Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 549
________________ ૧૦૮ મેલ સંગ્રહ "घातिकर्मक्षयर्थी ऊपनो जीवरक्षाहेतु लब्धि प्रयुंज्या विना ज केवलीनइ हुई " एवं मानइ छइ तेहनइ मतइ चउदमइ गुणठाणइ मशकादिकर्त्तृक मशकादिवध मान्या छ ते पणि न मिलइ, नहीं तो तेरमइ गुणठाणई पणि तेहवो ते मान्यो जोइ ॥ ९० ॥ " द्रव्यहिंसाई केवलीनइ १८ दोषरहितपणुं न घटइ " एह मत द्रव्यपरिग्रह इच्छतां पणि १८ दोषरहितपणुं न मिलइ ॥ ९१ ॥ कहइ छइ तेहनइ "प्राणातिपात मृपावादादिक छद्मस्थ लिंग मोहनीय अनाभोगमां एकइ विना न हुईं, म बारम गुणठाण' मृषा भाषा कर्मग्रंथादिकमां कही छइ स (ते) संभावनारूढ जाणवी " एह कहइ छइ तेहनइ' पूछवु जे, द्रव्यभाव बिना संभावनारूढ त्रीजो किहां कह्यो छइ ? "कालशूकरिकन कल्पित हिंसानी परि ए संभावनारूढ मृषावाद लेवो" एह लिख्यं छई तेहनइ' अनुसारइ तो अंतरंग भावमृषावाद ज बारमइ गुणठाणइ आवइ ||१२|| क्षुद्रजंतु भयोत्पादकपणता अपवादकल्प कहिइ ते कहइ छइ ते न घटइ, ते (जे) माटइ उत्सर्ग कहिओ नथी. इच्छाइ ३ भेद कल्पि उत्सर्गना कहई, तथा केवलि व्यवहारानुसार प्रति "प्रतिलेखना प्रमार्जनादिक क्रिया छमस्थ लिंगकेवलीनइ न हुइ, " एह अपवाद टाली त्रीजो अपवादकल्प किंहांइ कल्पना चोथो भेद कल्पता पणि कुण लेखनादिक क्रिया पणि केवलीनइ छई ते प्रीछ ॥ ९३ ॥ " बिलवासी मनुष्य पणि जातिस्मरणादिकइ मांसभक्षण अतिनिंदित जाणी परिहरई छइ, ते माई मांसभक्षणथी सम्यक्त्वनो नाश ज हुई" एह लिख्युं छई ते न घटइ, जे आई मांसभक्षणनी परिं परदारागमन पणि महानिंदित छ, तेहथी सत्यकि विद्याधरप्रमुखनइ जो सम्यक्त्व न गयुं तो मांसभक्षणथी कृष्णादिकनुं सम्यक्त्व न जाइ तिहां बाधक नथी || १४ || ૧૪ “मांसाहार नरकायुर्बन्धस्थानक छड ते माटइ तेहनी अनिवृत्ति सम्यक्त्व न हुई" एहवुं लिख्यु छइ ते न घटइ, जे माटइ महारंभ महापरिग्रहादिक पणि नरकायुर्बंधस्थानक छइ तेही निवृत्ति पणि जिम कृष्णादिकतई सम्यक्त्व छइ तिम मांसभक्षणनी अनिवृत्ति पणि सम्यक्त्व हुई तिहां बाधक नथी || ९५|| “तणं' से दुबए राया कंपिल्लपुर नगर अणुष्पविसइ अणुपविसित्ता विउल' असणं पाणखाइम साइम' उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छहण' तुम्हे (तुम्भे ?) देवाणुप्पिया ! विउल असणं पाणं खाइम साइमं सुर मज्न मंसं पसन्नं च सुबहुपुप्फफलवत्यगंधमल्लालेकर च वासुदेवप्पामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासे साहर ते वि साहरति, तः णं ते वासुदेवपाभोक्खा विउल असणं ४ जावपण आसाएमाणा ४ विहरंति" [ज्ञा० सू० १९८ ] एषष्ठांगसूत्र वर्णनमात्र लिख्युं छई, इम सहहतां नास्तिकपणु थाइ, जे माटइ यदि सूत्र पर्णि वर्णनमात्र कहतां कुण ना कहई || ९६ || "ए सूत्रमां वासुदेवनई' मांसपरिभोग ते आज्ञा द्वारा जाणत्रो, आज्ञा पणि ते ते अधिकारीनी द्वाराई, पणि साक्षात् नही" एड्वी कल्पना करी छइ ते न घटइ, जे माटई

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