Book Title: Devsur Sangh Samachari
Author(s): Nandighoshsuri
Publisher: Nandighoshsuri
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ।। ।। नमो नमः श्री गुरुनेमिसूरये ।। श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ जैन देरासर पिढी दौलतनगर, बोरीवली (पूर्व), मुंबई-400 066 हस्तक सभी धर्मस्थानकदेरासर, उपाश्रय, आयंबिलशाळा व श्री केशरीयाजीनगर, पालीताणा आदि की व्यवस्था इसके प्रेरक प. पू. शासनसम्राट तपागच्छाधिपति आचार्य भगवंत श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टधर प. पू. कविरत्न पीयूषपाणि आचार्य श्रीविजय अमृतसूरीश्वरजी म. सा. की आज्ञानुसार श्रीविजयदेवसूरसंघ की सुविशुद्ध शास्त्र व परंपरानुसारी सामाचारी अनुसार ही करने का है और उनके हस्तक सभी स्थान उपाश्रय आदि में आनेवाले सभी साधु-साध्वी को निम्नोक्त नियमों का पालन करना आवश्यक है। उसके विरुद्धजाहिर में और खानगी में आचरणा व प्ररूपणा करना मना है । 1. बारह पर्व तिथियों की क्षय वृद्धि करना मना है । 2. श्री विजय देवसूरसंघ सामाचारी में माननेवाले आचार्यों द्वारा संमेलन में किये गये ठराव अनुसार संवत्सरी महापर्व की आराधना करना । 3. नवांगी गुरुपूजन मत कराना । 4. पाक्षिक, चातुर्मासिक व संवत्सरी प्रतिक्रमण के अंत में संतिकरं स्तोत्र का पाठ करना । 1 5. जन्म संबंधी सुतक में सगोत्र जन्म हो, पत्नी अपने मायके में हो और वहाँ कोई जाता न हो तो 12 दिन प्रभुपूजा मत करना । और साधु-साध्वी को आहार पानी वहोराना मत । सामायिक व प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना सुतकवाली स्त्री को व बालक को स्पर्श करते हो तो 42 दिन प्रभुपूजा आदि मत करना । 6. मरण के सुतक में सगोत्र हो तो 12 दिन, सगोत्र न हो और मृतक का स्पर्श किया हो तो 3 दिन और परंपरित स्पर्श हुआ हो तो 24 घंटे तक पूजा मत करना, सामायिक प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना | मृत्यु बारह दिन बाद ही अंतराय कर्म की पूजा, भावयात्रा, पूजन आदि कराना 7. सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के वख्त देरासर मांगलिक रखना । 8. गुरुपूजन का द्रव्य गुरु वैयावच्च में ले जाना । 9. चातुर्मास में सिद्धाचल शत्रुंजय की यात्रा मत करना और करने की प्ररूपणा भी मत करना । भवदीय मेनेजिंग ट्रस्टी श्री श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ जैन देरासर पिढी, दौलतनगर, बोरीवली (पूर्व), बम्बई - 400066 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। श्री कुन्थनाथाय नमः || || नमो नमः श्री गुरुनेमिसूरये ।। श्री कुन्थुनाथ जैन देरासर पिढी, व सान्ताक्रुझ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ,सान्ताक्रुझ, (पश्चिम), मुंबई-400 054 हस्तक सभी धर्मस्थानक - देरासर, उपाश्रय, आयंबिलशाळा आदि की व्यवस्था वि. सं. 1992 के पूर्व प्रस्थापित श्रीविजयदेवसूरसंघ की सुविशुद्ध शास्त्र व परंपरानुसारी सामाचारी अनुसार ही करने का है और उनके हस्तक सभी स्थान उपाश्रय आदि में आनेवाले सभी साधु-साध्वी को निम्नोक्त नियमों का पालन करना आवश्यक है । उसके विरुद्ध जाहिर में और खानगी में आचरणा व प्ररूपणा करना मना है । 1. बारह पर्व तिथियों की क्षय-वृद्धि करना मना है । 2. श्री विजय देवसूरसंघ सामाचारी में माननेवाले आचार्यों द्वारा संमेलन में किये गये ठराव अनुसार संवत्सरी महापर्व की आराधना करना । 3. नवांगी गुरुपूजन मत कराना । 4. पाक्षिक, चातुर्मासिक व संवत्सरी प्रतिक्रमण के अंत में संतिकरं स्तोत्र का पाठ करना । 5. जन्म संबंधी सुतक में सगोत्र जन्म हो, पत्नी अपने मायके में हो और वहाँ कोई जाता न हो तो 12 दिन प्रभुपूजा मत करना । और साधु-साध्वी को आहार-पानी वहोराना मत । सामायिक व प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना । सुतकवाली स्त्री को व बालक को स्पर्श करते हो तो 42 दिन प्रभुपूजा आदि मत करना । मरण के सुतक में सगोत्र हो तो 12 दिन, सगोत्र न हो और मृतक का स्पर्श किया हो तो 3 दिन और परंपरित स्पर्श हुआ हो तो 24 घंटे तक पूजा मत करना, सामायिक प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना । मृत्यु के बारह दिन बाद ही अंतराय कर्म की पूजा, भावयात्रा, पूजन आदि कराना 7. सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के वख्त देरासर मांगलिक रखना । 8. गुरुपूजन का द्रव्य गुरु वैयावच्च में ले जाना । 9. चातुर्मास में सिद्धाचल-शत्रुजय की यात्रा मत करना और करने की प्ररूपणा भी मत करना । भवदीय मेनेजिंग ट्रस्टीश्री श्री कुन्थुनाथ जैन देरासर पिढी व श्री सान्ताक्रुझ श्वे. मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ. सान्ताक्रुझ, (पश्चिम)बम्बई-400054 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। श्री आदिनाथाय नमः || || नमो नमः श्री गुरुनेमिसूरये ।। श्री बोरीवली श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ, बोरीवली (पश्चिम), मुंबई- 400 092 हस्तक सभी धर्मस्थानक - देरासर, उपाश्रय, आयंबिलशाळा आदि की व्यवस्था वि. सं. 1992 के पूर्व प्रस्थापित श्रीविजयदेवसूरसंघ की सुविशुद्ध शास्त्र व परंपरानुसारी सामाचारी अनुसार ही करने का है और उनके हस्तक सभी स्थान उपाश्रय आदि में आनेवाले सभी साधु-साध्वी को निम्नोक्त नियमों का पालन करना आवश्यक है । उस विरुद्ध जाहिर में और खानगी में आचरणा व प्ररूपणा करना मना है । 3 1. बारह पर्व तिथियों की क्षय वृद्धि करना मना है । 2. श्री विजय देवसूरसंघ सामाचारी में माननेवाले आचार्यों द्वारा संमेलन में किये गये ठराव अनुसार संवत्सरी महापर्व की आराधना करना । 3. नवांगी गुरुपूजन मत कराना । 4. पाक्षिक, चातुर्मासिक व संवत्सरी प्रतिक्रमण के अंत में संतिकरं स्तोत्र का पाठ करना । 5. जन्म संबंधी सुतक में सगोत्र जन्म हो, पत्नी अपने मायके में हो और वहाँ कोई जाता न हो तो 12 दिन प्रभुपूजा मत करना। और साधु-साध्वी को आहार पानी वहोराना मत । सामायिक व प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना । सुतकवाली स्त्री को व बालक को स्पर्श करते हो तो 42 दिन प्रभुपूजा आदि मत करना । 6. मरण के सुतक में सगोत्र हो तो 12 दिन, सगोत्र न हो और मृतक का स्पर्श किया हो तो 3 दिन और परंपरित स्पर्श हुआ हो तो 24 घंटे तक पूजा मत करना. सामायिक प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना । मृत्यु के बारह दिन बाद ही अंतराय कर्म की पूजा, भावयात्रा, पूजन आदि कराना 7. सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के वख्त देरासर मांगलिक रखना । 8. गुरुपूजन का द्रव्य गुरु वैयावच्च में ले जाना । 9. चातुर्मास में सिद्धाचल - शत्रुंजय की यात्रा मत करना और करने की प्ररूपणा भी मत करना । भवदीय मेनेजिंग ट्रस्टी श्री श्री बोरीवली श्वे. मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ श्री आदिनाथ जैन देरासर, मंडपेश्वर रोड, बोरीवली (पश्चिम) बम्बई - 400092 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ में तिथि का इतिहास श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ में विक्रम संवत् 1992 से पूर्व प. पू. आचार्य श्रीविजयहीरसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प. पू. आचार्य श्रीविजयसेनसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प. पू. आचार्य श्रीविजयसिंहसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प. पू. आचार्य श्रीविजयदेवसूरीश्वरजी महाराज के समय से चली आती एक सुविशुद्ध शास्त्रानुसारी परंपरा में बीज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा व अमावास्या की कभी क्षय वृद्धि नहीं की जाती थी किन्तु विक्रम संवत् 1992 में स्व. आचार्य श्रीविजयप्रेमसूरीश्वरजी म. के शिष्य पू. आ. श्रीविजयरामचंद्रसूरिजीने अपने आप उनके गुरु की आज्ञा से विपरीत होकर अपनी मनमानी करके बारह पर्वतिथि की क्षयवृद्धि करने की शुरुआत की । यही परिवर्तन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ के अन्य किसी भी समुदाय को मान्य नहीं था । अर्थात् विक्रम संवत् 1992 से पूर्व श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ समाज में कभी बारह पर्वतिथि का क्षय या वृद्धि नहीं होती थी । अतः बारह पर्वतिथि की क्षयवृद्धि करनेवाला जैन संघ दो तिथिवाले के नाम से प्रसिद्ध हुआ और श्रीविजयदेवसूरसंघ की सामाचारी के अनुसार बारह पर्वतिथी का क्षय या वृद्धि नहीं करनेवाले संघ एकतिथि पक्ष कहलाता है । यही दो तिथिवाले अपनी मान्यता को शास्त्रशुद्ध व शास्त्रानुसारी कहते है और एक तिथि की मान्यता को शास्त्रविरुद्ध कहते हैं और उन सब को महामिथ्यात्वी कहते हैं । यह शब्द एक प्रकार की गाली ही है। साथ ही तीर्थंकर की आज्ञा का भंग करनेवाले कहते हैं । वस्तुतः पूर्वकालीन परंपरानुसार पर्वतिथि की क्षयवृद्धिसिद्धांत नहीं है, सामाचारी है। सिद्धांत त्रिकालाबाधित होता है, उसमें कदापि बदलाव नहीं होता है | वास्तव में तिथि सिद्धांत नहीं है, किन्तु संघ के व्यवहार के लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार उसी काल के विद्वान गीतार्थ आचार्य भगवंतो की सर्वसंमति से निश्चित की गयी एक सामाचारी है । सामाचारी द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार बदलती रहती है । उसमें प्रति सै बदलाव होता रहता है। और वही बदलाव लाने की एक विशिष्ट प्रक्रिया होती है । प्राचीन काल से चली आती सामाचारी में परिवर्तन करने के लिये उसी सामाचारी में मानते सभी आचार्यो का एक संमेलन बुलाया जाता है और उसमें चर्चा करके सर्वसंमति से परिवर्तन का निर्णय लिया जाता है, जो उसी सामाचारी में माननेवाले सभी गच्छ, संप्रदाय व समुदाय के साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका सब उसी के अनुसार पालन करते है । आचार्य श्री रामचंद्रसूरिजी ने उसी प्रक्रिया का भंग करके अपनी मनमानी दो तिथि की अर्थात् पर्व तिथि का क्षय और वृद्धि करने की, जन्म-मरण के सुतक का पालन नहीं करना, चतुर्दशी, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अन्त में संतिकरं स्तोत्र नहीं बोलने की, साथ साथ साधु व आचार्यों का नवांगी गुरुपूजन करवाने की, नयी परंपरा अपने भक्तों द्वारा समग्र श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ में जबरदस्ती से अमल कराने का पिछले कुछेक साल से तुफान का महापाप करते आ रहे हैं । इतना ही नहीं बल्कि अपनी प्रणालि ही सत्य व शास्त्रसिद्ध है ऐसा सिद्ध करने के लिये जिनके पास उन्हों ने शास्त्राभ्यास किया उसी आगमोद्धारक श्री सागरानंदसूरिजी के साथ शास्त्रार्थ करने का नाटक किया । शास्त्रार्थ को नाटक कहने का कारण जानना हो तो उसका इतिहास जानना होगा । शास्त्रार्थ में नियुक्त न्यायाधीश पूजा की प्रसिद्ध भांडारकर ऑरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट के संस्कृत भाषा के विद्वान प्रोफेसर डॉ. पी. एल. वैद्य को नियुक्त किया । सामान्य तौर से शास्त्रार्थ हमेशां जाहिर व मौखिक होता है । उसमें जो उत्तर दे सके उसकी हार मानी जाती है । जब कि आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजीने लेखित शास्त्रार्थ करने को कहा और उसका फैसला बाद में लेखित में देनेका आग्रह रखा । उसी काल में विद्यमान पू. शासनसम्राट आचार्य श्री नेमिसूरिजी महाराज, पू. आचार्य श्री उदयसूरिजी महाराज व पू. आचार्य श्री नंदनसूरिजी महाराजने आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी को लेखित शास्त्रार्थ न करने को समझाया लेकिन उनकी इस सूचना ध्यान पर नहीं ली गयी । इसी शास्त्रार्थ में पू. आचार्य श्री नंदनसूरिजी महाराज की भविष्यवाणी के अनुसार ही आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी ने अनुचित रीति सेअपने पक्ष में न्याय लिया। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. सागरानंदसूरिजी महाराज बड़े विद्वान थे, शास्त्रार्थ में उनकी हार हो वह कभी संभव ही नहीं था, लेकिन आचार्य श्री रामचंद्रसूरिजी की कूटनीति के कारण ही उनकी हार हुयी थी । अतः दो तिथि की आराधना शास्त्रसिद्ध नहीं है । अतः पू. आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी महाराज ने डॉ. पी. एल. वैद्य के न्याय का स्वीकार नहीं किया । वर्तमान में दो तिथिवाले सभी आचार्य डॉ. पी. एल. वैद्य के न्याय की बात करते हैं लेकिन जो तथ्य है, सत्य है उसको वे प्रसिद्ध नहीं करते हैं । वास्तव में इसी शास्त्रार्थ का न्याय डॉ. पी. एल. वैद्य ने दिया ही नहीं है, लिखा भी नहीं है । किन्तु आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी के पक्ष के पिंडवाडा (राजस्थान) वाले इतिहासवेत्ता पंन्यास श्री कल्याणविजयजी ने ही लिखा है । बाद में पंन्यास श्री कल्याणविजयजी ने मौखिक कबूल भी किया की मैंने आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी का पक्ष लिया वह मेरी गंभीर भूल थी । वर्तमान में श्रीविजयदेवसूरसंघ की सामाचारी में माननेवाले सभी संघ के ट्रस्टी महोदय, व साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका समूह इस इतिहास से अवगत नहीं होने कारण दो तिथिवालों की गलत, तद्दन असत्य बातों को सही मान लेते है । अतः हमें यह जाहिर करने की जरूरत खडी हुयी है । पू. आचार्य श्री नदंनसूरिजी ने आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी को बार बार मौखिक व जाहिर शास्त्रार्थ करने का आह्वान किया लेकिन एक भी बार उन्हों ने उसका स्वीकार किया नहीं था । यह बात पू. आचार्य श्री नंदनसूरिजी ने स्वयं लिखी हुयी तपागच्छीय तिथिप्रणालिका नामक छोटी सी किताब में बतायी है |उसमें उन्हों ने स्पष्ट लिखा है कि यदि मौखिक व जाहिर शास्त्रार्थ करना हो तो मेरे सामने बारह रामचंद्रसूरि आये या बारह सो कल्याणविजय आये, मैं तैयार हैं। रामचंद्रसूरिजी के सभी साधु शास्त्रविरुद्ध और कायदा विरूद्ध प्रवृत्ति करते हैं और अपने को शास्त्र का ठेकेदार कहलाते है । दो तिथिवाले श्रावकों की नीति ऐसी है की मेरा मेरे अपने का और तेरे में मेरा बटवारा । दो तिथिवाले सभी साधु अपना प्राइवेट ट्रस्ट रखते हैं, उनके पक्ष के सभी उपाश्रय प्राइवेट होते है, उसमें अन्य किसीको ठहरने नहीं देते और एक तिथिवाले के सभी उपाश्रय में अपना हक्क जमाते हैं । साथ एक या दो दिन रहने को कहकर आते हैं लेकिन दो तीन मास तक जाते नहीं, इतना ही नहीं एक तिथि पक्ष के साधु-साध्वी को एक तिथि पक्ष के उपाश्रय में भी ठहरने देते नहीं हैं । दो तिथिवाले साधु एक तिथिवाले श्रावक-श्राविका के पास से अपने कार्यों के लिये बहुत से पैसे लेते है किन्तु वे लोग एक तिथि पक्ष के साधु द्वारा आयोजित कार्य में दो तिथि पक्ष के ट्रस्ट या श्रावक-श्राविका एक रूपिया भी खर्च करते नहीं हैं । यदि खर्च करते हैं तो अपनी मनमानी करवाता है । दो तिथिवाले साधु अपने भक्तों को एक तिथिवाले साधु-साध्वी को आहार देना भी मना करते हैं । दो तिथिवाले एक तिथिवाले साधुसाध्वी को साधु-साध्वी मानते ही नहीं है । दो तिथिवाले अपनी तिथिप्रणाली को ही शास्त्रीय कहते हैं किन्तु उनकी यह बात नितांत गलत ही है । उनकी मान्यता है कि सूर्योदय के वख्त जो तिथि होती है वही सही होती है, जब कि एक तिथिवाले की मान्यता में कभी कभी सूर्योदय के समय जो तिथि होती है उससे भिन्न तिथि होती है, अतः वह अशास्त्रीय हैं । किन्तु उनका उदयात् तिथि का सिद्धांत सही मायने में गलत है । समग्र पृथ्वी पर भिन्न भिन्न स्थान पर सूर्योदय भी भिन्न भिन्न समय पर होता है । जब कि तिथि समग्र विश्व में एक साथ शरू होती है और एक साथ पूर्ण होती है । अतः 24 घंटों में भिन्न भिन्न देश में भिन्न समय पर सूर्योदय होता है । क्वचित् एक ही देश में विशाळ अंतर होने की वजह से दो शहर में सूर्योदय के वख्त भिन्न भिन्न तिथि होती है । उसी वक्त दो तिथिवाले समग्र विश्व में उनके पक्षवाले भिन्न भिन्न शहर में भिन्न भिन्न तिथि होने पर भी एक ही तिथि मनाते है, तो उसी वक्त उदयात् तिथि का सिद्धांत कैसे रहता है । अतः उदयात् तिथि का सिद्धांत ही गलत है । उदयात् तिथि का सिद्धांत तो आचार्य श्री रामचंद्रसूरिजी ने खडा किया एक तूत ही है । वह सही भी नहीं है । एक तिथि व दो तिथि क्या है, उसकी सही समझ पाना हो तो तीन चार महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, उसका अवलोकन करना चाहिये । 1. पर्वतिथिनिर्णय लेखकः पंडित मफतलाल झवेरचंद गांधी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. तपागच्छीय तिथिप्रणालिका लेखकः पू. आचार्य श्रीविजयनंदनसूरिजी 3. आचार्य श्रीविजयनंदनसूरि स्मारक ग्रंथ संपादकः श्री रतिलाल दीपचंद देसाई 4. आचार्य श्रीविजयनंदनसूरिजी लेखकः मुनि श्रीशीलचंद्रविजयजी (हाल आचार्य) उसके अलावा आचार्य श्रीरामचंद्रसूरिजी द्वारा आचरित कूटनीति. माया-कपट, प्रपंच को जानने के लिये शासनकंटकोद्धारक आचार्य श्री हंससागरसूरिजी के ग्रंथों का अवलोकन कर लेना / श्री विजयदेवसूरसंघ सामाचारी में माननेवाले सभी तपागच्छीय साधु-साध्वी समुदाय, श्रावक-श्राविका समुदाय सब निम्नोक्त नियमों का पालन करीब 350-400 साल से अर्थात् आचार्य श्रीविजयदेवसूरीश्वरजी महाराज के काल से करते आ रहे हैं / केवल दो तिथिवाला ये नया आचार्य श्री रामचंद्रसूरिजी का समुदाय व उसे माननेवाले साधु-साध्वी व श्रावक-श्राविका उससे विपरीत आचरण करते हैं / श्रीदेवसूरसंघसामाचारी के नियम निम्न प्रकार से हैं / 1. बारह पर्व तिथियों की क्षय-वृद्धि करना मना है। 2. श्री विजय देवसूरसंघ सामाचारी में माननेवाले आचार्यों द्वारा संमेलन में किये गये ठराव अनुसार संवत्सरी महापर्व की आराधना करना / 3. नवांगी गुरुपूजन मत कराना 4. पाक्षिक, चातुर्मासिक व संवत्सरी प्रतिक्रमण के अंत में संतिकरं स्तोत्र का पाठ करना / 5. जन्म संबंधी सुतक में सगोत्र जन्म हो, पत्नी अपने मायके में हो और वहाँ कोई जाता न हो तो 12 दिन प्रभुपूजा मत करना / और साधु-साध्वी को आहार-पानी वहोराना मत / सामायिक व प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना / सुतकवाली स्त्री को व बालक को स्पर्श करते हो तो 42 दिन प्रभुपूजा आदि मत करना / 6. मरण के सुतक में सगोत्र हो तो 12 दिन, सगोत्र न हो और मृतक का स्पर्श किया हो तो 3 दिन और परंपरित स्पर्श हुआ हो तो 24 घंटे तक पूजा मत करना, सामायिक प्रतिक्रमण में सूत्र जोर से मत बोलना / मृत्यु के बारह दिन बाद ही अंतराय कर्म की पूजा, भावयात्रा, पूजन आदि कराना 7. सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के वख्त देरासर मांगलिक रखना / 8. गुरुपूजन का द्रव्य गुरु वैयावच्च में ले जाना / 9. चातुर्मास में सिद्धाचल-शत्रुजय की यात्रा मत करना और करने की प्ररूपणा भी मत करना /