Book Title: Dhyata Dhyan aur Dhyey Author(s): Suprabhakumari Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 9
________________ अर्चनार्चन Jain Education International. पंचम खण्ड / ६४ प्रातःकाल प्राधा घंटे का ध्यान ऐसी स्थिति ला देता है कि दिन भर के कार्यों की रूपरेखा ही बदल जाती है। अान्तरिक शान्ति और सन्तुलन का प्रभाव हर कार्य पर पड़ने लगता है। ध्यान से निराशावादिता, उदासी तथा तनाव प्रादि का निवारण होना अवश्यम्भावी है। मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति मानन्द की है। ध्यान में जो शारीरिक एवं मानसिक विश्राम मिलता है, पाता है। ध्यान द्वारा अनेक बीमारियां दूर की जा सकती हैं। सकता है । वह हमें नींद में भी नहीं मिल अपूर्व स्वास्थ्य लाभ किया जा माधुनिक व्यस्त मानव समाज, जो अनेक शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का शिकार बना हुआ है, ध्यान की विधि द्वारा उनसे मुक्ति पा सकता है सर्वप्रथम ध्यान करने वाले साधक को ध्यान करने के विधान को भली-भाँति समझ लेना आवश्यक है। ध्यान के पांच अङ्ग है— स्थिति संस्थिति, विगति, प्रगति, संस्मिति । स्थिति से तात्पर्य है साधक की ध्यान करते समय की स्थिति । ध्यानार्थी ध्यान करने के लिए एकांत और शान्तिपूर्ण स्थान पर शारीरिक शुद्धि करके सुखासन से बैठे। उसका मुंह पूर्व या उत्तर की ओर होना चाहिए। ध्यान का दूसरा अंग है संस्थिति इससे अभिप्राय है साधक अपनी चित्त वृत्तियों को केन्द्रित करे । अपने उपास्य के गुणों का चिन्तन करने को विगति कहते हैं। यथा- अरिहन्तों के बारह, सिद्धों के आठ, आचार्यों के छत्तीस, उपाध्यायों के पच्चीस तथा साधु के सत्ताईस, इस प्रकार निर्धारित गुणों का भावनानुसार चिन्तन करे । उपासना - काल में साधक के मन में रहने वाली भावना प्रगति कहलाती है। साधक गुरु, पिता, सहायक आदि जिस रूप में उपास्य को मानना चाहे, उस रूप की स्थिरता को प्रगाढ़ बनाने के लिए अपनी प्रान्तरिक भावनाओं को विविध शब्दों तथा चेष्टानों द्वारा व्यक्त करे । जिसमें साधक और साध्य, उपासक और उपास्य, भक्त और भगवान् एकरूप हो जाते हैं, उस अवस्था को संस्मिति कहते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता। उपासक की भावना का एक राजस्थानी पद्य में बड़ा सुन्दर चित्रण किया गया है जल बीच कुंभ, कुंभ बीच जल है, जल माहे तरंग समाय । ध्यान के इच्छुक साधक में इसी प्रकार की तन्मयता और दृढता होनी चाहिए। सच्चा ध्यानार्थी वही है जो प्राण-नाश का अवसर श्रा जाने पर भी संयम-निष्ठा का परित्याग नहीं करता, सर्दी, गर्मी और वायु से खिन्न होकर अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होता, रागादि दोषों से प्राक्रान्त नहीं होता, मन को श्रात्म भाव में रमण कराता हुआ योग रूपी अमृत रसायन का पान करने का इच्छुक होता है, शत्रु-मित्र पर समान भाव रखता हुआ संसार के प्रत्येक प्राणी की कल्याणकामना करता है और परिषह उपसर्ग आने पर भी सुमेरु के समान अटल रहता है। ऐसा ही प्रशस्त बुद्धि वाला प्रबुद्ध साधक प्रशंसनीय और श्रेष्ठ ध्याता हो सकता है। ध्यान का परम प्रकर्ष होने पर ध्याता ध्येय रूप हो जाता है, उसकी श्रात्मा परमानन्द को प्राप्त कर लेती है । सभी विकल्प नष्ट हो जाते हैं और आत्मा सिद्धपद को प्राप्त कर लेती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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