Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg

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Page 319
________________ ११ जैन विवेक प्रकाश पुस्तक ४: थु. अंक ६ छटो... श्रीमान् देवेंद्रसूरि विरचित, धर्म, रत्न प्रकरण मूल और गुजराति भाषांतर सहित, प्रथम भाग, शेठ खीअसी. करमणके स्मरणार्थ पालीताणा जैन धर्म विद्या प्रसारक वर्ग तरफसे छपको हमको उनके अभिषायार्थ भेट मिला है, सो प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कीया जाता है। ___ उक्त ग्रंथमें श्रावकोंके एकीस गुणोको अत्यंत अल्हादजनक बो-. ध दिया गया है, जिसमें एकेक गुणका यथावस्थित स्वरूप ओर उनको दृढ करनेके लिए तदपयोगी एकेक दृष्टांत लिखा गया है. जिसके वांचने ओर मनन करनेसें आत्माको तत् तत् गुणानुयायी प्रवृत्ति के स्वादानुभवका और तत् तत् गुणोकि उपादेयताकी आवश्यकता समजजी जाति हे. ग्रंथ कर्त्ताने उपादेय गुणोकी आवश्यकताके लिए. स्पष्टाक्षर और प्रमिताक्षरमे आबेहुब चित्रविचित्र दृष्टांत दार्टीतिकोंसे मनोरंजनतापूर्वक प्रबोधक अच्छा विस्तार किया है. मूल और भाषातरकी भाषा विचक्षणोंकों अत्यंत चित्ताकर्षक और अभिरुचि प्रवर्धक देखी जाती है. यह ग्रंथ देवेंद्राचार्य विरचित होनेसे उनको प्रशंसा जीतनी कहे, इतनी कमी है, क्योंकी कर्त्ताने जैन न्यायके और नय निक्षेपोके. एसे एसे ग्रंथ रचे हे की, जिनको प्रशंसा महान् विचक्षण जनोनेभी उच्चकर्ण करकेभी जेसी सुनीथी, वेसीही. वदनद्वारा सहस्त्र। जिव्हासे प्रसंगानुसार प्रकाशित करनेकी आवश्यकता कही है.... .. यह ग्रंथ रोयल अष्ट पेजी अदांज ६०० पृष्टको और ग्लेज कागजपर छपके पकी जिल्दसे बांधा हे, तथापि प्रकाशकने सार्वजनिक हितार्थ मात्र रुप्या दोहि कीमत रखी है. सो अत्यंत हितचित हितार्थीता प्रकाशीत करता है. हम यह कहनेकी और लिखनेकी आवश्यकता.

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