Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 11
________________ अंक ७] दिगम्बर जैन । जन साहित्यका महत्व व माध्यस्थमावं विपरीतवृत्ती, .. सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥ उसका प्रचार। __अमितगति आ० कृत सामायिक पाठ (जैन साहित्य परिषद् सुरतमें पठित, अर्थ-हे भगवन् ! मेरी आत्मा सदा सर्व ता० २२ अप्रैल १९२.) है प्राणियों में मैत्री, गुणवानों में हर्ष दुखियोंपर दया इस अनादि अनंत अकृत्रिम जगत में जो सम्यकमार्ग आत्माको शुद्ध करके परमात्मपदमें । तथा विपरीत स्वभाव धारकों पर उदासीन भाव पहुंचानेवाला है, उसको ही . जैनधर्म" . , धारण करै । कहते हैं। अवबुद्धय हिंस्य हिंसक, - इस अनादि लोकमें आत्मा, परमात्मा तथा हिंसा हिंसा फलानि तत्वेन । मात्मासे परमात्मा होने का उपाय अनादिसे है. नित्यमवगृहमानैइससे जो जैनधर्म प्रवाह रूपसे अनादिकालसे निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥६॥ ( पुरुषार्थसिद्धयुपाय ) चला आरहा है उस ही को प्रकाश करनेवाला अर्थ-हिंसा जिसकी हो सकती है, ऐसा " जैन साहित्य" कहलाता है । जो जैन साहित्य नीचे लिखे महत्वोंके कारण सर्व जीव हित्य प्राणी, हिंसक, हिंसा व हिंसाका फल इन मात्रका हितकारी है। चार बातोंका स्वरूप अच्छी तरह समझकर (१) यह स्वालम्बन सिखाता है । इसका विचारवानों को स्वशक्तिके अनुसार हिंसा त्याग सिद्धांत है कि यह आत्मा अपने ही पुरुषार्थसे देना चाहि देना चाहिये। अपनी उन्नति करता है । कहा है ___ साधु सर्वथा हिंसाके त्यागी होते हैं। गृहस्थ नयत्यात्मानमात्मैव नहातक कृषि, वाणिज्यादि आरम्मका त्याग न जन्मनिर्वाणमेव वा । करे वहांता संकशी ( Intentional ) जंतु गुरुरात्मात्मनस्तस्मा हिंसाका त्यागी होता है। किंतु प्रा.म्मो हिंसाको नान्योस्ति परमार्थतः ।। ७५॥ यथाशक्ति व यथास्थिति कम करता है। अर्थात् यह भात्मा आप ही अपने को संसार जैन धर्मधारी मांस, मदिरा, आदि पदार्थो को या निर्वाणमें ले जाता है । इसलिये आत्माका कभी सेवन नहीं करते और न इनको भाव. गुरु निश्चयसे आत्मा ही है। श्यक्ता ही है। (२) यह जीव मात्रका हित रखने व नीव (३) परमात्माकी भक्ति उसको प्रसन्न करने के मात्रकी रक्षा करने के लिये अहिंसा पर चलनेकी लिए नहीं किंतु अपने भावोंकी शुद्धि के लिए प्रेरणा करता है। कहा है उस समय तक करनी उचित है, जबतक निन सत्वेषु भैत्री गुणिषु प्रमोद, . आत्मामें ध्यानकी शक्ति अच्छी तरह दृढ़ न क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । होमावे। मुक्तिका साक्षात्साधन निम भात्म

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