Book Title: Dhyata Dhyan aur Dhyey
Author(s): Suprabhakumari
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 2
________________ ध्याता, ध्यान और ध्येय / ५७ श्रात्मा में अनन्त असाधारण शक्तियां छिपी हुई हैं, जिन्हें साधक ध्यान आदि क्रियाओं से प्राप्त कर सकता है, वे कहीं बाहर से नहीं प्राती हैं। इसी बात को बड़े सुन्दर ढंग से अन्योक्ति द्वारा उर्दू के कवि सीमोव ने कहा है तू क्या समझेगा ऐ बुतसाज ! यह पर्दे की बातें हैं। तराशा जिसको भी पहले से वह तस्वीर पत्थर में ॥ इसका भाव यही है कि आत्मा में अनन्त शक्ति विद्यमान है, किन्तु श्रावश्यकता है उसे जानने एवं विकसित करने की। यह तभी हो सकता है जब साधक अपना एक उच्चतम लक्ष्य बनाये और उसे केन्द्र बनाकर तन्मयतापूर्वक अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को उस पर स्थिर करके आत्मा को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न करे । सभी महापुरुषों ने अपने-अपने शब्दों में एक ही बात कही है- "अपने अन्दर देखो, अपने आपको पहचानो, सारे विश्व का परिचय पा जायोगे ।" रामकृष्ण परमहंस ने इसी बात को इस प्रकार कहा है- “हिरण कस्तूरी का सुगन्धस्रोत जानने के लिए सारी दुनिया छान मारता है, यद्यपि वह उसके अन्दर ही रहता है ।" गीता में भी कहा है- "ध्यान बौद्धिक ज्ञान से उत्तम है ।" जैनदर्शन के महान दार्शनिक प्राचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है अर्थात् श्रात्मा साक्षात् ज्ञान है और ज्ञान ही साक्षात् ग्रात्मा है। ज्ञान और प्रात्मा दो नहीं एक ही हैं । श्रात्मा की व्याख्या करते हुए जैन मनीषियों ने बताया "आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम् ?" श्रात्मा एकमात्र केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वरूप है, संसार के सर्व पदार्थों को जाननेदेखने वाला है । वह स्वभावतः अनन्त शक्ति का धारक और अनन्त सुखमय है । "केवलणाणसहावो केवलदंसणसहाव सुहमदओ केवलसत्तिसहावो सोहं इदि चिन्तए णाणी ॥ वास्तव में ध्यान ऐसा वायुयान है जो साधक को अनन्त और अक्षय शांति के साम्राज्य की ओर उड़ा ले जाता है। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि साधक मन को पूर्ण रूप से वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करे और बुद्धि में चंचलता न रखे। तभी वास्तविक ध्यान हो सकता है । अर्थात् साधक तक बैठने पर भी मन Jain Education International मन को स्थिर रखने के साथ ही साथ ध्यान करते समय साधक किस श्रासन से बैठे, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। योगशास्त्र में कहा है सुखासनसमासीनः नासापन्यस्तदुद्रो, सुश्लिष्टाधरपल्लवः । दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन् ॥ प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुखो वाप्युदङ मुखः । ध्यानोद्यतो भवेत् ॥ अप्रमत्तः सुसंस्थानो ध्याता अथवा ध्याता ऐसे विचलित न हो। धारामदेह ग्रासन से बैठे कि जिससे लम्बे समय दोनों प्रोष्ठ मिले हुए हों। नेत्र नासिका के प्र For Private & Personal Use Only आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन www.jainelibrary.org

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