Book Title: Dhyata Dhyan aur Dhyey Author(s): Suprabhakumari Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 8
________________ ध्याता, ध्यान और ध्येय / ६३ वितर्कानुगत, विचारानुगत, अानन्दानुगत और अस्मितानुगत ।' उन्होंने शुक्लध्यान के शेष दो चरणों की तुलना असंप्रज्ञात समाधि से की है। प्रथम दो चरणों में पाए हुए वितर्क और विचार शब्द जैन, बौद्ध और योगदर्शन तीनों को ध्यानपद्धतियों में समान रूप से मिलते हैं । जैन साहित्य के अनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतज्ञान और विचार का अर्थ संक्रमण है ।। आचार्य अकलंक ने ध्यान के परिकर्म का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है-उत्तम शरीरसंहनन होकर भी परिषहों के सहने की क्षमता का आत्मविश्वास हुए बिना ध्यानसाधना नहीं हो सकती है। परिषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है। पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी, तट, शून्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मग, मनुष्य प्रादि के अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा, प्रातप आदि से रहित पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यङ्कासन में बैठना चाहिए। उस समय शरीर को सम, ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। बाएं हाथ पर दाहिना हाथ रखकर न खुले हुए और न बन्द, किन्तु कुछ खुले हुए दांतों पर दांतों को रखकर सीधी कमर व प्रसन्नमुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, हास्य, भय आदि छोड़कर मन्द श्वासोच्छवास लेने वाला साधक ध्यान की तैयारी करता है। वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या नासाग्र पर चित्तवृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है। इस तरह एकाग्रचित्त होकर द्रव्य-पर्यायों का ध्यान करता हुअा वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ और व्यञ्जन तथा मन, वचन, काय की पृथक्-पृथक् संक्रान्ति करता है। ____ ध्यान की सिद्धि के लिए रामसेन ने गुरु का उपदेश, श्रद्धा, निरन्तर अभ्यास और स्थिरमन, ये चार बातें प्रावश्यक मानी हैं। ध्यान की उच्चतर स्थिति में चेतना प्रानन्द की ओर बढ़ती है। साधक प्रेरणा और प्रकाश के आयामों में प्रवेश करता है । ध्यान की परिणति है प्रात्मसाक्षात्कार। यह उच्चतर मन के भी परे है। चेतना मन के क्षेत्र को छोड़कर सत्ता के बीज-कोष प्रात्मा के साथ एकाकार हो जाती है । यही शुद्ध चेतना की स्थिति है, जहां पहुंचने पर मनुष्य का अपनी केन्द्रीय सत्ता से सम्पर्क स्थापित होता है। ध्यान हमारी पूर्वाजित सम्पत्ति है। इसका अनुभव हम सहज ही कर सकते हैं। हम जो हैं और जो चाहते हैं, उनके बीच यदि ऐक्य स्थापित हो जाए, तब ध्यान सहज ही लग सकता है। ध्यान एक निजी अनुभव ध्यान न तो निद्रा है, न सम्मोहन ही। यह इनसे परे एक अत्यन्त स्वस्थ स्थिति है, जिसमें मनुष्य अपने अन्दर चल रहे तनावों आदि के प्रति सजग होकर उन्हें समय रहते दूर करने का अवसर पा जाता है। व्याधि दूर करने का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है। नित्य १. वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः। -पातञ्जलयोगदर्शन १११७ २. क्षपकश्रेणिपरिसमाप्तो....केवली नोसंज्ञीत्युच्यते । -जैनदृष्ट्या परीक्षितपातञ्जलयोगदर्शन १।१७,१८ ३. विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः। -तत्त्वार्थसूत्र ९।४६ ४. तत्त्वार्थवातिक ९।४४ अगसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org_Page Navigation
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