Book Title: Dvadashanu Preksha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 4
________________ कुदकुद-भारता जीवणिबद्धं देहं, खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्धं । भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि।।६।। जब दूध और पानीकी तरह जीवके साथ मिला हुआ शरीर शीघ्र नष्ट हो जाता है तब भोगोपभोगका कारणभूत द्रव्य-- स्त्री आदि परिकर नित्य कैसे हो सकता है? ।।६।। परमटेण दु आदा, देवासुरमणुवरायविभवेहिं। वदिरित्तो सो अप्पा, सस्सदमिदि चिंतए णिच्चं ।।७।। परमार्थसे आत्मा देव, असुर और नरेंद्रोंके वैभवोंसे भिन्न है और वह आत्मा शाश्वत है ऐसा निरंतर चिंतन करना चाहिए।।७।।। अशरणानुप्रेक्षा मणिमंतोसहरक्खा, हयगयरहओ य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं, तिसु लोए मरणसमयम्हि।।८।। मरणके समय तीनों लोकोंमें मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक सामग्री, हाथी, घोड़े, रथ और समस्त विद्याएँ जीवोंके लिए शरण नहीं हैं अर्थात् मरणसे बचाने में समर्थ नहीं हैं।।८।। सग्गो हवे हि दुग्गं, भिच्चा देवा य पहरणं वज्ज। अइरावणो गइंदो, इंदस्स ण विज्जदे सरणं।।९।। स्वर्ग ही जिसका किला है, देव सेवक हैं, वज्र शस्त्र है और ऐरावत गजराज है उस इंद्रका भी कोई शरण नहीं है -- उसे भी मृत्युसे बचानेवाला कोई नहीं है।।९।। णवणिहि चउदहरयणं, हयमत्तगइंदचाउरंगबलं। चक्केसस्स ण सरणं, पेच्छंतो कद्दये काले।।१०।। नौ निधियाँ, चौदह रत्न, घोड़े, मत्त हाथी और चतुरंगिणी सेना चक्रवर्तीके लिए शरण नहीं हैं। देखते-देखते काल उसे नष्ट कर देता है।।१०।। जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। तम्हा आदा सरणं, बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो।।११।। जिस कारण आत्मा ही जन्म, जरा, मरण, रोग और भयसे आत्माकी रक्षा करता है उस कारण बंध उदय और सत्तारूप अवस्थाको प्राप्त कर्मोंसे पृथक् रहनेवाला आत्मा ही शरण है -- आत्माकी निष्कर्म अवस्था ही उसे जन्म जरा आदिसे बचानेवाली है।।११।। अरुहा सिद्धायरिया, उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठदि आदे, तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१२।।

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