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पण्डित विशालमूर्ति रचित श्रीधरणविहार चतुर्मुखस्तव
म. विनयसागर
विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में आबू तीर्थ के अतिरिक्त शिल्पकला की सूक्ष्मता, कोरणी और स्तम्भों की दृष्टि से राणकपुर का नाम लिया जाता है। धरणिगशाह ने पहाड़ों के बीच में जहाँ केवल जंगल था वहाँ त्रिभुवनदीपक नामक / धरणिकविहार जैन मन्दिर बनवाकर तीर्थयात्रियों की दृष्टि में इस तीर्थ / स्थान को अमर बना दिया । अमर बनाने वाले श्रेष्ठी धरणाशाह और तपागच्छके आचार्य सोमसुन्दरसूरि का नाम युगों-युगों तक संस्मरणीय बना रहेगा ।
अनुसन्धान ४५
इस तीर्थ से सम्बन्धित पण्डित विशालमूर्ति रचित श्रीधरणविहार चतुर्मुख स्तव प्राप्त होता है । जिसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
प्रतिका माप २५ x ११ से.मी. है। पत्र संख्या ३ है । प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या १३ हैं और प्रति पंक्ति अक्षर लगभग ३६ से ४० हैं । स्थानस्थान पर पडीमात्रा का प्रयोग किया गया है । लेखन प्रशस्ति इस प्रकार
है :
सं० लाखाभा० लीलादे पुत्री श्रा० चांपूठनार्थं । लिखतं पूज्याराध्य
पं० समयसुन्दरगणिशिष्य पं० चरणसुन्दरगणि शिष्य हंसविशालगणिना ।
इसका समय १६वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जा सकता है ।
प्रान्त पुष्पिका में समयसुन्दर गणि का शिष्य चरणसुन्दर लिखा है ।
गुरु और शिष्य दोनों सुन्दर हैं अतएव ये दोनों खरतरगच्छ के हों ऐसी सम्भावना नहीं है । सम्भवतः सोमसुन्दरसूरि के समय ही उनकी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में हों ।
इस स्तव के कर्ता पण्डित विशालमूर्ति के सम्बन्ध में कोई परिचय
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प्राप्त नहीं होता है । केवल कृति पद्य ३१ के अनुसार ये श्री सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे । इस रचना को देखते हुए मन्दिर के निर्माण और प्रतिष्ठा में इनकी उपस्थिति हो ऐसा प्रतीत होता है । अतएव कृतिकार का समय १५वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १६वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है । इनकी अन्य कोई कृति भी प्राप्त हो ऐसा दृष्टिगत नहीं होता है।
श्री सोमसुन्दरसूरि का समय इस शताब्दी का स्वर्णयुग और आचार्यश्री को युगपुरुष कहा जा सकता है । तपागच्छ पट्ट-परम्परा के अनुसार श्री देवसुन्दरसूरि के (५० वें) पट्टधर श्रीसोमसुन्दरसूरि हुए । इनका जन्म संवत् १४३०, दीक्षा संवत् १४४७ तथा स्वर्गवास संवत् १४९९ में हुआ था । आचार्यश्री अनेक तीर्थों के उद्धारक, शताधिक मूर्तियों के प्रतिष्ठापक, साहित्य सर्जक और युगप्रवर्तक आचार्य थे । तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ ३९ की टिप्पणी के अनुसार उनके आचार्य शिष्यों की नामावली दी गई है । तदनुसार मुनिसुन्दरसूरि, जयसुन्दरसूरि, भुवनसुन्दरसूरि, जिनसुन्दरसूरि, जिनकीर्तिसूरि, विशालराजसूरि, रत्रशेखरसूरि, उदयनन्दीसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि, सोमदेवसूरि, रत्नमण्डनसूरि, शुभरत्नसूरि, सोमजयसूरि आदि आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ ६५ के अनुसार इनका साधु समुदाय १८०० शिष्यों का था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय के प्रौढ़ एवं दिग्गज आचार्यों में इनकी गणना की जाती थी । श्रीहीरविजयसूरिजी के समय में भी इतने आचार्यों के नाम प्राप्त नहीं होते हैं । साधु समुदाय अधिक हो सकता है । वर्तमान अर्थात् २०वीं शताब्दी के आचार्यों में सूरिसम्राट श्रीविजयनेमिसूरि का नाम लिया जा सकता है । जिनके शिष्यवृन्दों में दशाधिक आचार्य थे। समुदाय की दृष्टि से तुलना नहीं की जा सकती है ! वर्ण्य-विषय
कवि प्रथम पद्य में नाभिनरेश्वरनन्दन को नमस्कार कर राणिगपुर निवासी प्राग्वाट वंशीय धरणागर का नाम लेता है और उनके गुरु तपागच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरि को स्मरण करता है । उनकी देशना को सुनकर संघपति धरणागर ने आचार्य से विनति की कि आपकी आज्ञा हो तो में चतुर्मुख जिन मन्दिर का निर्माण करवाना चाहता हूँ। आचार्य की स्वीकृति प्राप्त होने पर
काव
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अनुसन्धान ४५
संघपति ने ज्योतिषियों को बुलाया और उनके आदेशानुसार संवत् १४९५ माघ सुदि १० को इसका शिलान्यास / खाद मुहूर्त करवाया । मन्दिर की ४६० गज की विशालता को ध्यान में रखकर गजपीठ का निर्माण करवाया गया । (पद्य १-६)
भविजनों के आने-जाने के लिए मन्दिर के चारो दिशाओं में चार दरवाजे बनवाए। पीठ के ऊपर देवछन्द बनवाया और चारों दिशाओं में सिंहासन स्थापित किए । चारों दिशाओं में ४१ अंगुलप्रमाण की ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की और संवत् १४९८ फाल्गुन बहुल पंचमी के दिन श्रीसोमसुन्दरसूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई । (पद्य ७-९)
चारों शाश्वत जिनेश्वरों की प्रतिमाएँ विमलाचल, रायणरूंख, सम्मेतशिखर, अष्टापदगिरि और नन्दीश्वरद्वीप की रचना कर ७२ बिम्ब स्थापित किए। दूसरी भूमि में देवछन्द और मूल गम्भारों में उतनी ही प्रतिमाएं स्थापित की। यहाँ ३१ अंगुल की मूर्तियाँ थी । चारों दिशाओं और विदिशाओं में आदिनाथ भगवान की मूर्तियाँ स्थापित की गई ।
तृतीय भूमि अर्थात् तीसरी मंजिल पर इक्कीस अंगुल की प्रतिमाएँ विराजमान की गई और मूर्तियों का पाषाण मम्माणी पाषाण ही रहा । तृतीय मंजिल के शिखर पर ३६ गज का शिखर बनाया गया । ११ गज का कलश स्थापित किया गया और लम्बी ध्वजपताका पर घुंघरुओं की घण्टियाँ लगाई गई । ( १०-१५)
त्रात्र
सोलवें वस्तु छन्द में पद्याङ्क ७ से १५ सारांश दिया गया है । यह मन्दिर चहुमुख है । स्तम्भों की कोरणी कलात्मक है । मण्डप में तीन चौवीसियों की स्थापना की गई है । मन्दिर की शोभा इन्द्रविमान के समान है । ४६ पूतलियाँ लगाई गई है । अन्य देशों के यात्री संघ आते हैं, महोत्सव करते हैं और प्रसन्न होते हैं । मेघ मण्डप दर्शनीय है। तीन मंजिलों पर तीर्थंकरों ने यहाँ अवतार लिया हो इस प्रकार का यहाँ प्रतीत होता है मन्दिर में भेरी, भुंगर, निशाण आदि की प्रतिध्वनि गूंजती रहती है । गन्धर्व लोग गीत - गान करते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर के सन्मुख बारह देवलोक की गणना ही क्या है ? (पद्य १७ - २१)
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उत्तर दिशा में अष्टापद की रचना की गई है । नालिमण्डप है, जहाँ सहस्रकूट गिरिराज की प्रतिमाओं का स्थापन किया गया है । दक्षिण दिशा में नन्दीश्वर और सम्मेतशिखर की रचना की गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह धरणविहार महीमण्डल का सिणगार है और विन्ध्याचल के समान है । विदिशा में ४ विहार बनाए गए हैं। पहला विहार अजितनाथ और सीमन्धरस्वामी से सुशोभित है जिसका निर्माण चम्पागर ने करवाया । दूसरा विहार महादे ने करवाया है जहाँ शान्तिनाथ और नेमिनाथ विद्यमान हैं। तीसरा विहार खम्भात के श्रीसंघ ने करवाया जिसमें पार्श्वनाथ प्रमुख है । चोथा महावीर का विहार तोल्हाशाह ने बनवाया है । इन लोगों ने अपनी लक्ष्मी का लाभ लिया है। ऐसा मालूम होता है कि तारणगढ़ (तारङ्गा), गिरनार, थंभण और सांचोर जो पञ्चतीर्थी के नाम से प्रसिद्ध है वे यहाँ आकर विराजमान हो गए हों । चारों दिशाओं में आठ प्रतिमाएँ हैं जो ३३ अंगुल परिमाण की हैं । मन्दिर में ९६ देहरियाँ हैं । ११६ मूल जिनबिम्ब हैं । मण्डप २० हैं । ३६८ प्रतिमाऐं हैं । देवविमान के समान शोभित हो रहा है और राय एवं राणा यह सोचते हैं कि यह किसी देव का ही काम हो इसलिए राणा इसे त्रिभुवनदीपक कहते हैं । पीछे की शाल शोभायमान है । कंगुरों से शोभित है । समवसरण, चारसाल के ऊपर गजसिंहल है । इस मन्दिर में साठ चतुर्मुख शाश्वत बिम्ब हैं । धरणागर सेठ ने अति रमणीय मन्दिर राणकपुर में बनवाया है और बड़े महोत्सव के साथ दानव, मानव और देवता पूजा करते हैं । (पद्य २२ - ३०)
३१वें पद्य में कवि अपना परिचय देता हुआ कहता है कि पण्डित विशालमूर्ति तपागच्छ नायक युगप्रवर श्रीसोमसुन्दरसूरि के चरणों की प्रतिदिन सेवा करता है और इस धरणविहार का भक्ति से स्मरण करता है। इसका स्मरण करने से शाश्वत सुख प्राप्त होते हैं ।
भाषा छन्द आदि
यह रचना अपभ्रंश मिश्रित मरुगुर्जर में लिखी गई है । वस्तुछन्द आदि प्राचीन छन्दों का प्रयोग किया गया है । ठवणी और भाषा किस छन्द के नाम हैं, ज्ञात नहीं ? पद्य ५-६ में धरणिन्द के स्थान पर धरणिग ही समझें ।
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अनुसन्धान ४५
विशेष
मेरे द्वारा लिखित कुलपाक तीर्थ माणिक्यदेव ऋषभदेव नामक पुस्तक में लेखांक ११ से यह तो प्रमाणित है कि सोमसुन्दरसूरि के प्रमुख भक्त श्रेष्ठी गुणराज ने संवत् १४८१ में कुलापाकतीर्थ की यात्रा की थी। इस लेख में धरणिक का नाम आता है। यह धरणिक राणकपुर मन्दिर के निर्माता थे या गुणराज के पूर्वज थे यह स्पष्ट नहीं होता । लेखांक १०अ में भी गुणराज, सहसराज का नाम आता है । लेखांक ७ब के अनुसार सोमसुन्दरसूरि के शिष्य भुवनसुन्दरसूरि, ज्ञानरत्नगणि, सुधाहर्षगणि, विजयसंयमगणि, राज्यवर्धनगणि, चारित्रराजगणि, रत्नप्रभगणि, तीर्थशेखरगणि, विवेकशेखरगणि, वीरकलशगणि
और साध्वी विजयमती, गणिनी संवेगमाला आदि के खण्डित शिलालेख प्राप्त होता हैं । लेखांक ८ संवत् १४७९ में भुवनसुन्दरसूरि का नाम प्राप्त होता है। लेखांक ९ संवत् १४८१ के लेख में श्रीसोमसुन्दरसूरि ने माणिक्यदेव आदिनाथ की यात्रा की थी यह उल्लेख भी प्राप्त होता है ।
यह स्तव ऐतिहासिक स्तव है और राणकपुर आदिनाथ मन्दिर का पूर्ण परिचय देता है अत: उसका मूल पाठ दिया जा रहा है :
॥०॥ पणमिय नाभिररेसर नन्दन, गाइसु तिहूअण नयनानन्दन
चुमुख धरण विहार सोहइ सुरपुर सम राणिगपुर, तिहां वसइ संघपति धरणागर
प्रागवंश सिणगार ॥१॥ अनुक्रमि तवगच्छनायक सुहुगुरु, विहरन्ता पुहता राणिगपुर
सुरतरुनिय परिसार सिरिसोमसुन्दरसूरि पुरन्दर, भविककमलवनबोधनदिनकर
जुगवर कमलागार ।।२।। अमिय समाणि तसु मुखि वाणी, निसुणीय संघपति निय मनि आणी
विनवय जोडी पाणि भगवन तुम उपदेश ऊपनु, भाव करावा श्रीचुमुखनु
हु मुझ तुम पसाउ ॥३॥
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पछइ संघपति लगन गिणाया, पण्डित जोसी खेवि तेडाव्या
___ आव्या सुहगुरु पासि संवत चऊद वरिस पंचाणु, माह बहुल नवमीनिसि तक्खणु
दसमी दिवस मुहाण ॥४॥ मण्डिय धरणिन्द भिड पूरावइ, विसासु गजपीठ बंधावइ
____ आवइ आणंद पुरि दिन-दिन वाधइ अति दीपन्तु, वीझ महागिरि रइ जीपन्तु
खेयन्तु भव दूरि ॥५।। ___ वस्तु । चुमुख कारणि चुमुख कारणि बहुय वीस्तार, विसासउ गज पिहुल पणि साठ च्यार
सइ परिधि विस्तार इण परि पीठ बन्धावि करि हरख पूरि धरणिन्द सादर सोमसुन्दर सुहुगुरु तणउ निसुणीय वयण विचार शुद्ध दिवस मण्डाविउ सोहइ धरण विहार ।।६।।
॥ ठवणि || नीपनां ए अतिसुविशाल सोहइ च्यारइ बारणां ए चिहुं दिसिइए आवता जाणि भवियण लोअण पारणां ए दीपतां ए पीठ ऊपरि देवछन्दइ विस्तर घणा ए चिहुदिसिइं ए मण्डिय च्यारि सिंहासण जिणवर तणां ए ||७|| च्यारइ ए एकतालीस अंगुलमाण जुगादिजिण थापिवा ए मण्डि जङ्ग सङ्घपति पूछिय सुद्ध दिण सिरिगुरु ए तवगछराय सोमसुन्दरसूरि करकमलि प्रतिट्ठिया ए संवत् चऊद अट्ठाणु फागुण बहुलई ...... ||८|| पंचमई ए परमाणंद चन्दन केसरि पूज करि झलकता ए मूलनायक कंचणमय आभरण भरिय थापिया ए चिहुदिसिइं सार परगरसि उपरि वारिया ए जाणइं ए धरणिन्द आज काज सवें मई सारिया ए ॥९॥
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सासता ए जिणवर च्यारि जाणे विमलाचल सहिय फेडइ ए रायण रूख दुख सवे पासई रहिय सोहइ ए सिरिसम्मेतसिहर अट्ठावइ गिरिवरू ए अभिनवां ए बहुतरी बिम्ब बावन नन्दीसर वरू ए ॥१०॥ एतला ए सवि अवतार देवछन्द इमि भाविया ए बीजा ए जे अवतार मूल गम्भारइ ठाविया ए अनेरां ए जे छई बिम्ब भावइं भगतिइं ते थुणीय च्याल्या ए बाहिरि हेव जिणवर सवि जे ती भणीय ॥११॥ हरखिया बीजि भूमि पावड़िया रे तिहिं चडई ए पूजिवा ए आवई रंगि इगतीस अंगुल वडवड़इ ए चिहुँ दिसिई ए तिहिं अवधारि बइठा आदिल विविह परई उससई ए भवियण काय देखीय मूरति भगति भरई ॥१२॥ त्रीजी ए भूमि विचार इगवीस अंगुल आदिजिण तिणिपरई ए मन उह्लासि पूजु पणमुं भवियजण बारइ ए मूलनायक मम्माणी पाणी तणा ए अवतरिया ए जाणे बार दिनकर महियलि दीपतां ए ॥१३।। विदिसई ए सिखरसिंगार बार-बार जिण जूजूया ए सीलमई ए चंपकमाल सासय पूजा पूजिया ए उंचउ ए गज छत्रीस अनुपम शिखर त्रिभूमिवर जोयतां ए सोभसंभार भवियण मण उल्हासकर ॥१४॥ राजतु ए सोवंनवंन इग्यारइ गज उंचपणि झलकतु ए उंचउ दंड कलस पुरिस परिमाण पुण घमघमई ए घूघरमाल लंब पताका लहलहई ए नाचती ए जाणे रंगि संघपति कीरति गहगई ए ॥१५।।
॥ वस्तु ॥ चारु चउमुख चारु चउमुख रिसहजिणनाह संघपति धरणिंद करेविअ, सुगुरु पासि पइइट्ठ सारिअ
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तीरथ सवि अवतार तिणि, देवछंद दिप्पंत कारिअ त्रिहुं भूमे भासुर सिहर कोरणी ए सुविशाल दंडकलश सोवनमइ दीसई अतिर्हि झमाल ॥१६।।
॥ ठवणी ॥ चउमुख चिहुं पखि चाहीइ तु भमरुलीभर मह तणु विचार पुतली सोहई ए नवनवी तु भ० जाणे रंभाकार थंभे तोरण धोरणी तु भ० कोरणी दीसई सार मूलमंडपि जव आविआ तु भ० मनमोहइ अपार ॥१७॥ त्रिन्नि चउवीसी जिणइ तणी तु भ० मंडप तणइ वितानि तिहअण सोभा संकली तु भ० जाणे इंद्रविमाण पूतली छइतालीस करई तु भ० नितु नाटक रंगरोल जाणे अपछरदेव तु भ० आविय करई टकोल ॥१८॥ पंच वंन सोहामणी तु भ० गूंहली तलगटि चंग तिहां बइसई कुलकामिनी तु भ० गाई जिण गुणरंगि नितु नितु देस विदेस तणा तु भ० आवई संघ अपार स्नात्र महोत्सव नितु करई तु भ० महाधज दीजइं सार ॥१९।। मेघमंडप ऊमाहडउ तु भ० करिवा लोअणसार त्रिहुं भूमे त्रिभुवन तणा तु भ० जाणे इंहि अवतार कोरणी वरणनई नहीं तु भ० पूतली नानाकार नाटक लकुटी रसरमई तु भ० भवियण त्रिन्हइ वार ॥२०॥
भेरि भुंगल नीसाण तणु तु भ० गाजई गुहिरु नाद गुणगाई घणा तु भ० बइसी मधुरइ सादि त्रिणि त्रिणि मण्डप चिहुं दिसइं तु भ० चुमुखि इणि परिवार देवलोक बारइं किसुं तु भ० अवतरिया खाकई वार ॥२१॥
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॥ भाषा ॥ उत्तरदिसई दोइ दीपतां ए माल्हंतडि अष्टापद प्रासाद बीजु कल्याण त्रय तणु ए मा० चुमुखसिं लिइ वाद नालिमंडप मंडावीउ ए मा० सहसकूट गिरिराज प्रतिमां सह सवि पूजतां ए मा० सीझइं भवियण काज ॥२२॥ दक्षिण दिसि नंदीसरू ए मा० सम्मेतसिहर विहार इम इम मंडप बारणइ ए मा० दोइ दोइ मूरति सार हस्त सिद्धि सुहगुरु तणी ए मा० दिनि दिनि धरणविहार वाधइ वंध्याचल समु ए मा० महिमंडलि सिणिगार ॥२३।। विदिसई दो मुख दीपताए मा० महीधर च्यारि विहार पहिलं चंपागर तणु ए अजिय सीमंधरसामि बीजु महादे करेविअ तिहिं संति नेमिकुमार त्रीजइ संघ खंभाइतु ए मा० वेचइं वित्त अपार ॥२४।। थापि पासजिणेसरू ए मा० चउथइ तोल्हिइ साहि वीरजिणंद मंडाविउ ए मा० लीधु लछिर्नु लाह तारणगढ गिरिनारवर मा० थंभण साचुर सामि जाणे ए अवतारिया ए मा० कि पंचतीरथ नामि ॥२५।। ए चिहुं पडिमा अट्ठवर माण तेतीस अंगुल अंग इग इग मंडप बारणइ ए मा० कुलगिरिनीय परिसार छन्नू जिण देहरी तणा ए मा० दीसई सोभ संभार जाणे केलि खडोखली ए मा० तिहुअणजण सुहकार ॥२६।। सोलोत्तरसु मूलजिण मा० मंडप वीस उदार अठसट्ठि अधिकां त्रिणिसई ए मा० चउमुखि चउकी सार सिखरि सहस सात कलसा ए मा० पंनरसई छन्नू थंभ पंचसई चउसठि पूतली ए मा० सोहइं जिम देवरंभ ॥२७॥ चउवीसासु तोरणां ए मा० कोरणीए अभिराम तिहुअणजण सोहामणीय मा० देखीय एहवं ठाम
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________________ सप्टेम्बर 2008 रायराणा मनि चीतवई ए मा० ए किसुं देव काम शास्त्र माहि इम बोलीइ ए मा० त्रिभुवनदीपक नाम // 281 पाष(?छ)लि साल सोहामणु ए मा० कोसीसे सुविसाल जाणे महियलि मंडिउ ए मा० समोसरण चउसाल तिर्हि ऊपरि गजसिंहला ए मा० सोहई चिहुं दिसि पोलि तिहिं आगलि हिव चाहिए ए मा० पावडिया रांउलि // 29 // साठि चतुर्मुख सासताए मा० ते छइ देवहगम्मु तेहजा मलि एकसट्टिमु ए मा० धरणागर अतिरम्मु राणिगपुरि मंडावीउ ए मा० नित नित उच्छव रंग दानव मानव देवता ए मा० पूज रचई नितु चंग // 30 // तवगच्छनायक युगपवर मा० सोमसुंदरसूरि सीस विशालमूरति पण्डित तणा ए मा० सेवित पइ निसिदीस इणपरि भगतई वन्निउ ए मा० ए श्रीय धरणविहार भणतां गुणतां संपजई ए मा० सासइ सुक्ख संभार सुणिसुंदरि // 31 // इतिश्रीधरणविहारचतुर्मुखस्तवः / समाप्तं / शुभं भवतु / / सं० लाखाभा० लीलादे पुत्री श्रा० चांपूपठनार्थं // लिखतं पूज्याराध्य पं० समयसुन्दरगणिशिष्य पं० चरणसुन्दरगणि शिष्य हंसविशालगणिना / / [नोंध : काव्य के अन्तिम पद्य में आनेवाली 'विशालमूरति पण्डित तणा ए, सेक्ति पइ निसिदीस' इस पति से यह रचना श्रीविशालमूर्ति के शिष्यने की हो ऐसा प्रतीत होता है / -शी]