पर आदर्शों से व्यक्ति सदैव नीचे व पीछे ही रहता है। इस कारण रूप से विरोधी आग्रहों में संतुलन बनाए रखने में पर्याप्त रूप से व्यक्ति में निरंतर ऐसे अभाव के बने रहने से यह उसके अचेतन शक्तिशाली रहता है। परंतु जब व्यक्ति के अहम् में इनके के द्वन्द्व का मुख्य कारण बन जाता है।
परस्पर विरोधी आग्रहों पर नियंत्रण व समन्वय करने में स्थायी जैन-चिंतन में मेघमुनि का दृष्टान्त अहम् तथा पराहम् के
शिथिलता आ जाती है, तब व्यक्ति में या तो इदम् के आवेग ही संघर्ष के कारण उत्पन्न द्वन्द्व का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करता है।
या फिर पराहम् के आदेश ही व्यक्तित्व का केन्द्रीय संचालक सम्राट मेघकमार ने अपने समस्त वैभवों का परित्याग करके बन जाता है। उस स्थिति में व्यक्ति या तो इदम् के प्रभाव के भगवान महावीर के सानिध्य में मुनिधर्म को अंगीकार किया।
कारण भोग-इच्छाओं में ही लिप्त हो जाता है, या फिर पराहम् के रात्रि-विश्राम के समय श्रमण-परंपरा में ज्येष्ठानुक्रम में मुनियों
कठोर आदर्शों के आग्रहों के कारण अति धार्मिक व व्यवहारिक के लिए छोटे-बड़े क्रम से संस्तारक बिछाने का विधान है।
बन जाता है। सांसारिक तथा व्यवहारिक जीवन में ऐसी दोनों मेघमनि उस समय सबसे कनिष्ठ थे। उन्हें बिस्तर विश्राम-स्थल कठोर प्रवृत्तियाँ प्रायः कुसमायोजन की ही ओर उम्मुख रहती हैं। के द्वार के पास मिल पाया। द्वार के पास मनियों का आने-जाने प्रायः द्वन्द्वों का ऐसा स्वरूप व्यक्तित्व के लिए विघटनकारी का क्रम लगा रहा । इसी अनुत्क्रम में उनके शरीर पर दूसरे
तथा क्षतिजनक ही होता है। सामान्य व्यक्ति में भी कुछ अचेतन मुनियों के पाँव का आघात भी लगा। इस कारण उन्हें नींद नहीं
द्वन्द्व रहते हैं, परंतु उनके रूप प्रायः कभी भी अहम् के सुरक्षात्मक आई। वे प्रतापी सम्राट थे। एशोआराम में पले थे इस तरह के संगठन का उल्लंघन नहीं करने पाते हैं। कष्ट को सहन नहीं कर पाए। इन सबके कारण उनके अहम् को जैनमत में इस द्वन्द्व को रथनेमि और राजीमति के उदाहरण ठेस लगी। वे सोचने लगे मैंने अपने वैभव का त्याग क्या इस द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। जहाँ राजमति १६वें तीर्थंकर sardarodisardarodariwarobarsaridroid २०diridrinidadrdasardaariusdaidasranslation
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org