Book Title: Dharan Vihar Chaturmukh Stava Author(s): Vinaysagar Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ सप्टेम्बर २००८ उत्तर दिशा में अष्टापद की रचना की गई है । नालिमण्डप है, जहाँ सहस्रकूट गिरिराज की प्रतिमाओं का स्थापन किया गया है । दक्षिण दिशा में नन्दीश्वर और सम्मेतशिखर की रचना की गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह धरणविहार महीमण्डल का सिणगार है और विन्ध्याचल के समान है । विदिशा में ४ विहार बनाए गए हैं। पहला विहार अजितनाथ और सीमन्धरस्वामी से सुशोभित है जिसका निर्माण चम्पागर ने करवाया । दूसरा विहार महादे ने करवाया है जहाँ शान्तिनाथ और नेमिनाथ विद्यमान हैं। तीसरा विहार खम्भात के श्रीसंघ ने करवाया जिसमें पार्श्वनाथ प्रमुख है । चोथा महावीर का विहार तोल्हाशाह ने बनवाया है । इन लोगों ने अपनी लक्ष्मी का लाभ लिया है। ऐसा मालूम होता है कि तारणगढ़ (तारङ्गा), गिरनार, थंभण और सांचोर जो पञ्चतीर्थी के नाम से प्रसिद्ध है वे यहाँ आकर विराजमान हो गए हों । चारों दिशाओं में आठ प्रतिमाएँ हैं जो ३३ अंगुल परिमाण की हैं । मन्दिर में ९६ देहरियाँ हैं । ११६ मूल जिनबिम्ब हैं । मण्डप २० हैं । ३६८ प्रतिमाऐं हैं । देवविमान के समान शोभित हो रहा है और राय एवं राणा यह सोचते हैं कि यह किसी देव का ही काम हो इसलिए राणा इसे त्रिभुवनदीपक कहते हैं । पीछे की शाल शोभायमान है । कंगुरों से शोभित है । समवसरण, चारसाल के ऊपर गजसिंहल है । इस मन्दिर में साठ चतुर्मुख शाश्वत बिम्ब हैं । धरणागर सेठ ने अति रमणीय मन्दिर राणकपुर में बनवाया है और बड़े महोत्सव के साथ दानव, मानव और देवता पूजा करते हैं । (पद्य २२ - ३०) ३१वें पद्य में कवि अपना परिचय देता हुआ कहता है कि पण्डित विशालमूर्ति तपागच्छ नायक युगप्रवर श्रीसोमसुन्दरसूरि के चरणों की प्रतिदिन सेवा करता है और इस धरणविहार का भक्ति से स्मरण करता है। इसका स्मरण करने से शाश्वत सुख प्राप्त होते हैं । भाषा छन्द आदि यह रचना अपभ्रंश मिश्रित मरुगुर्जर में लिखी गई है । वस्तुछन्द आदि प्राचीन छन्दों का प्रयोग किया गया है । ठवणी और भाषा किस छन्द के नाम हैं, ज्ञात नहीं ? पद्य ५-६ में धरणिन्द के स्थान पर धरणिग ही समझें । Jain Education International ६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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