Book Title: Dwandwa aur Unka Nivaran
Author(s): Ramnarayan, Ranjankumar
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 11
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म(ii) अवदमन--इसके अंतर्गत वह अपनी अनैतिक इच्छापूर्ति द्वन्द्व-निवारण में दमन के ही अंतर्गत निरोध की भी प्रक्रिया का चेतन स्तर पर विरोध करता है और उसे जान बूझकर अपनाई जाती है। जैनों ने इस हेतु संवर का प्रयोग किया है। संवर अचेतन में धकेल देता है। कर्माश्रय को करने की एक प्रक्रिया है। निरोध में द्वन्द्व उत्पन्न शैशवकालीन अवस्था में दमन-दमन का प्रक्रम मनुष्य । करने वाली इच्छाओं पर रोक लगाई जाती है। जबकि संवर की में उसके शैशवकालीन जीवन से ही प्रारंभ हो जाता है। दमन के प्रक्रिया में आत्मा की ओर आने वाले उन कर्म पुद्गलों को जो प्रक्रम के अंतर्गत ही शिशु अपनी अनेक शैशवकालीन घृणाओं, उन्हें विकृत कर सकते हैं, रोका जा सकता है। (तत्त्वार्थसूत्र, ९/ द्वन्द्रों व संघर्षों को ऐसे दमन के कारण भल जाता है तथा इससे १) यद्यपि यह एक आध्यात्मिक क्रिया है. लेकिन जैनों ने उसके आने वाले जीवन में समायोजन तथा विकास का मार्ग मानसिक, कायिक तथा वाचिक इन तीनों ही क्रियाओं को मा प्रशस्त होता है। जिन शिशुओं में अहम् का संगठन अधिक । कर्मबंधन का कारण माना है,(तत्त्वार्थ सूत्र ६/१,२) जबकि प्रशस्त हो जाता है, उनके अचेतन दमन का प्रक्रम भी तदनुसार । मनोवैज्ञानिकों ने मुख्य रूप से द्वन्द्व के लिए मानसिक विचारों अधिक प्रबल ही ही रहता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति में को ही मुख्य स्थान दिया है। जैनों के अनुसार मानसिक विचार दमित असामाजिक व अनैतिक इच्छाएँ भी व्यक्ति के चेतन भी कर्म की कोटि में आते हैं जो जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप स्तर पर नहीं आ पाती है। परंतु यदि व्यक्ति के अहम् का संगठन को विकृत करते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार द्वन्द्व भी व्यक्ति किसी कारण निर्बल रहता है, तब इससे ऐसी अनेक दमित की सामान्य प्रकृति को असामान्य बनाने की क्षमता रखता है, इच्छाएँ व इदम् की वासनाएँ व्यक्ति के अहम् की सुरक्षा, इसीलिए वे द्वन्द्व निवारण की बात करते हैं। संरचना के अवरोध को लाँघकर या फिर कुछ थोड़ा अपना रूप २. प्रक्षेपण(Projection) - यह एक ऐसी रक्षायुक्ति होती है, ही बदलकर चेतन स्तर अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग विभिन्न जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी कमजोरियों एवं दोषों को लक्षणों के रूप में खोजने लगती हैं। इस प्रकार की स्थिति प्रायः दूसरे पर आरोपित करता है, या दूसरों को माध्यम बनाता है। इस तंत्रिकातापी तथा मनोविकृति व्यक्ति में ही देखने को मिलती प्रक्रम के कारण व्यक्ति अपनी असफलता के लिए स्वयं को है। अत: विभिन्न व्यक्तियों में अपने-अपने अहम् की संरचना के उत्तरदाययी न मानकर दूसरों को जिम्मेदार ठहराता है (Page आधार पर दमन की मात्राएँ भी भिन्न-भिन्न होती है। मानसिक दृष्टि १९६२)। फ्रायड ने प्रक्षेपण को एक अचेतन प्रक्रिया बताया से स्वस्थ व्यक्तियों में इसकी मात्रा प्राय: अधिक ही रहती है। जबकि मार्क्स (१९७६) ने प्रक्षेपण को वास्तविकता को अस्वीकार द्वन्द्व-निवारण हेतु जैन-परंपरा में मनोवैज्ञानिक प्रविधियों करने का एक विशेष रूप कहा है। सीयर्स (१९३७) के भी को दार्शनिक रूप से प्रस्तत किया गया है। मनोवैज्ञानिकों ने अनुसार इस विरचना का प्रकार्य अपने दोषों को दूसरे पर आरोपित जिस प्रकार दमन (Repression) की प्रक्रिया के आधार पर करना है। जैसे, परीक्षा में असफल होने पर छात्र अपने अध्यापकों अवांछित इच्छाओं को चेतन स्तर से हटाकर अचेतन में दबाने र या परीक्षकों को दोषी ठहराता है। की विधि को स्वीकार किया है, ठीक उसी तरह जीव के फ्रायड के कथानुसार प्रक्षेपण वह प्रक्रम है, जिसमें इद विविध भावों को व्यक्त करते हुए जैनों ने औपशमिक भाव (Id) की इच्छापूर्ति में असफल होने पर अहम् (Ego) बाहरी पर प्रकाश डाला है(तत्त्वार्थसूत्र, २/१)। औपशमिक भाव कारणों को उत्तरदायी मानता है। क्योंकि यदि स्वयं को उत्तरद उपशम से पैदा होता है। उपशम की इस क्रिया में जीव कर्मों मान लिया जाए तो मानसिक तनाव अधिक उत्पन्न होगा। अन्य से उसी प्रकार शुद्ध हो जाता है. जैसे गंदा जल गंदगी के नीचे मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि प्रक्षेपण विरचना के परिणामस्वरूप बैठ जाने से शुद्ध हो जाता है यद्यपि मात्र कर्म को ही जीव के व्यक्ति वास्तविकता से भागना चाहता है. इसी कारण वह भावों का जनक नहीं कहा जा सकता फिर भी इसे जीव को अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है विकत करने वाला एक सर्वप्रमुख कारण अवश्य कहा जा (Kleinmuntz १९९६)। सकता है। ३. प्रतिक्रिया संरचना-प्रतिक्रिया संरचना वह मानसिक विरचना roaridwardrobworkwordwordwordwordwardrobirodibM २४d iridwaridroidrordrobiritd-standroid-iduotard Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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