________________ जैन दर्शनः तत्त्व मीमांसा तपस्या पुण्य कर्म साधना से ज्ञान की उपलब्धि होती है / आत्मा के साक्षात्कार से ज्ञान और फिर अमृतत्व की प्राप्ति निश्चित है / आत्म ज्ञानी शोक पार कर लेता है। "तरति शोकमात्मवित्।" उसका अनुभव करके मृत्यु के मुख से छुट जाता है / आत्मा का साक्षात् करके सारे संशय कट जाते हैं ।“छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।"जीव कर्म से बन्धन में पड़ता है और ज्ञान से मुक्त हो जाता है / सन्त-ऋषि-मुनि- श्रमण आसक्ति को छोड़ कर शरीर-मन-बुद्धि और इन्द्रियों से अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं / ज्ञान-उपार्जन के हेतु भिक्षु को मुक्ति प्राप्ति के निमित्त चित्त की शुद्धि करनी चाहिए / जब तक अन्त:करण वासना रहित नहीं होता- आत्म ज्ञान नहीं पा सकता / शुभ कर्मों का आचरण, सत्पुरुषों की संगति,मधुर वाणी बोलना, समस्त प्राणियों को आत्मदृष्टि से देखना, परिग्रह का त्याग, विषयों से इन्द्रियों को मोड़ना, मनोनिग्रह आदि से अन्त:करण पवित्र होता है और मोक्ष-कैवल्य का द्वार खुल जाता है / चित्त के शुद्ध निर्मल हो जाने पर ही यतिजन, मुनिजन आत्मस्वरूप को देखते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव का जन्म ग्रहण करना ही बन्धन है / अज्ञान के कारण जीव जन्म ग्रहण करता है / संसार के दुःखों को भोगता रहता है। ज्ञान से बन्धन कट जाता है और जीव मुक्त हो जाता है। कहा भी है-"अज्ञानमेव बन्धन हेतुः" "ज्ञानमेव मोक्ष हेतुः" बन्धन और मोक्ष-अन्धकार एवं प्रकाश के समान हैं / जीव चेतन द्रव्य है-"चेतना लक्षणो . जीवः।" वैसे जीव अनन्तदर्शन,अनन्तज्ञान,अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि से युक्त है, परन्तु उस के सामने काम ,क्रोध, लोभ, मोह आदि बाधाएँ हैं, जिनके कारण वह अपने स्वरूप को भूलकर कष्ट अनुभव करता है,भोगता है / जैनों के अनुसार शरीर का निर्माण पुद्गलों के द्वारा हुआ है / किसी विशेष शरीर के लिए विशेष पुद्गल की आवश्यकता होती है / जीव प्राचीन संस्कार के कारण वर्तमान शरीर धारण करता है। जैसे पुराने विचार-कर्म होते हैं, उन के अनुसार जीवन धारण करना पड़ता है / अतृप्त वासनाओं की तृप्ति के लिए शरीर धारण करना पड़ता है / वासनाएँ पुद्गल को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं / कुप्रवृत्तियों को जैन धर्म में कषाय कहा गया है / कषाय मनुष्य को बुराई की ओर ले जाते हैं / कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ / क्रोध- से मोह उत्पन्न होता है / मोह से स्मरण नाश होता है / स्मरण नाश से व्यक्ति का नाश होता है। मान- के वश में हो कर जीव अनिष्ट करना चाहता है / माया- यह एक भ्रम है / इससे यथार्थ ज्ञान नष्ट हो जाता है / लोभ- पाप का कारण है / यह विवेक पर पर्दा डालता है / अज्ञान को इसलिए दूर करना आवश्यक है क्योंकि वह बन्धन में सहायक है / इसलिए सम्यक् ज्ञान को अपनाना चाहिए / इस के साथ- साथ सम्यक् चरित्र भी आवश्यक है / केवल ज्ञान ही नहीं चरित्र भी आवश्यक है-तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा रखकर उन के बताए मार्ग पर चल कर ही हम वास्तविक ज्ञान के अधिकारी हो सकते हैं। Xxxvii