Book Title: Darshan aur Vigyan ke Pariprekshya me Pudgal
Author(s): Anandrushi
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 14
________________ 6 .374 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्य खण्ड का और विज्ञान जगत के मूल उपादानों के अन्वेषण की ओर उन्मुख रहे हैं / प्रयोगशालाओं के बिना भी दार्शनिकों ने जो चिन्तन किया और उसके निष्कर्ष रूप में जो सिद्धान्त स्थापित किये, वे आज के उन विद्वान माने जाने वाले व्यक्तियों को चुनौती दे रहे हैं जो यह मानते थे कि अणुविज्ञान आधुनिक विज्ञान की देन है / दार्शनिक जगत के अणु का कल्पनाओं से प्रादुर्भाव हुआ था। जैनदर्शन में आध्यात्मिक चिन्तन जिस सीमा तक पहुँचा हुआ है, उसी तरह पदार्थ चिन्तन भी। जिसका पूर्ण विश्लेषण समय और श्रम साध्य है / पृष्ठ मर्यादा के कारण प्रस्तुत निबन्ध में पुद्गल, स्कन्ध, परमाणु का सूचना रूप में ऊपरी तौर पर विहंगावलोकन किया है। प्रतिपाद्य विषय के बहुत से आयामों का स्पर्श भी नहीं किया गया है। लेकिन इसे महासागर में से एक बूंद को ग्रहण करने के लिए किये गये चंचुपात की तरह मानकर विशेष जानकारी की ओर जिज्ञासुजन अग्रसर होंगे, यही आकांक्षा है। ----पुष्क र वाणी -0--0--0--0--00--0-0-0--0-0-0--0--0-0-0--0-0--2 स्थितप्रज्ञता एवं इन्द्रिय-संयम के लिए शास्त्रों में कछुआ का उदाहरण बार-बार दिया जाता है / कछुआ जब भी बाहर खतरा देखता है, अपने अंगोंहाथ-पैर का संकोच कर सिमट कर गेंदनुमा बन जाता है और बाहरी खतरे से अपनी रक्षा कर लेता है। उसमें वृत्ति-संकोच एवं स्थिरता गजब की है। मनुष्य को उससे शिक्षा लेनी है, जब भी इन्द्रियाँ, बहिर्मुख बनें और मन / पर बुरे विचारों का आक्रमण हो तो तुरन्त अपनी वृत्तियों को भीतर की ओर खींच लें, अन्तर्मुख बन जाय और आत्मचिंतन में स्थिर हो जाय। ऊंचा पद पाना अलग बात है और उच्च विचार होना अलग बात है। कहते हैं गीध की दृष्टि बड़ी तेज होती है, और उड़ान भी बहुत ऊँची लगाता 6 है, किन्तु उसकी दृष्टि सदा मांस के टुकड़े ही खोजती रहती है और गन्दे 1 स्थानों पर शीघ्र जाने के लिए ही बह ऊँची उड़ानें भरता है। जो मनुष्य ऊंचा पद, शक्ति, सत्ता और वैभव पाकर भी यदि सदा दुष्ट विचार रखता है, दूसरों की वस्तुओं पर ललचाता है और उसे हड़पने के प्रयत्न 6 में रहता है तो उसमें और गीध में क्या अन्तर है ? t-o-o---------------------------0-0-0-पुष्क र वाणी-0-0-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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