Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh
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૪૫
तेही वृत्तिर्मा - ' उधाविवे' त्यादि काव्यनी साखि लिखी छइ ते अयुक्ति' एहवं कहि छ ||२८|| ते काव्यनो अर्थ फेरव्यो छ ||२९||
'मिथ्यात्वीनी क्रिया - आंबाना फलना अर्था (र्थी) नइ वटवृक्षसरिखा (खी); चारित्ररहित ज्ञान- पोषमासइ आंबासरिखु' एहवु लिख्युं छइ तिहां ए ओ (जू )ठू जे अपुन धादि क्रिया आंबाना बीजांकुरादि सरिखी गणी नथी । श्रीहरिभद्रसूरिना घणा ग्रंथमां ए अर्थ
प्रकट छ ||३०||
'लौकिक मिध्यात्वथी लोकोत्तर मिध्यात्व भारे,' एहवु लिख्युं छई एह पणि एकांत नथी; जे माटइ बंधनी अपेक्षाई लौकिक पणि भारे दीस ' छइ । योगबिंदुमां भिन्नग्रन्थिनु मिथ्यात्व हउ कहिउ छइ अभिन्नग्रन्थिनु भारे कहि छई ||३१||
'अनुमोदना तथा प्रशंसा ए २ भिन्न कहिउ' एह लिख्युं छइ ते न घटई, जे माटइ पंचाशकवृत्ति प्रमुख ग्रंथई प्रमोदप्रशंसादिलक्षण अनुमोदना कहि छ ||३२|| 'मिध्यादृष्टिना दयादिक गुण पणि न अनुमोदवा' एह (वु कहि ) इछइ ते न घटइ जे माटइ परसंबंधिया पणि दानरुचिपणा प्रमुख सामान्य धर्मना गुण अनुमोदवा योग्य कहिया छ' आराधनापताकादिक ग्रंथिं, तथा साधारणगुणप्रशंसा ए धर्मबिंदु सूत्रमां पणि लोकलोकोत्तर साधारण गुणनी प्रशंसा करवी कही छइ ॥३३॥
'मिथ्यात्वना दयादिक गुण प्रशंसीइ पणि अनुमोदिइ नहीं' एहवु कहई छइ ते मायानुं वचन, जे माटइ खरी प्रशंसाई अनुमोदना ज आवई अनइ खोटी प्रशंसानो तो विधि न हुई ||३४||
'सम्यग्दृष्टि ज क्रियावादी हुइ" एहवु कहइ छइ ते न घटई, जे माटइ एक पुद्गलपरावर्त्त शेष संसार क्रियारुचि क्रियावादी कहिओ छई दशाचूर्णि प्रमुख
ग्रन्थइ ||३५||
'मिध्यात्वीन' दयादिक गुणइ करी पणि सकामनिर्जरा न हुई" एह लिख्यु छ३ ते न घटई, जे माटइ मेघकुमारनुं जीव हस्तिप्रमुखनई दयादिक गुइण (गुणइ ) संसार पातलो थयो ते सूत्रिं ज कहिउ छइ ते सकामनिर्जरा विना किम घट' । तथा मोक्षनई अर्थ निर्जरा-ते सकामनिर्जरा कही छई ॥ ३३॥
" कविला इत्थंपि इयं पिं' ए वचन मरीचिनी अपेक्षाइ उत्सूत्र नहीं, अनई कपिलनी अपेक्षा उत्सूत्र, ते माटइ उत्सूत्रमिश्र कहिइ" एहवुं लिख्यु छे ते न घटई, जे माटिं इम करतां सिद्धान्तवचन पणि सम्यग्दृष्टि मिध्यादृष्टिनी अपेक्षाई उत्सूत्रमिश्र थई जाइ तथा श्रुतभावभाषामिश्र हुई ज नहीं एहवं दशवैकालिकनी निर्युक्ति मां कहिउं छई ॥ ३७॥
'मरीचितुं वचन दुर्भाषित कहि पणि उत्सूत्र न कहिइ ' एहवुं कहइ छई ते न मिलइ, जे माटइ पंचाशकवृत्ति-दुर्भाषितपदनो अर्थ उत्सूत्र करिओ छइ ॥ ३८ ॥
"
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उत्सूत्रलेश मरीचितुं वचन कहिउ छइ ते माटइ उत्सूत्रमिश्र कहिइ ' एह कहइ

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