Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 546
________________ કેવલદ્રવ્યહિંસા વિચાર ५० 'अपवादई जिननो उपदेश हुइ' पणि विधिमुखइ आदेश न हुइ' एहवु' कहइ छइ ते खोटु-जे माटई छेदप्रथई अपवादई घणां विधिवचन दीसइ छइ ॥७२।। ___"वस्त्रइगलिउ ज पाणी पीवु' इहां पीवानो सावधपणा माटई विधि नहि पणि गलवानो ज विधि" एह कहइ छइ ते न मिलई, जे माटई गालि पाणि पणि शस्र कहिउछई यतः - "उस्सिचणगालणधोवणे य उवगरणमत्तकोसभंडे य । बायर आउक्काए, एय तु समासओ सत्थ ॥ [अ. १. नि. गा. ११३] आचारांगसूत्रनियुक्तौ ॥७३॥ 'द्रव्यहिंसाई द्रव्यथी हिंसानु पच्चक्खाण भाजई” एहवु कहई छई ते न घटइ, जे माटई 'धर्मोपकरण राखतां द्रव्यथी परिग्रहनु पच्चक्खाण भाजई' एहवू दिगंबरई कहिलं छई तिहां विशेषावश्यकई 'द्रव्य-क्षेत्र-कालथी भावनु ज पच्चक्खाण हुइ पणि केवल द्रव्यथी भंग न हुई' ए रीतई समाधान करिउ छई ॥४॥ - श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिमा हिंसानी चउभंगीमा 'द्रव्यथी तथा भावी न हिंसा' मनोवाक्कायशुद्ध साधुनइ ए भांगो कहिओ छई तेहनो स्वामी तेरमा गुणठाणानो धणी ज: जे फलावई छई अनई चउदमा गुणठाणानो धणी निषेधई छई, मनवचनकाययोग विना तेहाथी शुद्ध न कहवाई जिम वस्त्र विना वस्त्रई शुद्ध न कहिई ते भणी" ते खोटु, जिम जलस्नानई' जलनु संसंग टल्या पछी पणि जलइ शुद्ध कहिई तिम अयोगिनई योग गया पछी पणि योगइ शुद्ध कहिइ ते माटई साधु सर्वनइ जिवारइ द्रव्यहिंसा गुप्तिद्वाराईन हुई तिवारई चोथो भांगो घटई ॥७५।। 'द्रव्यहिंसा पणि हिंसादोष स्वरूप' एहवु कहिई छई ते न घटइ, जे माटई“समितस्य-ईर्यासमितावुपयुक्तस्य या 'आहच्च' कदाचिदपि हिंसा भवेत्सा द्रव्यतो हिंसा, इयं च प्रमादयोगाभावात्तत्वतोऽहिंसैव मन्तव्या, 'प्रमत्तयोगात्' प्राणव्यपरोपण हिंसा' इति वचनात् ।” (गा० ३९३२ वृत्ति) ए बृहत्कल्पनी वृत्ति वचनई अप्रमत्तनई द्रव्यथी हिंसाः ते अहिंसा ज जणाई छई ॥६॥ "बृहत्कल्पनी भाष्यवृत्तिमा वस्त्रछेदनादि व्यापार करतां जीवहिंसा हुई, जे माटई जिहां ताई जीव चालई हालई तिहां ताई आरंभ हुई एहवु भगवती-सूत्रमा कहिछ एहवं प्रेरकई कहिउ ते ऊपरि समाधान करतां आचार्य ते भगवती सूत्रना आलाचालो अर्थ भिन्न न कहिओ, केवल इम ज कहि जे आज्ञाशुद्धनई द्रव्यथी हिंसा ते हिंसामां जन गणिई यतः- "यदेव 'योगवन्त'-वस्त्रच्छेदनादिव्यापारवन्त जीव हिंसक त्व' भाषसे तन्निश्ची. यते सम्यसिद्धान्तमजानत एवं प्रलापः । नहि सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव 'न हिंसोपवावी अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावादित्यादि” (गा० ३९९२ पृषिक्ष) १. तत्त्वार्थ अ० ७ स० ८ । २ 'न' पधाराना साणे छे.

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