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मनुष्य, तिर्यंच और नरक के जीवों के छह एवं स्थावर में चार पर्याप्तियाँ होती हैं ॥३०॥ विगले पंच पज्जत्ती, छद्दिसिआहार होई सव्वेसि; । पणगाइ-पये भयणा, अह सन्नि तियं भणिस्सामि ॥ ३१ ॥
गाथार्थ : विकलेन्द्रिय जीवों में 5 पर्याप्तियाँ होती हैं। सभी जीवों को छह दिशाओं से आहार होता है। परंतु पनक आदि पदों में भजना होती है। अब तीन संज्ञ चउविहसुरतिरिएसु, निरएसु अ दीहकालिगी सन्ना; । विगले हेउवएसा, सन्नारहिया थिरा सव्वे ॥ ३२ ॥
गाथार्थ : चार प्रकार के देवता, तिर्यंच तथा नारकों को दीर्धकालिकी संज्ञा होती है । विकलेन्द्रिय जीवों में हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा होती हैं और सभी स्थावर संज्ञा रहित होते है ॥३२॥ मणुआण दीहकालिय, दिहिवाओवएसिया केविः । पज्जपणतिरिमणुअच्चिय, चउविह देवेसु गच्छंति ॥ ३३ ॥
गाथार्थ : मनुष्य में दीर्धकालिकी संज्ञा होती है और कइयों को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा भी होती है।
पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य चारों प्रकार के देवभव में जाते हैं ॥३३॥
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दंडक-लघुसंग्रहणी