Book Title: Darshan aur Vigyan ke Pariprekshya me Pudgal Author(s): Anandrushi Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 7
________________ दर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में पुद्गल : एक विश्लेषणात्मक विवेचम ३६७० परमाणु का लाक्षणिक स्वरूप ऊपर बताया गया है। उसका संक्षिप्त आशय यह है कि सब द्रव्यों में जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अनुत्तर न हो, परम अत्यन्त अणुत्व हो उसे परमाणु कहते हैं। परमाणु दो प्रकार का है-कार्य परमाणु और कारण परमाणु । स्कन्ध के विघटन से उत्पन्न होने वाला कार्य परमाणु है और जिन परमाणुओं के मिलने से कोई स्कन्ध का निर्माण हो, बने उन्हें कारण परमाणु कहते हैं। अथवा परमाणु के चार प्रकार हैं-द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु, भाव परमाणु । जिन्हें आधुनिक विज्ञान की भाषा में क्रमशः पदार्थ, स्थान, काल (समय) और शक्ति या गुणवत्ता की इकाई के नाम से कहा जा सकता है। भाव परमाणु के चार भेद हैं-वर्ण गुण, गन्ध गुण, रस गुण, स्पर्श गुण । इनके उपभेद सोलह हैं । जो इस प्रकार है (१-५) एक गुण वर्ण क्रमशः कृष्ण, नील, लाल, पीत, श्वेत (६-७) एक गुण दुर्गन्ध एक गुण सुगन्ध, (८-१२) एक गुण रस क्रमशः तिक्त, मधुर, कटुक, कषाय और अम्ल, (१३-१६) एक गुण उष्ण, एक गुण शीत, एक गुण रूक्ष, एक गुण स्निग्ध । तात्पर्य यह है कि परमाणु वर्ण गन्ध रस स्पर्शबान है और ऐसा होना पुद्गल का स्वभाव है।। परमाणु में वर्ण, गन्ध आदि होने की व्यवस्था इस प्रकार है-पूर्वोक्त पाँच प्रकार के वर्गों में से कोई एक वर्ण दो गंधों में से कोई एक गंध, पांच रसों में से कोई एक रस और चार स्पर्शों में दो स्पर्श होते हैं-स्निग्ध-रूक्ष में से एक और शीत या उष्ण में से एक। परमाणु की परिभाषा टीकाकारों ने इस प्रकार की है कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एक रस-गंध-वर्णो-द्वि-स्पर्शः कार्यलिंगश्च ।। अर्थात् परमाणु स्कन्ध पुद्गलों के निर्माण का अन्त्य कारण है । यानी वह स्कन्ध मात्र में उपादान है । वह सूक्ष्मतम है । अतः भूत, वर्तमान और अनागत काल में था, है और रहेगा वह एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श युक्त है और कार्यलिंग है । कार्यलिंग का तात्पर्य यह है कि वह परमाणु नेत्रों या अन्य किसी वैज्ञानिक उपकरणों साधनोंसूक्ष्म-वीक्षण यन्त्र आदि से दीखता नहीं है किन्तु सामूहिक क्रिया-कलाप एवं तज्जन्य कार्य से उसका अस्तित्व माना जाता है । उसके स्वरूप को केवलज्ञानी या परम अवधिज्ञानी ही जानते और देखते हैं। परमाणु-परमाणु के बीच ऐसी कोई भेद-रेखा नहीं है कि एक परमाणु दूसरे परमाणु रूप न हो सके । कोई भी परमाणु कालान्तर में किसी भी परमाणु के सदृश-विसदृश हो सकता है । आधुनिक विज्ञान की भी यही मान्यता हो गई है । वर्ण, गन्ध आदि गुणों से सब परमाणु सदृश नहीं रहते हैं । उनके गुणों में परिवर्तन होते रहने अथवा गुणों की तरतमता से परमाणु के अनन्त भेद हो जाते हैं । जैसे कि विश्व में जितने कृष्ण वर्ण परमाणु हैं, वे सब समान अंशों में काले नहीं हैं । एक परमाणु एक गुणांश वाला है तो दूसरा दो गुणांश वाला । गन्ध, रस, स्पर्श आदि को लेकर भी इसी प्रकार एक से अनन्त गुणांश पर्यन्त अन्तर रहता है और यह गुणांशान्तर शाश्वत नहीं है, उसमें परिवर्तन होता रहता है। यहाँ तक कि एक गुण रूक्ष परमाणु कालान्तर में अनन्त गुण रूक्ष हो सकता है तथा अनन्त गुण रूक्ष परमाणु एक गुण वाला। परमाणु की इस परिणमनशीलता के लिए शास्त्रों में षड्गुणी-हानिवृद्धि शब्द का उपयोग किया है और यह हानि-वृद्धि स्वाभाविक होती है। परमाणु जड़, अचेतन होता हुआ भी गतिधर्म वाला है । उसकी गति अन्य पुद्गल प्रेरित भी होती है और अप्रेरित भी। वह सर्वदा गतिमान रहता हो, गति करता रहता हो, ऐसी भी बात नहीं है, किन्तु कभी करता है और कभी नहीं करता है । यह अगतिमान निष्क्रिय परमाणु कब गति करेगा, यह अनिश्चित है, इसी प्रकार सक्रिय परमाणु कब गति और क्रिया बन्द कर देगा, यह भी अनियत है । वह एक समय से लेकर आवली के असंख्यातवें भाग समय में किसी समय भी गति व क्रिया बन्द कर सकता है किन्तु आवली के असंख्यात भाग उपरान्त वह निश्चित ही गति व क्रिया प्रारम्भ करेगा। परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में होती है । गति में वक्रता तभी आती है, जब अन्य पुद्गल का सहकार होता है। परमाणु अपनी तीव्रतम उत्कृष्ट गति से एक समय में चौदह राजू प्रमाण ऊँचे लोक के पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त, उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त तथा अघोचरमान्त से ऊर्ध्व-चरमान्त तक पहुंच सकता है । इसी प्रकार परमाणु की तीव्रतम गति के समान अल्पतम गति के लिए शास्त्रों में बताया है कि वह कम से कम गति करता हुआ एक समय में आकाश के एक प्रदेश से अपने निकटवर्ती दूसरे प्रदेश में जा सकता है। यह प्रदेश भी उतना ही छोटा है, जितना कि एक परमाणु । अर्थात् प्रदेश उसे कहते हैं जितने स्थान को एक परमाणु अपने अवस्थान द्वारा रोकता है। CIR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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