Book Title: Dharm aur Darshan Author(s): Devendramuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 8
________________ धर्म और दर्शन : एक मूल्यांकन 'धर्म और दर्शन' पर क्या लिखू ? लिखने को बहुत कुछ है, और लिखने को कुछ भी नहीं है। लिखने के प्रश्न को टालने का प्रयत्ल किया। परन्तु प्रेम के आग्रह को टाला भी तो कैसे जाए ? मेरे सामने प्रश्न का प्रश्न यही था, और उलझन की उलझन भी तो यही थी न ? जीवन के प्रांगण में, किसी भी उलझन का आना, मैं उसे अभिशाप के रूप में नहीं ----एक सुन्दर वरदान के रूप में ही स्वीकार करता हूँ। जीवन उलझनदार है-आज से ही नहीं, एक सीमा-हीन युग से । उलझकर फिर उलझने को तो निश्चय ही मैं जीवन नहीं कहता। मेरे विवार में उलझना बुरा नहीं, पर उलझकर सुलझने का प्रयत्न ही न करना-निश्चय ही बुरा है । धर्म और दर्शन का जन्म इसी उलझन के सुलझाव से हुआ है। मेरे अपने विचार में मनुष्य, इसीलिए मनुष्य है, कि वह उलझ कर भी सुलझने की शक्ति रखता है। प्रश्न था, और प्रश्न है, और प्रश्न भविष्य में भी रहेगा --धर्म क्या है ? दर्शन क्या है ? उन दोनों का परस्पर में सम्बन्ध क्या है ? What is Philosophy of religion, and what is raligion of Philosophy ? I atat प्रश्न एक-दूसरे के पूरक हैं । धर्म को दर्शन की और दर्शन को धर्म की सदा से ही आवश्यकता रही है-दोनों सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं । मानव जीवन की सरिता इन दोनों तटों के मध्य में से ही प्रवाहित होती है। उसके प्रवाह के लिए दोनों तट आवश्यक हैं। एक बार ग्रीक दार्शनिक सुकरात से पूछा गया था-What is reace and where it is ? शान्ति क्या है और वह है कहाँ ? कुछ गम्भीर होकर और फिर कुछ मन्दमुस्कान के साथ में सुकरात ने कहा था--मेरे लिए शान्ति, मेरा धर्म है, और मेरे लिए शान्ति, मेरा दर्शन है । और वे कहीं बाहर नहीं, स्वयं मेरे अन्दर ही हैं । सुकरात धर्म को विचार से भिन्न नहीं मानता । और जो कुछ विचार है, वही आचार भी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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