Book Title: Devsur Sangh Samachari
Author(s): Nandighoshsuri
Publisher: Nandighoshsuri

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Page 4
________________ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ में तिथि का इतिहास श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ में विक्रम संवत् 1992 से पूर्व प. पू. आचार्य श्रीविजयहीरसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प. पू. आचार्य श्रीविजयसेनसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प. पू. आचार्य श्रीविजयसिंहसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प. पू. आचार्य श्रीविजयदेवसूरीश्वरजी महाराज के समय से चली आती एक सुविशुद्ध शास्त्रानुसारी परंपरा में बीज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा व अमावास्या की कभी क्षय वृद्धि नहीं की जाती थी किन्तु विक्रम संवत् 1992 में स्व. आचार्य श्रीविजयप्रेमसूरीश्वरजी म. के शिष्य पू. आ. श्रीविजयरामचंद्रसूरिजीने अपने आप उनके गुरु की आज्ञा से विपरीत होकर अपनी मनमानी करके बारह पर्वतिथि की क्षयवृद्धि करने की शुरुआत की । यही परिवर्तन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ के अन्य किसी भी समुदाय को मान्य नहीं था । अर्थात् विक्रम संवत् 1992 से पूर्व श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ समाज में कभी बारह पर्वतिथि का क्षय या वृद्धि नहीं होती थी । अतः बारह पर्वतिथि की क्षयवृद्धि करनेवाला जैन संघ दो तिथिवाले के नाम से प्रसिद्ध हुआ और श्रीविजयदेवसूरसंघ की सामाचारी के अनुसार बारह पर्वतिथी का क्षय या वृद्धि नहीं करनेवाले संघ एकतिथि पक्ष कहलाता है । यही दो तिथिवाले अपनी मान्यता को शास्त्रशुद्ध व शास्त्रानुसारी कहते है और एक तिथि की मान्यता को शास्त्रविरुद्ध कहते हैं और उन सब को महामिथ्यात्वी कहते हैं । यह शब्द एक प्रकार की गाली ही है। साथ ही तीर्थंकर की आज्ञा का भंग करनेवाले कहते हैं । वस्तुतः पूर्वकालीन परंपरानुसार पर्वतिथि की क्षयवृद्धिसिद्धांत नहीं है, सामाचारी है। सिद्धांत त्रिकालाबाधित होता है, उसमें कदापि बदलाव नहीं होता है | वास्तव में तिथि सिद्धांत नहीं है, किन्तु संघ के व्यवहार के लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार उसी काल के विद्वान गीतार्थ आचार्य भगवंतो की सर्वसंमति से निश्चित की गयी एक सामाचारी है । सामाचारी द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार बदलती रहती है । उसमें प्रति सै बदलाव होता रहता है। और वही बदलाव लाने की एक विशिष्ट प्रक्रिया होती है । प्राचीन काल से चली आती सामाचारी में परिवर्तन करने के लिये उसी सामाचारी में मानते सभी आचार्यो का एक संमेलन बुलाया जाता है और उसमें चर्चा करके सर्वसंमति से परिवर्तन का निर्णय लिया जाता है, जो उसी सामाचारी में माननेवाले सभी गच्छ, संप्रदाय व समुदाय के साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका सब उसी के अनुसार पालन करते है । आचार्य श्री रामचंद्रसूरिजी ने उसी प्रक्रिया का भंग करके अपनी मनमानी दो तिथि की अर्थात् पर्व तिथि का क्षय और वृद्धि करने की, जन्म-मरण के सुतक का पालन नहीं करना, चतुर्दशी, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अन्त में संतिकरं स्तोत्र नहीं बोलने की, साथ साथ साधु व आचार्यों का नवांगी गुरुपूजन करवाने की, नयी परंपरा अपने भक्तों द्वारा समग्र श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ में जबरदस्ती से अमल कराने का पिछले कुछेक साल से तुफान का महापाप करते आ रहे हैं । इतना ही नहीं बल्कि अपनी प्रणालि ही सत्य व शास्त्रसिद्ध है ऐसा सिद्ध करने के लिये जिनके पास उन्हों ने शास्त्राभ्यास किया उसी आगमोद्धारक श्री सागरानंदसूरिजी के साथ शास्त्रार्थ करने का नाटक किया । शास्त्रार्थ को नाटक कहने का कारण जानना हो तो उसका इतिहास जानना होगा । शास्त्रार्थ में नियुक्त न्यायाधीश पूजा की प्रसिद्ध भांडारकर ऑरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट के संस्कृत भाषा के विद्वान प्रोफेसर डॉ. पी. एल. वैद्य को नियुक्त किया । सामान्य तौर से शास्त्रार्थ हमेशां जाहिर व मौखिक होता है । उसमें जो उत्तर दे सके उसकी हार मानी जाती है । जब कि आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजीने लेखित शास्त्रार्थ करने को कहा और उसका फैसला बाद में लेखित में देनेका आग्रह रखा । उसी काल में विद्यमान पू. शासनसम्राट आचार्य श्री नेमिसूरिजी महाराज, पू. आचार्य श्री उदयसूरिजी महाराज व पू. आचार्य श्री नंदनसूरिजी महाराजने आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी को लेखित शास्त्रार्थ न करने को समझाया लेकिन उनकी इस सूचना ध्यान पर नहीं ली गयी । इसी शास्त्रार्थ में पू. आचार्य श्री नंदनसूरिजी महाराज की भविष्यवाणी के अनुसार ही आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी ने अनुचित रीति सेअपने पक्ष में न्याय लिया।

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