Book Title: Darshan aur Vigyan ke Pariprekshya me Pudgal
Author(s): Anandrushi
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
जैनदर्शन में परमाणु की व्याख्या करते हुए अनेक बातों विशेषताओं का विश्लेषण करते हुए कहा है कि परमाणु पुद्गल अविभाज्य, अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य है। उसकी गति अप्रतिहत है । वह अनघं, अमध्य, अप्रदेशी है आदि और डेमोक्रेट्स ने भी परमाणु की जो परिभाषा बताई है उसमें कहा गया है— परमाणु अच्छे अमेय और अविनाशी है। वे पूर्ण हैं और ताजे (नये) है, जैसे कि संसार की आदि में थे।
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उक्त दोनों व्याख्याओं में कुछ समानता है और भावाभिव्यक्ति के लिये शाब्दिक प्रयोग भी समान हैं लेकिन डेमोक्रेट्स का माना गया अच्छेद्य, अमेच परमाणु आज खंडित हो चुका है। उसमें पहले इलेक्ट्रोन और प्रोटोन का पता चला और विकास विश्लेषण के साथ अब प्रोटोन भी एक शाश्वत इकाई नहीं रहा । उसमें से न्यूट्रोन और पोजीट्रोन जैसे कण एक इकाई के रूप में निकल पड़े हैं। इसी तरह की प्रक्रिया आगे भी चालू हैं, जिससे यह दावा नहीं किया जा सकता है कि वास्तव में परमाणु किसे कहा जाये ? चरम परम कौन है ?
विज्ञान मान्य परमाणु के अन्दर जितने भी कण हैं, वे जैनदर्शन की परिभाषा के अनुसार परमाणु कहलाने की क्षमता वाले नहीं है, उन्हें परमाणु नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि उसके अनुसार तो वे आज तक खोजे गये सूक्ष्म कण असंख्य और अनन्त प्रदेशात्मक हैं। जिससे उन्हें परमाणु की बजाय स्कन्ध कहना चाहिये। यह केवल एक कल्पना की बात है कि अब इलेक्ट्रोन आदि कणों के विखंडित होने की संभावना नहीं है। यही बात पहले अणु को लेकर भी कही जाती थी, लेकिन उसे भी स्वयं वैज्ञानिकों ने खंडित करके अपने निर्णय को बदल दिया। इस प्रक्रिया का परिणाम, यह अवश्य हुआ कि प्रकृति ने अपने रहस्य को मनुष्य के समक्ष आंशिक रूप में उद्घाटित किया है, लेकिन भविष्य में क्या रूप बनेगा ? प्रकृति अपने अन्तर में न जाने कैसे-कैसे रहस्य छिपाये हुए हैं ? यह अभी नहीं कहा जा सकता है। अतीन्द्रिय प्रेक्षकों ने जिस परमाणु का दर्शन कराया है, वहाँ तक मनुष्य अपनी क्षमता से पहुँच सकेगा, यह संभव नहीं है ।
विज्ञान मान्य स्कन्ध की परिभाषा
जैनदर्शन मान्य स्कन्ध की परिभाषा को पूर्व में बताया गया है कि दो से लेकर यावत् अनन्त परमाणुओं का एकीभाव स्कन्ध है । यह स्कन्ध विभिन्न परमाणुओं के एक, संघातित होने से बनता है, वैसे ही विविध स्कन्धों का एक होना व एक स्कन्ध का एक से अधिक खंडों में परमाणु रूप इकाई न आने तक टूटने का परिणाम मी एक स्वतन्त्र स्कन्ध है ।
दर्शन की तरह विज्ञान में भी स्कंध की चर्चा है । वहाँ बताया गया है कि पदार्थ स्कन्धों से निर्मित है । वे स्कन्ध गैस आदि पदार्थों में बहुत तीव्रता से सभी दिशाओं में गति करते हैं। सिद्धान्ततः स्कन्ध वह है कि एक चाक का टुकड़ा जिसके दो टुकड़े किये जायें और फिर दो के चार, इसी क्रम से असंख्य तक करते जायें जब तक कि वह चाक चाक के रूप में रहे तो उसका वह सूक्ष्मतम विभाग स्कन्ध कहलायेगा । इसका कारण यह है कि किसी भी पदार्थ के हम टुकड़े करते जायेंगे तो एक रेखा ऐसी आ जायेगी, जहाँ से वह पदार्थ अपनी मौलिकता खोये बिना नहीं टूट सकेगा अतः उस पदार्थ का मूल रूप स्थिर रखते हुए उसका जो अन्तिम टुकड़ा है, वह एक स्कन्ध है ।
जैनदर्शन और विज्ञान कृत स्कन्ध की व्याख्या में कुछ समानता है तो कुछ असमानता भी है। जैनदर्शन ने पदार्थ की एक इकाई को एक स्कन्ध माना है। जैसे घड़ा, मेज, कुर्सी आदि । घड़े के दो टुकड़े हो गये तो दो स्कन्ध, इसी तरह दस, बीस आदि हजार टुकड़े हो जायें तो वे सब स्कन्ध ही हैं। यदि उसको पीसकर चूर्ण कर लिया तो एक एक कण एक-एक स्कन्ध है । जबकि विज्ञान में पदार्थ का मूल रूप स्थिर रखते हुए उसका अन्तिम टुकड़ा यानी एक
ही स्कन्ध है, जिसे यदि फिर तोड़ा जाये तो वह अपने रूप को खोकर अन्य पदार्थ जाति में परिणत हो जायेगा । जैनदर्शन की दृष्टि से वह अन्तिम अणु स्कन्ध तो है ही किन्तु पदार्थ स्वरूप के बदलने की अपेक्षा न रखते हुए वह जब तक तोड़ा जा सकता है अर्थात् जब तक परमाणु के रूप में परिणत नहीं हो जाता तब तक वह स्कन्ध है और उसके सह धर्मी जितने भी टुकड़े हैं, वे भी स्कन्ध हैं। परमाणु रूप अवस्था को प्राप्त होने के पूर्व तक पदार्थ के सभी अंश स्कन्ध कहलायेंगे ।
विज्ञान की स्कन्ध निर्माण प्रक्रिया
जैनदर्शन में स्कन्ध निर्माण की प्रक्रिया का एक ही सिद्धांत कि अनेक परमाणु परस्पर मिलकर जो एक इकाई बनते हैं, उसका हेतु उन परमाणुओं का स्निग्धत्व व रूक्षत्व स्वभाव है । जघन्य गुण यानी एक अंश वाले स्निग्ध व रूक्ष परमाणु तो अवश्य ही संश्लिष्ट होकर स्कन्ध नहीं बनते हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त दो आदि यावत् अनन्त गुणांशों वाले समान या असमान परमाणु संश्लिष्ट होने से स्कन्ध रूप हो जाते हैं । इस प्रकार जैसे जैनदर्शन में
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