Book Title: Dharmratna Manjusha Part 01
Author(s): Devvijay Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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धर्मःब्रुवन संवृतिमुनिपादांते गत्वा स व्रतमुपाददे. तं प्रवजितं ज्ञात्वा सावरजो राजा समागत्य नत्वा
दमयित्वा च जोमाय निमंत्रयामाम. साधु जोगमनितं ज्ञात्वा पो गृहमगमत, गुरुणा सार्ध मु. मंजूषा
निरन्यत्र व्यहार्षीत्. गुर्वनुयैका कित्वविहारेण विहरन् स मथुरां प्यो, तदा तन्नृपात्मजामुद्दोढं विशाखनंद्यागात्, विश्वभूतिसाधुरपि मासदपणपारणके तां पुरी प्राविशत, मार्गे च धेन्वाकृष्टो न. मौ पपात. तदा स कपिलपातनदम तवौजः व गतमिति विशाखनंदिसेवकैः स हसितः, तदा स. कोपः साधुस्तां गां श्रृंगे धृत्वा मस्तकोपरि ऋधात्रामयत् , निदानं च चकार, ययानेन तपसा न. यिष्टवीर्योऽस्य मृत्यवे च नवांतरे यासमिति कोटिवर्षायुः संपूर्य तन्निदानमनालोच्य मृतोऽष्टादशे नवे महाशुक्रे सप्तमदेवलोके प्रकृष्टायुः सुरोऽनवत्...
श्तश्चात्रैव जरते पोतनपुरे नगरे जितशतुनामा राजा नृत्, तस्य राझो भद्रा नाम राझी, तयोः पुत्रश्चतुःस्वप्रसूचितो बलन्द्रोऽचलानिधानोऽभवत्. पुनस्तस्य जितशत्रुराझो मृगावतीनाम्नी पु. त्र्यनूत. तामत्यंतरूपवती यौवनवतीं च दृष्ट्वा मात्रा प्रेषिता सा सनामध्ये गत्वा पितुरुत्संगे स्थिता. | तडूपमोहितो राजा पुरीवृधानाहय पृडतिस्म. नो महाजनाः! अस्यां रत्नग यां यानि रत्नानि
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