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सप्टेम्बर २००८
प्राप्त नहीं होता है । केवल कृति पद्य ३१ के अनुसार ये श्री सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे । इस रचना को देखते हुए मन्दिर के निर्माण और प्रतिष्ठा में इनकी उपस्थिति हो ऐसा प्रतीत होता है । अतएव कृतिकार का समय १५वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १६वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है । इनकी अन्य कोई कृति भी प्राप्त हो ऐसा दृष्टिगत नहीं होता है।
श्री सोमसुन्दरसूरि का समय इस शताब्दी का स्वर्णयुग और आचार्यश्री को युगपुरुष कहा जा सकता है । तपागच्छ पट्ट-परम्परा के अनुसार श्री देवसुन्दरसूरि के (५० वें) पट्टधर श्रीसोमसुन्दरसूरि हुए । इनका जन्म संवत् १४३०, दीक्षा संवत् १४४७ तथा स्वर्गवास संवत् १४९९ में हुआ था । आचार्यश्री अनेक तीर्थों के उद्धारक, शताधिक मूर्तियों के प्रतिष्ठापक, साहित्य सर्जक और युगप्रवर्तक आचार्य थे । तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ ३९ की टिप्पणी के अनुसार उनके आचार्य शिष्यों की नामावली दी गई है । तदनुसार मुनिसुन्दरसूरि, जयसुन्दरसूरि, भुवनसुन्दरसूरि, जिनसुन्दरसूरि, जिनकीर्तिसूरि, विशालराजसूरि, रत्रशेखरसूरि, उदयनन्दीसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि, सोमदेवसूरि, रत्नमण्डनसूरि, शुभरत्नसूरि, सोमजयसूरि आदि आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ ६५ के अनुसार इनका साधु समुदाय १८०० शिष्यों का था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय के प्रौढ़ एवं दिग्गज आचार्यों में इनकी गणना की जाती थी । श्रीहीरविजयसूरिजी के समय में भी इतने आचार्यों के नाम प्राप्त नहीं होते हैं । साधु समुदाय अधिक हो सकता है । वर्तमान अर्थात् २०वीं शताब्दी के आचार्यों में सूरिसम्राट श्रीविजयनेमिसूरि का नाम लिया जा सकता है । जिनके शिष्यवृन्दों में दशाधिक आचार्य थे। समुदाय की दृष्टि से तुलना नहीं की जा सकती है ! वर्ण्य-विषय
कवि प्रथम पद्य में नाभिनरेश्वरनन्दन को नमस्कार कर राणिगपुर निवासी प्राग्वाट वंशीय धरणागर का नाम लेता है और उनके गुरु तपागच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरि को स्मरण करता है । उनकी देशना को सुनकर संघपति धरणागर ने आचार्य से विनति की कि आपकी आज्ञा हो तो में चतुर्मुख जिन मन्दिर का निर्माण करवाना चाहता हूँ। आचार्य की स्वीकृति प्राप्त होने पर
काव
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