Book Title: Devsur Sangh Samachari Author(s): Nandighoshsuri Publisher: Nandighoshsuri View full book textPage 5
________________ पू. सागरानंदसूरिजी महाराज बड़े विद्वान थे, शास्त्रार्थ में उनकी हार हो वह कभी संभव ही नहीं था, लेकिन आचार्य श्री रामचंद्रसूरिजी की कूटनीति के कारण ही उनकी हार हुयी थी । अतः दो तिथि की आराधना शास्त्रसिद्ध नहीं है । अतः पू. आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी महाराज ने डॉ. पी. एल. वैद्य के न्याय का स्वीकार नहीं किया । वर्तमान में दो तिथिवाले सभी आचार्य डॉ. पी. एल. वैद्य के न्याय की बात करते हैं लेकिन जो तथ्य है, सत्य है उसको वे प्रसिद्ध नहीं करते हैं । वास्तव में इसी शास्त्रार्थ का न्याय डॉ. पी. एल. वैद्य ने दिया ही नहीं है, लिखा भी नहीं है । किन्तु आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी के पक्ष के पिंडवाडा (राजस्थान) वाले इतिहासवेत्ता पंन्यास श्री कल्याणविजयजी ने ही लिखा है । बाद में पंन्यास श्री कल्याणविजयजी ने मौखिक कबूल भी किया की मैंने आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी का पक्ष लिया वह मेरी गंभीर भूल थी । वर्तमान में श्रीविजयदेवसूरसंघ की सामाचारी में माननेवाले सभी संघ के ट्रस्टी महोदय, व साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका समूह इस इतिहास से अवगत नहीं होने कारण दो तिथिवालों की गलत, तद्दन असत्य बातों को सही मान लेते है । अतः हमें यह जाहिर करने की जरूरत खडी हुयी है । पू. आचार्य श्री नदंनसूरिजी ने आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी को बार बार मौखिक व जाहिर शास्त्रार्थ करने का आह्वान किया लेकिन एक भी बार उन्हों ने उसका स्वीकार किया नहीं था । यह बात पू. आचार्य श्री नंदनसूरिजी ने स्वयं लिखी हुयी तपागच्छीय तिथिप्रणालिका नामक छोटी सी किताब में बतायी है |उसमें उन्हों ने स्पष्ट लिखा है कि यदि मौखिक व जाहिर शास्त्रार्थ करना हो तो मेरे सामने बारह रामचंद्रसूरि आये या बारह सो कल्याणविजय आये, मैं तैयार हैं। रामचंद्रसूरिजी के सभी साधु शास्त्रविरुद्ध और कायदा विरूद्ध प्रवृत्ति करते हैं और अपने को शास्त्र का ठेकेदार कहलाते है । दो तिथिवाले श्रावकों की नीति ऐसी है की मेरा मेरे अपने का और तेरे में मेरा बटवारा । दो तिथिवाले सभी साधु अपना प्राइवेट ट्रस्ट रखते हैं, उनके पक्ष के सभी उपाश्रय प्राइवेट होते है, उसमें अन्य किसीको ठहरने नहीं देते और एक तिथिवाले के सभी उपाश्रय में अपना हक्क जमाते हैं । साथ एक या दो दिन रहने को कहकर आते हैं लेकिन दो तीन मास तक जाते नहीं, इतना ही नहीं एक तिथि पक्ष के साधु-साध्वी को एक तिथि पक्ष के उपाश्रय में भी ठहरने देते नहीं हैं । दो तिथिवाले साधु एक तिथिवाले श्रावक-श्राविका के पास से अपने कार्यों के लिये बहुत से पैसे लेते है किन्तु वे लोग एक तिथि पक्ष के साधु द्वारा आयोजित कार्य में दो तिथि पक्ष के ट्रस्ट या श्रावक-श्राविका एक रूपिया भी खर्च करते नहीं हैं । यदि खर्च करते हैं तो अपनी मनमानी करवाता है । दो तिथिवाले साधु अपने भक्तों को एक तिथिवाले साधु-साध्वी को आहार देना भी मना करते हैं । दो तिथिवाले एक तिथिवाले साधुसाध्वी को साधु-साध्वी मानते ही नहीं है । दो तिथिवाले अपनी तिथिप्रणाली को ही शास्त्रीय कहते हैं किन्तु उनकी यह बात नितांत गलत ही है । उनकी मान्यता है कि सूर्योदय के वख्त जो तिथि होती है वही सही होती है, जब कि एक तिथिवाले की मान्यता में कभी कभी सूर्योदय के समय जो तिथि होती है उससे भिन्न तिथि होती है, अतः वह अशास्त्रीय हैं । किन्तु उनका उदयात् तिथि का सिद्धांत सही मायने में गलत है । समग्र पृथ्वी पर भिन्न भिन्न स्थान पर सूर्योदय भी भिन्न भिन्न समय पर होता है । जब कि तिथि समग्र विश्व में एक साथ शरू होती है और एक साथ पूर्ण होती है । अतः 24 घंटों में भिन्न भिन्न देश में भिन्न समय पर सूर्योदय होता है । क्वचित् एक ही देश में विशाळ अंतर होने की वजह से दो शहर में सूर्योदय के वख्त भिन्न भिन्न तिथि होती है । उसी वक्त दो तिथिवाले समग्र विश्व में उनके पक्षवाले भिन्न भिन्न शहर में भिन्न भिन्न तिथि होने पर भी एक ही तिथि मनाते है, तो उसी वक्त उदयात् तिथि का सिद्धांत कैसे रहता है । अतः उदयात् तिथि का सिद्धांत ही गलत है । उदयात् तिथि का सिद्धांत तो आचार्य श्री रामचंद्रसूरिजी ने खडा किया एक तूत ही है । वह सही भी नहीं है । एक तिथि व दो तिथि क्या है, उसकी सही समझ पाना हो तो तीन चार महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, उसका अवलोकन करना चाहिये । 1. पर्वतिथिनिर्णय लेखकः पंडित मफतलाल झवेरचंद गांधीPage Navigation
1 ... 3 4 5 6