Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ ३२] दिगम्बर जैन। AAAMKARANANAwronvi Anw अलमारियां हैं बंद जिनमें, शास्त्र बहुतक हैं घरे। दा शब्द। निममें हजारों छिद्र, चूहों दीमकोने हैं करे ॥ मैंने स्वयं निन नेत्रसे यह, दृश्य देखा है सही। किन्तु अब कुछ होरहा, उद्धार सो पूरन नहीं ॥ (लेखक-श्री. जानकीबाई जैन, अम। । ) (७) . सारे संसारमें यह बात निर्विवाद सिद्ध है कारण प्रबल हैं एक हूलका, जो सुनाऊं मैं तुम्हें । कि जो कुछ पुरुषार्थ कर सक्ता है वह कोई किन्तु सुनकर शीघ्र ही, इस ओर आना है तुम्हें ॥ नहीं कर सकता क्योंकि मानवमें शक्तिकी आव. प्रेम विरोधी व्यक्तियोंने, काम है के सा किया । श्यकता है। शक्तिकी कहावत चरितार्थ है-जिसकी शास्त्र रख. मलमारियों में, फिर नहीं दर्शन कियालाठी उसकी भेस, सो वर्तमानमें प्रत्यक्षमें दिख लाई पड़ रही है। करते प्रकाशत हैं नहीं, अप्स करन देते हैं नहीं। इस लिये प्रत्येक पुरुष स्त्रीको चाहिये कि उन पूर्व ऋषियों का परिश्रम, संफल करते हैं नहीं ॥ पुरुषार्थ के लिये उपाय करें और पुरुषार्थ जब इत्यादि कारण हैं अनेकों, सो सुनाऊँ मैं कहा । होगा तब आपका शरीर निरोग हो, शरीर बस इसीसे जन मारग, लोप होता जा रहा ॥ निरोगसे यथार्थ अध्ययन हो और अध्ययनसे बन्धुओ ! यदि भाप जो, उहार अपना चाहते। ही अपने परायेका ज्ञान हो, ज्ञान होने से ही तो निनागम उतिका, मगयों न प्रसारते ॥ हम कुछ कर सकेंगे इस लिये सबसे पहिले जो क्त हो सच्चे श्री. जिन नी माताके यहीं। अपनेको निरोग, साहसी, उद्य गी. परिश्रमी. तो निम्न अंतम विनयपर, तुम ध्यान अपना दोसकी। धी', बलवान बनावें नहीं तो याद रखो " संसार में आपको पैर रखने को स्थान न मिलेगा। शिक्षा प्रचार अपार हो, यह भावना भावो सदा । इसलिये शीघ्र ही अपने को समालो और बलवान ज्ञाकी हो वृद्धि तुम- अज्ञान नहिं फैले कदा ॥ बनो निर्बलों और मनोरों का जमाना नहीं है। पाठशाला हैं खुले, अरु जो खुले भागे कभी। अपर मेरा वाक्य आप न अपनायेंगे तो सच तन, मन, तथा धनसे, सहायक आप हो जाना सभी॥ समझों वह दिन जलद वेगा. निस दिन (११) आपको कोई न पूछेगा। और रोग और काय. भापको यह ज्ञात, जिन सिद्धांतसे है हो रहा । रताके सदन बन जाओगे। प्यारे भाइयों ! मेरा ज्ञान बिना यह जीव, जग जंजाल में फँप रोरहा। कहना अरसे इसलिये है कि आपने अपने को ज्ञानसे दुख दूरकर वार, सार- सुख हासल व.रो। विषयव सनाका लोलुपी भ्रमर बनालिया है उसीसे प्रार्थना यह "प्रेम"की नित ज्ञान का आर्जन करो| आप लोगों की मणना कम नोरोंमें होगई है। पं० प्रेमचंद पंचरत्न-भिंड। मैं आपसे ही नहीं कहती, सारे जैन समानसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42