Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 547
________________ ૨૦૨ ૧૦૮ એલ સગ્રહ तथा" चाद्यभंगे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोगोऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्त इत्यादि" [गा० ३९३४ वृत्तिः ] एइ करी जे इम कहइ छइ 'केवलीना योगथी द्रव्यहिंसा न हुइ' तेहनइ' मते इ अप्रमत्तना योगथी ज द्रव्यहिंसा न हुइ जोइ, जे माटइ पहिलइ चरथइ भाग करी अप्रमत्तादिक सयोगिकेवली तांइ सरिखा ज गण्या छई तथा अप्रमत्तन३' ज्र द्रव्यहिंसा कही तेइ करी प्रमत्तसंयतनइ' पणि जे द्रव्यहिंसा कहइ छइ ते सिद्धांतविरुद्ध इत्यादिक विचार ॥७७॥ " जावं च ण एस जीवे सया समियं एयई' वेयइ जाव त त भाव परिणमइ' ताव' च ण एस जीवे आरंभइ सारंभइ समारंभइ" इत्यादिक भगवती मंडियपुत्रना आलावाम - "इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवासौ ग्राह्योऽयोगस्यैजनादेरसम्भवात् " ए वृत्तिवचन उल्लंघनइ सयोगि जीव केवलिव्यतिरिक्त लेवो एह लिख्युं छइ ते प्रकट हठ जणाई' छ ॥७८॥ " जिहां तांइ एजनादि क्रिया तिहां तांइ आर भार्दिक ३ नो नियम न घटइ, ते माटइ ' भादिक शब्द योग ज कहिई, योग हुइ तिहां तांइ अंतक्रिया न हुइ एहवो ए सूत्रनो 'अभिप्राय" एह कहइ छइ' ते अपूर्व ज पंडित, जे माटइ ए अर्थ वृत्तिं नथी तथा आरभादिक अन्यतर नियमन ई' अभिप्रायइ सूत्र विरोध पणि नथीं, ए रीतिना सूत्र बीजांय दीस ' छइ तथाहि - " जाव णं एस जीवे सया समिय एयइ जाव त त भावं परिणमइ ताव णं अट्ठविह बंधए वा सत्तविह बंधए वा छव्हि बंधए वा एगविह बंध वा नो अबंध" इत्यादिक तथा - आरंभादिक (३) शब्दइ ३ योगनो अर्थ ए पणि न संभवइ' इत्यादि विचार ॥७९॥ "तस्मात्साक्षाज्जीव घातलक्षणारम्भो नान्तक्रियायाः प्रतिबन्धकः, तदद्भावेऽन्तक्रियाया अभणनात् प्रत्युताऽन्निकापुत्राचार्य - गजसुकुमाल| दिदृष्टान्तेन सत्यामपि जीवविराधनायां केवलज्ञानान्तयोर्जायमानत्वात् कुतस्तत्प्रतिबन्धकत्वशङ्काऽपि " [गा० २९ वृत्तिः ] एह सर्वज्ञशतकमां लिख्य छइ ते प्रकट स्वमतविरुद्ध ॥ ८० ॥ 'शैलेश्यवस्थायां कायसंस्पर्शेन मशकादीनां प्राणत्यागेऽपि पञ्चधोपादानकारण योगाभावानास्ति बन्धः, उपशान्तक्षीणमोहसयोगिनां स्थितिनिमित्तकषायोदयाभावात् सामयिककर्मबन्धः ' इत्यादि आचारांग सूत्रनी वृत्ति कहिउ छइ' तथा 'सेलेसी पडिवन्नस्स जे (सत्ता) फरिस पप्प उद्दायंति मसगादी तत्थ कम्मबन्धो णत्थि, सजोगिस्स कम्मबन्धो दो समया. " veg आचारांग सूनी चूर्णिमां कहिउ छइ तिहां चउदमई गुणठाणइ योग नथी rs तिहां केवलिकत्तेक मशकादिवध न हुई पणि मशकादिकत्र्तक ज हुइ, तद्गतो. (पादानकर्मबन्धकार्य कारणभावप्रपंचनइ अर्थि ए ग्रंथ छइ" एहवी कल्पना करइ छइ ते खोटी. जे माटइ सामान्यथी साधुनई अवश्यभावी जीवघातनइ' अधिकार ' छइ । तथा चउड़ (स) मइ' गुणठाणइ मशकादिकर्तृक ज मशकादिघात ज ए ग्रंथ चाल्यो कहिइ तो पहिलां ग

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