Book Title: Dvadashanu Preksha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 5
________________ द्वादशानुप्रेक्षा ३४७ अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। चूंकि ये परमेष्ठी भी आत्मामें निवास करते हैं अर्थात् आत्मा स्वयं पंच परमेष्ठीरूप परिणमन करता है इसलिए आत्मा ही मेरा शरण है।।१२।। सम्मत्तं सण्णाणं, सच्चारित्तं च सत्तवो चेव। चउरो चिट्ठदि आदे, तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१३।। चूँकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप ये चारों भी आत्मामें स्थित हैं इसलिए आत्मा ही मेरा शरण है।।१३।। एक्को करेदि कम्मं, एक्को हिंडदि य दीहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य, तस्स फलं भुंजदे एक्को।।१४।। जीव अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही दीर्घ संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही कर्मका फल भोगता है।।१४।। एक्को करेदि पावं, विसयणिमित्तेण तिव्वलोहेण। णिरयतिरिएसु जीवो, तस्स फलं भुंजदे एक्को।।१५।। विषयोंके निमित्त तीव्र लोभसे जीव अकेला ही पाप करता है और नरक तथा तिर्यंच गतिमें अकेला ही उसका फल भोगता है।।१५।।। एक्को करेदि पुण्णं, धम्मणिमित्तेण पत्तदाणेण। मणुवदेवेसु जीवो, तस्स फलं भंजदे एक्को।।१६।। धर्मके निमित्त पात्रदानके द्वारा जीव अकेला ही पुण्य करता है और मनुष्य तथा देवोंमें अकेला ही उसका फल भोगता है।।१६।। । पात्रके तीन भेदों तथा अपात्रका वर्णन उत्तमपत्तं भणियं, सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू। सम्मादिट्ठी सावय, मज्झिमपत्तो हु विणणेओ।।१७।। णिहिट्ठो जिणसमये, अविरदसम्मो जहण्णपत्तो त्ति। सम्मत्तरयणरहिओ, अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो।।१८।। सम्यक्त्वरूप गुणसे युक्त साधुको उत्तम पात्र कहा गया है, सम्यग्दृष्टि श्रावकको मध्यम पात्र जानना चाहिए, जिनागममें अविरत सम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र कहा गया है और जो सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे रहित है वह अपात्र है। इस प्रकार पात्र और अपात्रकी परीक्षा करनी चाहिए।।१७-१८ ।।

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