Book Title: Dhyata Dhyan aur Dhyey Author(s): Suprabhakumari Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 7
________________ अर्चनार्चन Jain Education International (३) अशरणानुपेक्षा - प्रशरणदशा का अनुचिन्तन करना । (४) संसारानुप्रेक्षा - संसारपरिभ्रमण का चिन्तन करना । शुक्लध्यान शुक्लध्यान के चार चरण हैं । उनमें प्रथम दो चरणों - पृथक्त्ववितर्क - सविचार श्रीर एकत्ववितर्क - श्रविचार के अधिकारी श्रुतकेवली (चतुर्दशपूर्वी) होते हैं।' इस ध्यान में सूक्ष्म द्रव्यों और पर्यायों का श्रालम्बन लिया जाता है, इसलिए सामान्य श्रुतधर इसे प्राप्त नहीं कर सकते हैं । श्रात्मा पर लगे श्राठ कर्मरूपी मैल को धोकर जो उसको स्वच्छ, धवल बना देता है, वह शुक्लध्यान है । शुक्लध्यान के चार पाये कहे हैं । जैसे पंचम खण्ड | ६२ १. पृथक्त्ववितर्क - सविचार जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व - श्रुत का श्रालम्बन लिया जाता तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन तथा काया में से एक-दूसरे में संक्रमण होता रहता है, शुक्लध्यान की उस स्थिति को पृथक्त्व - वितर्क - सविचार कहा जाता है। पृथक्त्ववितर्क - सविचार नामक यह शुक्लध्यान का प्रथम भेद है । २. एकत्व वितर्क - अविचार जब द्रव्य के किसी एक पर्याय का प्रभेद दृष्टि से चिन्तन का श्रालम्बन लिया जाता है, जहाँ पर शब्द अर्थ तथा मन, में संक्रमण रुक जाता शुक्लध्यान की प्रस्तुत स्थिति में पृथक्त्ववितर्क - सविचार ध्यान की अपेक्षा अधिक फल केवलज्ञान की प्राप्ति है । For Private & Personal Use Only किया जाता है और पूर्वश्रुत वचन, काया में से एक दूसरे एकत्व वितर्क - श्रविचार है । इस ध्यान स्थिरता आ जाती है । इस ध्यान का ३. सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति जब मन और वाणी के योगों का पूर्ण रूप से निरोध हो जाता है, किन्तु काययोग का पूर्ण निरोध नहीं होता है, श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया प्रवशेष रहती है, उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है। इसका निवर्तन - ह्रास नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है । ४. समुच्छिन्नक्रिय - अप्रतिपाति जब सूक्ष्मक्रिया का भी निरोध हो जाता है, ध्यान की उस अन्तिम एवं सर्वोत्कृष्ट अवस्था को समुच्छिन्नक्रिय कहा जाता है। इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है । यह ध्यान मुक्ति का साक्षात् कारण है । उपाध्याय यशोविजयजी ने हरिभद्रसूरि-कृत योगबिन्दु के आधार पर शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों की तुलना संप्रज्ञात-समाधि से की है। संप्रज्ञात-समाधि के चार प्रकार हैं१. शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः । - तत्त्वार्थ सूत्र ९ ३९ २. तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचा रैकत्ववितर्काविचाराख्य शुक्लध्यानभेदद्वये संप्रज्ञात.... सम्यक् ..... प्रकर्षरूपेण, वृत्यर्थज्ञानतस्तथा । जैनदृष्ट्या परीक्षितपातञ्जलयोगदर्शनम् १।१७,१८ -- योगबिन्दु ४१८ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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