Book Title: Dvadashanu Preksha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ द्वादशानुप्रक्षा ३५९ जो समस्त द्रव्योंके विषयमें मोहका त्याग कर तीन प्रकारके निर्वेदकी भावना करता है उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेंद्रदेवने कहा है।।७८ ।।। आकिंचन्य धर्मका लक्षण होऊण य णिस्संगो, णियभावं णिग्गहित्तु सुदुहदं। णिबंदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स किंचण्हं।।७९।। जो मुनि निःसंग -- निष्परिग्रह होकर सुख और दुःख देनेवाले अपने भावोंका निग्रह करता हुआ निद्व रहता है अर्थात् किसी इष्ट-अनिष्टके विकल्पमें नहीं पड़ता उसके आकिंचन्य धर्म होता है।।७९ ।। ब्रह्मचर्य धर्मका लक्षण सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं। सो बम्हचेरभावं, सक्कदि खलु दुद्धरं धरिदुं।।८०।। जो स्त्रियोंके सब अंगोंको देखता हुआ उनमें खोटे भावको छोड़ता है अर्थात् किसी प्रकारके विकार भावको प्राप्त नहीं होता वह निश्चयसे अत्यंत कठिन ब्रह्मचर्य धर्मको धारण करनेके लिए समर्थ होता है।।८०।। सावयधम्मं चत्ता, जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो। सो णय वज्जदि मोक्खं, धम्मं इदि चिंतए णिच्चं ।।८१।। जो जीव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनिधर्म धारण करता है वह मोक्षको नहीं छोड़ता है अर्थात् उसे मोक्षकी प्राप्ति होती है इस प्रकार निरंतर धर्मका चिंतन करना चाहिए। भावार्थ -- गृहस्थ धर्म परंपरासे मोक्षका कारण है और मुनिधर्म साक्षात् मोक्षका कारण है इसलिए यहाँ गृहस्थके धर्मको गौण कर मुनिधर्मकी प्रभुता बतलानेके लिए कहा गया है कि जो गृहस्थधर्मको छोड़कर मुनिधर्ममें प्रवृत्त होता है वह मोक्षको नहीं छोड़ता अर्थात् उसे मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है।।८१ ।। णिच्छयणएण जीवो, सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झत्थभावणाए, सुद्धप्पं चिंतए णिच्चं ।।८२।। निश्चयनयसे जीव गृहस्थधर्म और मुनिधर्मसे भिन्न है इसलिए दोनों धर्मों में मध्यस्थ भावना रखते हुए निरंतर शुद्ध आत्माका चिंतन करना चाहिए। ___भावार्थ -- मोह और लोभसे रहित आत्माकी निर्मल परिणतिको धर्म कहते हैं। गृहस्थ धर्म तथा मुनिधर्म उस निर्मल परिणतिके प्रकट होनेमें सहायक होनेसे धर्म कहे जाते हैं, परमार्थसे धर्म नहीं है इसलिए दोनोंमें माध्यस्थ भाव रखते हुए शुद्ध आत्माके चिंतनकी ओर आचार्यने यहाँ प्रेरणा दी है।।८२।।

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