Book Title: Dandak Laghu Sangrahani
Author(s): Yatindrasuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री सुधर्मास्वामीने नमः ॥ अहो ! श्रुतम् - स्वाध्याय संग्रह [२] ] दंडक-लघुसंग्रहणी [ गाथा और अर्थ ] -: प्रकाशक : श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार साबरमती, अहमदाबाद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री सुधर्मास्वामीने नमः ॥ अहो ! श्रुतम् - स्वाध्याय संग्रह [२] दंडक-लघुसंग्रहणी [गाथा और अर्थ] दंडक कर्ता : श्री गजसारमुनि अनुवादक : पू. आ. श्री रत्नसेनसूरिजी लघुसंग्रहणी कर्ता : पू. आ. श्री हरिभद्रसूरिजी अनुवादक : श्रीमदविजय यतिन्द्रसूरीश्वरजी -: संकलन : श्रुतोपासक -: प्रकाशक :श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार शा. वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, साबरमती, अहमदाबाद-३८०००५ फोन : २२१३२५४३, ९४२६५८५९०४ E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक प्रकाशन आवृत्ति : श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार : संवत २०७४, द्वि. ज्येष्ठ सुद-५ वैराग्यदेशनादक्ष प.पू. आ. भ. श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के दीक्षादिन पर अर्पण... : प्रथम ज्ञाननिधि में से पू. संयमी भगवंतो और ज्ञानभंडार को भेट .... गृहस्थ किसी भी संघ के ज्ञान खाते में २० रुपये अर्पण करके मालिकी कर शकते हैं । प्राप्तिस्थान : (१) सरेमल जवेरचंद काईनफेब (प्रा.) ली. 672/11, बोम्बे मार्केट, रेलवेपुरा, अहमदाबाद- 380002 फोन : 22132543 (मो.) 9426585904 (२) कुलीन के. शाह आदिनाथ मेडीसीन, Tu - 02, शंखेश्वर कोम्प्लेक्ष, कैलाशनगर, सुरत (मो.) 9574696000 (३) शा. रमेशकुमार एच. जैन A- 901, गुंदेचा गार्डन, लालबाग, मुंबई - 12. (मो.) 9820016941 ( ४ ) श्री विनीत जैन जगद्गुरु हीरसूरीश्वरजी जैन ज्ञानभंडार, चंदनबाला भवन, 129, शाहुकर पेठ पासे, मीन्ट स्ट्रीट, चेन्नाई - 1. (.) 9381096009, 044-23463107 (५) शा. हसमुखलाल शान्तीलाल राठोड 7/8, वीरभारत सोसायटी, टीम्बर मार्केट, भवानीपेठ, पूना. (मो.) 9422315985 मुद्रक : किरीट ग्राफिक्स, अहमदाबाद (मो.) ९८९८४९००९१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दंडक प्रकरण नमिउं चउवीस जिणे, तस्सुत्त - वियार-लेस - देसणओ; । दंडग - पएहिं ते च्चिय, थोसामि सुणेह भो भव्वा ॥ १ ॥ गाथार्थ : चौबीस जिनेश्वर भगवंतों को प्रणाम करके दंडक में उनके द्वारा निर्दिष्ट सिद्धांतसूत्रों के लेश भाग को बतलाते हुए मैं उनकी स्तुति करूँगा, अतः हे भव्य प्राणियो ! तुम उसे सुनो ॥१॥ नेरइआ असुराइ, पुढवाई - बेइंदियादओ चेव; । गब्भय - तिरिय- मणुस्सा, वंतर - जोइसिय- वेमाणी ॥२॥ गाथार्थ : नारक, असुरकुमार आदि, पृथ्वीकाय आदि, बेइन्द्रिय आदि गर्भज तिर्यंच और मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक ||२|| संखित्तयरि उ इमा, सरीर - मोगाहणा य संघयणा; । सन्ना संठाण कसाय, लेसिंदिय दुसमुग्धाया ॥ ३ ॥ दिट्ठी दंसण नाणे, जोगु-वओगो-ववाय चवण ठिई; । पज्जत्ति किमाहारे, सन्निगइ आगई वे ॥ ४॥ गाथार्थ : अति संक्षेप में संग्रह इस प्रकार है 1. शरीर, 2. अवगाहना, 3. संघयण, 4. संज्ञा, 5. संस्थान, 6. कषाय, श्री दंडक प्रकरण ३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. लेश्या, 8. इन्द्रिय, 9. समुद्घात, 10. दृष्टि, 11. दर्शन, 12. ज्ञान, 13. अज्ञान, 14. योग, 15. उपयोग, 16. उपपात, 17. च्यवन, 18. स्थिति, 19. पर्याप्ति, 20. किमाहार, 21. संज्ञी, 22. गति, 23. आगति और 24. वेद ॥३-४॥ चउ गब्भ-तिरिय वाउसु, मणुआणं पंच सेस तिसरीरा; । थावरचउगे दुहओ, अंगुलअसंखभागतणू ॥ ५ ॥ गाथार्थ : गर्भज तिर्यंच और वायुकाय के जीवों के चार शरीर, मनुष्य के पाँच शरीर और शेष (21 दंडकों में) तीन शरीर होते हैं। ___ चारों स्थावरों में जधन्य व उत्कृष्ट से अंगुल का असंख्यतवा भाग प्रमाण शरीर होता है ॥५॥ सव्वेसि पि जहन्ना, साहाविय अंगुलस्स असंखंसा; । उक्कोस पणसयधणू, नेरइया सत्त हत्थ सुरा ॥ ६ ॥ ___ गाथार्थ : सभी दंडकों में स्वाभाविक शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी है, नारकों की उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष्य और देवताओं की 7 हाथ है ॥६॥ गब्भतिरि सहस जोयण, वणस्सई अहिय जोयणसहस्स; । नर तेइंदि तिगाऊ, बेइंदिय जोयणे बार ॥ ७ ॥ गाथार्थ : पंचेन्द्रिय गर्भज तिर्यंच की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन है वनस्पति की एक हजार दंडक-लघुसंग्रहणी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजन से कुछ अधिक है। गर्भज मनुष्य और तेइन्द्रिय की तीन गाउ और बेइन्द्रिय की बारह योजन है ॥७॥ जोयण-मेगं चउरिंदि देह मुच्चत्तणं सुए भणिअं;। वेउव्विय-देहं पुण, अंगुल-संखंसमारंभे ॥ ८ ॥ गाथार्थ : सिद्धांत में चतुरिन्द्रिय जीवों के शरीर की ऊँचाई 1 योजन कही गई है । वैक्रिय शरीर प्रारंभ में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना होता है ॥८॥ देव नर अहियलक्खं, तिरियाणं नव य जोयण-सयाई। दुगुणं तु नारयाणं, भणियं वेउव्विय-सरीरं ॥ ९ ॥ गाथार्थ : देवों का उत्तर वैक्रिय शरीर 1 लाख योजन और मनुष्यों का 1 लाख से अधिक है । तिर्यंचों का 900 योजन है । नारकों का वैक्रिय शरीर उनके मूल शरीर से दोगुना है ॥९॥ अंतमुहुत्तं निरए, मुहुत्त चत्तारि तिरिय-मणुएसुः । देवेसु अद्धमासो, उक्कोस विउव्वणा-कालो ॥ १० ॥ गाथार्थ : उत्कृष्ट विकुर्वण का काल नरक में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यंच व मनुष्य में चार मुहूर्त और देवताओं में आधा मास (15 दिन) है ॥१०॥ थावरसुर-नेरइआ, असंघयणा य विगल-छेवट्ठा; । संघयण-छग्गं गब्भय-नर-तिरिएसु वि मुणेयव्वं ॥११॥ श्री दंडक प्रकरण Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : पाँच स्थावर, देव तथा नारक के जीव संघयण रहित होते हैं । विकलेन्द्रिय में सेवा संघयण होता है । गर्भज मनुष्य और तिर्यंच में सभी छह प्रकार के संघयण होते हैं ॥११॥ सव्वेसिं चउ दह वा, सन्ना सव्वे सुरा य चउरंसा; । नर तिरिय छ संठाणा, हुंडा विगलिदि-नेरइया ॥ १२ ॥ गाथार्थ : सभी जीवों के चार अथवा दश संज्ञाएँ होती हैं । सभी देवता समचतुरस्रसंस्थान वाले, सभी गर्भज मनुष्य व तिर्यंच छहों संस्थानवाले तथा नारक विकलेन्द्रिय हुंडक संस्थानवाले होते हैं ॥१२॥ नाणाविह धय सूई, बुब्बुय वण वाउ तेउ अपकाया; । पुढवी मसूर-चंदा-कारासंठाणओ भणिया ॥ १३ ॥ गाथार्थ : वनस्पतिकाय भिन्न-भिन्न संस्थानवाली होती है, वायुकाय का संस्थान ध्वजा के आकार का होता है, अग्नि का संस्थान सुई जैसा, अप्काय का संस्थान परपोटे जैसा तथा पृथ्वीकाय का संस्थान मसूर की दाल अथवा चंद्र के आकारवाला होता है ॥१३॥ सव्वे वि चउकसाया, लेसछग्गं गब्भतिरिय मणुएसु । नारय-तेऊ वाउ, विगला वेमाणिय तिलेसा ॥ १४ ॥ ___ गाथार्थ : सभी जीव चार कषायवाले होते हैं । गर्भज तिर्यंच और मनुष्य की छह लेश्याएँ होती हैं । नारक, दंडक-लघुसंग्रहणी ___wr Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निकाय, वायुकाय, विकलेन्द्रिय और वैमानिकों को तीन लेश्याएँ होती हैं ॥१४॥ जोइसिय तेउलेसा, सेसा सव्वेवि हुँति चउलेसा; । इंदियदारं सुगम, मणु आणं सत्त समुग्घाया ॥ १५ ॥ गाथार्थ : ज्योतिषी देव तेजोलेश्यावाले होते हैं और शेष सभी भवनपति व व्यंतर चार लेश्यावाले होते हैं। ___ इन्द्रिय द्वार सरल है। मनुष्यो को सात समुद्घात होते हैं ॥१५॥ वेयण कसाय मरणे, वेउव्विय तेयए य आहारे;। केवलि य समुग्घाया, सत्त इमे हुंति सन्नीणं ॥ १६ ॥ गाथार्थ : वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तैजस, आहारक और केवली ये सात समुद्घात हैं । संज्ञी जीवों के सात समुद्घात होते हैं ॥१६॥ एगिदियाण केवल, तेउ-आहारग विणा उ चत्तारि;। ते वेउव्विय वज्जा, विगला-सन्नीण ते चेव ॥ १७ ॥ गाथार्थ : एकेन्द्रिय जीवों के केवली. तैजस और आहारक छोड़कर चार समुद्घात होते हैं । विकलेन्द्रियों को वैक्रिय छोड़कर शेष तीन होते हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय को 7 समुद्घात होते हैं ॥१७॥ श्री दंडक प्रकरण Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण गब्भतिरिसुरेसु, नारय वाउसु चउर तिय सेसे। विगल दुदिट्टि थावर, मिच्छत्ति सेस तिय दिट्ठी ॥ १८ ॥ गाथार्थ : गर्भज तिर्यंच और देवताओं को पांच, नारक और वायुकाय को चार तथा शेष दंडकों में तीन समुद्घात होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों को दो दृष्टि, स्थावर जीवों को मिथ्यात्व नाम की एक दृष्टि और शेष दंडकों में तीनों दृष्टियाँ होती हैं ॥१८॥ थावरबितिसु अचक्खु, चरिंदिसु तदुगं सुए भणिअं; । मणुआ चउ दंसणिणो, सेसेसु तिगं तिगं भणियं ॥ १९ ॥ गाथार्थ : सिद्धांत में स्थावर, बेइन्द्रिय और तेइन्द्रिय को सिर्फ एक अचक्षुदर्शन तथा चउरिन्द्रिय को दो दर्शन कहे गए हैं। मनुष्य के चार दर्शन हैं, शेष दंडकों में तीन-तीन दर्शन कहे गए हैं ॥१९॥ अन्नाण नाण तियतिय, सुर तिरि निरए थिरे अनाणदुर्ग; । नाणन्नाण दु विगले, मणुए पण नाण ति अनाणा ॥२०॥ गाथार्थ : देव तिर्यंच और नारक में तीन अज्ञान और तीन ज्ञान, स्थावर में दो अज्ञान, विकलेन्द्रिय में दो ज्ञान तथा दो अज्ञान और मनुष्य में पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं ॥२०॥ दंडक-लघुसंग्रहणी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चे अर मीस असच्चमोस, मणवय विउव्वि आहारे । उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा देसिया समए ॥ २१ ॥ गाथार्थ : सत्य, असत्य, मिश्र और असत्य - अमृषा, मन और वचन, वैक्रिय, आहारक, औदारिक, मिश्र और कार्मण; इस प्रकार सिद्धांत में योग कहे गए हैं ॥ २१ ॥ इक्कारस सुर- निरए, तिरिएसु तेर पन्नर मणुएसुः । विगले चउ पण वाए, जोगतिगं थावरे होई ॥ २२ ॥ गाथार्थ : देव - नारक में ग्यारह तिर्यंच में तेरह, मनुष्य में पंद्रह, विकलेन्द्रिय में चार, वायुकाय में पाँच और स्थावर में तीन योग होते हैं । योग अर्थात् आत्मप्रदेशों में होनेवाला स्पंदन | पुद्गल के संबंध के कारण आत्मप्रदेशों में हलन चलन होता रहता है ||२२|| ति अनाण नाण पण चउ, दंसण बार जिअलक्खणुवओगा । इय बारस उवओगा, भणिया तेलुक्कदंसिहिं ॥ २३ ॥ गाथार्थ : तीन अज्ञान, पाँच ज्ञान और चार दर्शन ये बारह जीव के लक्षण रूप उपयोग हैं। तीन जगत् के सभी पदार्थो को प्रत्यक्ष देखनेवाले जिनेश्वर भगवंत ने ये 12 उपयोग कहे हैं ॥२३॥ श्री दंडक प्रकरण ९ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओगा मणुएसु, बारस नव निरय तिरिय देवेसुः । विगलदुगे पण छक्कं, चउरिंदिसु थावरे तियगं ॥ २४ ॥ गाथार्थ : मनुष्य में 12 उपयोग; नारक, तिर्यंच और देवों में 9 उपयोग, दो विकलेन्द्रिय में 5 उपयोग, चउरिन्द्रिय में छह उपयोग और स्थावर जीवों में तीन उपयोग होते हैं ॥२४॥ संखमसंखा समए, गब्भयतिरि विगल नारय सुरा यः । मणुआ नियमा संखा, वण-णंता थावर असंखा ॥ २५ ॥ गाथार्थ : एक समय में गर्भज तिर्यंच, विकलेन्द्रिय, नारक और देवता; संख्याता अथवा असंख्याता, मनुष्य संख्याता ही, वनस्पति जीव अनंत तथा स्थावर जीव असंख्यात उत्पन्न होते हैं ॥२५॥ असन्नि नर असंखा, जह उववाए तहेव चवणे विः । बावीस सग ति दसवास, सहस्स उक्विट्ठ पुढवाई ॥ २६ ॥ ___ गाथार्थ : असंज्ञी मनुष्य असंख्य हैं । उपपात की तरह ही च्यवन हैं । पृथ्वीकाय आदि की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार, सात हजार, तीन हजार और दस हजार वर्ष है ॥२६॥ तिदिणग्गि तिपल्लाऊ, नरतिरि सुर निरय सागर तितीसा;। वंतर पल्लं जोइस, वरिसलक्खाहियं पलियं ॥ २७ ॥ दंडक-लघुसंग्रहणी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : अग्निकाय का तीन दिन, गर्भज मनुष्य और तिर्यंच का तीन पल्योपम, देव और नारक का तैंतीस सागरोपम, व्यंतर का एक पल्योपम और ज्योतिष देवों का एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम उत्कृष्ट आयुष्य होता है ||२७|| असुराण अहिय अयरं, देसूणदुपल्लयं नव निकाये; । बारसवासुण पणदिण, छम्मासुक्किट्ठ विगलाउ ॥ २८ ॥ गाथार्थ : असुरकुमारों का कुछ अधिक एक सागरोपम, नवनिकाय का कुछ न्यून दो पल्योपम, विकलेन्द्रिय का क्रमशः 12 वर्ष, उनपचास दिन और छह मास है ॥२८॥ पुढवाई - दस पयाणं, अंतमुहुत्तं जहन्न आउठिई; । दससहसवरिसठिइआ, भवणाहिवनिरयवंतरि ॥ २९ ॥ गाथार्थ : पृथ्वीकाय आदि दश पदों की जधन्य आयुष्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । भवनपति, नारक और व्यंतरों की जधन्य स्थिति 10000 वर्ष है || २९ ॥ वेमाणिय जोइसिया, पल्लतयइंस आउआ हुंति; । सुरनरतिरिनिरएसु छ पज्जत्ति थावरे चउगं ॥ ३० ॥ गाथार्थ : वैमानिक और ज्योतिषी क्रमशः पल्योपम और उसके आठवें भाग के आयुष्यवाले होते हैं । देव, श्री दंडक प्रकरण ११ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य, तिर्यंच और नरक के जीवों के छह एवं स्थावर में चार पर्याप्तियाँ होती हैं ॥३०॥ विगले पंच पज्जत्ती, छद्दिसिआहार होई सव्वेसि; । पणगाइ-पये भयणा, अह सन्नि तियं भणिस्सामि ॥ ३१ ॥ गाथार्थ : विकलेन्द्रिय जीवों में 5 पर्याप्तियाँ होती हैं। सभी जीवों को छह दिशाओं से आहार होता है। परंतु पनक आदि पदों में भजना होती है। अब तीन संज्ञ चउविहसुरतिरिएसु, निरएसु अ दीहकालिगी सन्ना; । विगले हेउवएसा, सन्नारहिया थिरा सव्वे ॥ ३२ ॥ गाथार्थ : चार प्रकार के देवता, तिर्यंच तथा नारकों को दीर्धकालिकी संज्ञा होती है । विकलेन्द्रिय जीवों में हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा होती हैं और सभी स्थावर संज्ञा रहित होते है ॥३२॥ मणुआण दीहकालिय, दिहिवाओवएसिया केविः । पज्जपणतिरिमणुअच्चिय, चउविह देवेसु गच्छंति ॥ ३३ ॥ गाथार्थ : मनुष्य में दीर्धकालिकी संज्ञा होती है और कइयों को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा भी होती है। पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य चारों प्रकार के देवभव में जाते हैं ॥३३॥ १२ दंडक-लघुसंग्रहणी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखाउ पज्ज पणिदि, तिरिय- नरेसु तहेव पज्जत्ते; । भू-दग - पत्तेयवणे, एएसु च्चिय सुरागमणं ॥ ३४ ॥ गाथार्थ : संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में, पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में देवों का आगमन होता है अर्थात् देवता मरकर उस गति में जाते हैं ||३४|| पज्जत्तसंखगब्भय, तिरियनरा निरयसत्तगे जंति; । निरय उवट्टा एएसु, उववज्जंति न सेसेसु ॥ ३५ ॥ गाथार्थ : पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले गर्भज तिर्यंच और मनुष्य सातों नरकों में उत्पन्न होते हैं और नरक से निकलकर इन्हीं में उत्पन्न होते हैं, दूसरी जगह नहीं ||३५|| पुढवी - आउ-वणस्सइ - मज्झे नारयविवज्जिया जीवाः । सव्वे उववज्जंति, निय निय कम्माणुमाणेणं ॥ ३६ ॥ गाथार्थ : नारक जीवों को छोड़कर अन्य सभी जीव अपने-अपने कर्म के अनुसार पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में पैदा होते हैं ||३६|| पुढवाइ-दस पएसु, पुढवी आऊ वणस्सई जंति ; । पुढवाइ दसपएहि य, तेऊ - वाऊसु उववाओ ॥ ३७ ॥ गाथार्थ : पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय ये जीव मरकर पृथ्वीकाय आदि दस पदों में उत्पन्न होते हैं । श्री दंडक प्रकरण १३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीकाय आदि दस पदों से निकला हुआ जीव अग्निकाय और वायुकाय में पैदा होता है ||३७|| तेऊवाऊ-गमणं, पुढवी - पमुहंम होई पयनवगे; 1 पुढवाईठाणदसगा, विगलाइतियं तहिं जंति ॥ ३८ ॥ गाथार्थ : अग्निकाय और वायुकाय के जीव मरकर पृथ्वीकाय आदि नौ पदो में जाते हैं । पृथ्वीकाय आदि दस पद विकलेन्द्रिय में जाते हैं और तीनों विकलेन्द्रिय मरकर दस पदों में पैदा होते हैं ||३८|| गमणागमणं गब्भय, तिरियाणं सयलजीवठाणेसुः । सव्वत्थ जंति मणुआ, तेऊवाऊहिं नो जंति ॥ ३९ ॥ गाथार्थ : गर्भज तिर्यंचों का गमनागमन सभी जीवस्थानों में होता है । मनुष्य भी मरकर सभी दंडकों में पैदा होता है । सिर्फ अग्निकाय और वायुकाय मरकर, मनुष्य नहीं बनते हैं ||३९|| I वेयतिय तिरि-नरेसु, इत्थी पुरिसो य चउविह- सुरेसुः । थिरविगलनारएसु, नपुंसवेओ हवइ एगो ॥ ४० ॥ गाथार्थ : तिर्यंच और मनुष्यों में तीनों वेद होते हैं । चारों प्रकार के देवताओं में स्त्री और पुरुष वेद होता है । स्थावर, विकलेन्द्रिय और नारकों में सिर्फ नपुंसक वेद होता है ||४०|| १४ दंडक - लघुसंग्रहणी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जमणु बायरग्गी, वेमाणियभवणनिरयवंतरिया; । जोइस चउ पणतिरिया, बेइंदिय तेइंदिय भू आऊ ॥ ४१ ॥ वाऊ वणस्सइच्चिय, अहिया अहिया कमेणिमे हुंति; । सव्वेवि इमे भावा, जिणा मए णंतसो पत्ता ॥ ४२ ॥ गाथार्थ : पर्याप्त मनुष्य, पर्याप्त बादर, अग्निकाय, वैमानिक, भवनपतिदेव, नारक, व्यंतर, ज्योतिषदेव, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, पृथ्वीकाय अप्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, क्रमशः अधिक-अधिक हैं, ये सभी भाव मैंने अनंत बार प्राप्त किए हैं ॥४१॥-॥४२॥ संपइ तुम्ह भत्तस्स, दंडग पय भमण भग्गहिययस्स; । दंडतिय-विरय-सुलहं, लहु मम दितु मुक्खपयं ॥ ४३ ॥ गाथार्थ : इन दंडक पदों में परिभ्रमण करने से थकेमांदे इस भक्त को, तीन दंड़ की विरति से सहज मिले ऐसा मोक्षपद शीघ्र प्रदान करें ॥४३॥ सिरिजिणहंस मुणीसर, रज्जे सिरिधवलचंदसीसेण; । गजसारेण लिहिया, एसा विन्नत्ति अप्पहिया ॥ ४४ ॥ गाथार्थ : श्री जिनहंस आचार्य भगवंत के शासन काल में आत्महित करनेवाली यह विज्ञप्ति श्री धवलचंद्र मुनि के शिष्य श्री गजसारमुनि के द्वारा लिखी गई है ॥४४॥ श्री दंडक प्रकरण Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लघुसंग्रहणी प्रकरण नमिय जिणं सव्वनुं, जगपुज्जं जगगुरुं महावीरं । जंबूदीवपयत्थे, वुच्छं सुत्ता सपरहेउ ॥१॥ गाथार्थ : सर्वज्ञ, जगत् के पूज्य, जगत् के गुरु श्री महावीर जिनेश्वर को नमस्कार करके अपने और दूसरों को ज्ञान प्राप्त करने के लिए सूत्रों से लेकर जम्बूद्वीप सम्बन्धी कतिपय पदार्थों का संक्षिप्त स्वरूप कहूँगा । खंडा जोयण वासा, पव्वय कूडा य तित्थ सेढीओ । विजय द्दह सलिलाओ, पिंडेसिं होइ संघयणी ॥२॥ गाथार्थ : खंडविभाग, योजन, वासक्षेत्र, पर्वत, कूट, तीर्थ, श्रेणी, षट्खण्ड देश, द्रह और नदी इन दस पदार्थों के संग्रह से लघुसंग्रहणी होती है । णउअसयं खंडणं, भरहपमाणेण भाइए लक्खे । अहवा णउअसयगुणं, भरहपमाणं हवइ लक्खं ॥३॥ गाथार्थ : भरतक्षेत्र के प्रमाण के साथ लाख योजन को भांगनेसे जंबूद्वीप १९० खंड का होता है अथवा भरतक्षेत्र के प्रमाण को १९० से गुणा करने पर जम्बूद्वीप एक लाख योजन का होता है । १६ दंडक - लघुसंग्रहणी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहविगखंडे भरहे, दो हिमवंते अ हेमवइ चउरो । अट्ठ महाहिमवंते, सोलसखंडाइं हरिवासे ॥४॥ बत्तीसं पुण निसड्डे, मिलिया तेसट्टि बीयपासे वि । चउसट्टिउ विदेहे, तिरासि पिंडे उ णउयसयं ॥५॥ गाथार्थ : अथवा एक खंड का भरतक्षेत्र है, दो खंड का हिमवन्त पर्वत है, चार खंड का हेमवन्त क्षेत्र है, आठ खण्ड का महाहिमवंत पर्वत है और सोलह खंड का हरिवर्षक्षेत्र है, बत्तीस खण्ड का निषधपर्वत है ये ये सब मिलकर ६३ खण्ड हुए । दूसरी तरफ भी १ खण्ड का ऐरवत क्षेत्र, २ खण्ड का शिखरी पर्वत, ४ खण्ड का हिरण्यवन्त क्षेत्र, ८ खण्ड का रुक्मि पर्वत, १६ खण्ड का रम्यक्षेत्र, ३२ खण्ड का नीलवन्त पर्वत, ये तिरसठ तथा ६४ खण्ड का महाविदेह क्षेत्र है । इन तीनों राशियों को एकत्रित करने से १९० खण्ड होते हैं। जोयण परिमाणाइं, समचउरसाइं इत्थ खंडाई । लक्खस्स य परिहीए, तप्पायगुणे य हुंतेव ॥६॥ गाथार्थ : यहाँ लाख योजन की परिधि को उसके चौथे हिस्से के २५००० योजन से गुणा करने पर योजन प्रमाण के समचौरस खंड होते हैं ।। विक्खंभ वग्ग दहगुण, करणी वट्टस्स परिरओ होई । विक्खंभपायगुणिओ, परिरओ तस्स गणिय पयं ॥७॥ श्री लघुसंग्रहणी प्रकरण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। लाख योजन को लाख योजन से गुणा करने पर निष्कंभवर्ग के १० अरब योजन हुए । विष्कंभवर्गाङ्क को दस गुणा करने पर १ खरब हुए, उसका वर्गमूल ३१६२२७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष्य, १३९ अंगुल हुआ यह जम्बूद्वीप की गोलाकार परिधि होती है ऐसा समझना वर्गमूलाङ्क को विष्कंभयोजन के चौथे हिस्से के २५००० योजनों से गुणा करने पर ७९० करोड, ५६ लाख, ९४ हजार, १५० योजन एक कोस, १५१५ धनुष, ६० अंगुल प्रमाण जंबूद्वीप की परिधि का गणितपद क्षेत्रफल होता है । यही संख्या आगे की गाथाओं में बतलाई जाती है। परिही तिलक्ख सोलस, सहस्स दो य सय सत्तवीसहिया । कोसतिगट्ठावीसं, धणुसय तेरंगुलद्धहियं ॥८॥ गाथार्थ : तीन लाख सोलह हजार और दो सौ सत्ताईस अधिक तीन कोस एक सौ अट्ठाइस धनुष्य साढ़े तेरह अंगुल प्रमाण जम्बूद्वीप की परिधि जानना । सत्तेव य कोडिसया, नउआ छप्पन्न सय सहस्साई । चउणउयं च सहस्सा, सयं दिवटुं च साहीयं ॥९॥ गाउअमेगं पनरस, धणूसया तह धणूणि पन्नरस । सद्धिं च अंगुलाई, जंबूदीवस्स गणियपयं ॥१०॥ दंडक-लघुसंग्रहणी १८ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : और सात सौ नब्बे करोड छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन ऊपर अधिक एक कोस तथा पन्द्रह सौ पन्द्रह धनुष्य साठ अंगुल प्रमाण जंबूद्वीप का गणित पद समझना चाहिए । भरहाइ सत्त वासा, वियड्ढ चउ चउरतिंस वट्टियरे । सोलस वक्खारगिरि, दो चित्त विचित्त दो जमगा ॥११॥ दोसय कणयगिरीणं, चउगयदंता य तह सुमेरु अ । छ वासहरा पिंडे, एगुणसत्तरि सया दुन्नि ॥१२॥ गाथार्थ : भरतादि ७ वासक्षेत्र हैं, ४ गोलाकार वैताढ्य पर्वत तथा ३४ इतर दीर्घ वैताढ्य पर्वत हैं, सोलह वक्षस्कार पर्वत हैं, १ चित्र पर्वत, १ विचित्र पर्वत है, १ यमक पर्वत तथा १ समक पर्वत है। २०० कंचनगिरि पर्वत हैं, और ४ गजदन्तगिरि पर्वत हैं, तथा १ सुमेरु पर्वत है और ६ वर्षधर पर्वत हैं, इन सबों को एकत्रित करने से २६९ पर्वत होते हैं। सोलस वक्खारेसु, चउ चउ कूडा य हुंति पत्तेयं । सोमणस गंधमायण, सत्तट्ठ य रूप्पि महाहिमवे ॥१३॥ गाथार्थ : सोलह वक्षस्कार पर्वतों पर एक एक पर चार-चार कूट हैं और सौमनस तथा गंधमादन पर्वत पर सात-सात कूट हैं और रुक्मि पर्वत तथा महाहिमवन्त पर्वत पर आठ-आठ कूट हैं । श्री लघुसंग्रहणी प्रकरण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउतीस वियड्ढेसु, विज्जुप्पह निसढ नीलवंतेसु । तह मालवंत सुरगिरि, नव नव कूडाइं पत्तेयं ॥१४॥ गाथार्थ : चौंतीस वेताढ्य विद्युत्प्रभ, निषध, नीलवन्त तथा मालवन्त और सुमेरु इन एक एक पर्वत पर नव नव कूट हैं। हिमसिहरिसु इक्कारस, इय इगसट्ठीगिरिसु कूडाणं । एगत्ते सव्वधणं, सयचउरो सत्तसट्ठी य ॥१५॥ गाथार्थ : हिमवन्त और शिखरी पर्वत पर ग्यारहग्यारह कूट हैं इस प्रकार इकसठ पर्वतों के कूटों की संख्याओं को एकत्रित करने से कुल चार सौ सड़सठ कूट होते हैं। चउ सत्त अट्ठ नवगे, गारसकूडेहिं गुणह जह संखं । सोलस दु दु गुणयालं, दुवे य सगसट्ठि सयचउरो ॥१६॥ गाथार्थ : अनुक्रम से सोलह को चार से गुणा करने पर ६४, दो पर्वतों के सात-सात मिलकर १४, आठ-आठ मिलकर १६, उनचालिस पर्वतों के नव नव गिनने से ३५१ और दो पर्वतों के ग्यारह-ग्यारह मिलाकर २२ कूटों की संख्या ६४, १४, १६, ३५१, २२ इस प्रकार ४६७ होती है। चउतीसं विजएसुं, उसहकूडा अट्ठ मेरुजंबुम्मि । अट्ठ य देवकुराए, हरिकूड हरिस्सहे सट्ठी ॥१७॥ दंडक-लघुसंग्रहणी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : चौंतीस विजयों में एक-एक ऋषभकूट, सुमेरु पर हरिकूटादि और जंबू वृक्ष पर जंबूकूटादि आठआठ कूट देवकुरुक्षेत्र के शाल्मलीवृक्ष पर शाल्मलीकूटादि आठ कूट और हरिकूट १ तथा हरिस्सहकूट इस प्रकार ३४, ८, ८, ८, १, १ ये साठ भूमिकूट हैं । ये पर्वत के शिखर नहीं, बल्कि भूमि के ऊपर शिखर स्वरूप पर्वत हैं जो भूमिकूट कहलाते हैं। मागहवरदामपभास, तित्थं विजएसु एरवयभरहे । चउतीसा तीहिं गुणिया, दुरुत्तरसयं तु तित्थाणं ॥१८॥ गाथार्थ : ३२ विजयों में ऐरवत क्षेत्र तथा भरतक्षेत्र इन चौंतीस क्षेत्रों में एक-एक में मागध, वरदाम और प्रभास ये तीन-तीन तीर्थ हैं, इसलिये चौंतीस को तीन से गुणा करने पर तीर्थों की संख्या १०२ (एक सौ दो) होती है । विज्जाहर अभिओगिय, सेढीओ दुन्नि दुन्नि वेयड्ढे । इय चउगुण चउतीसा, छत्तीससयं तु सेढीणं ॥१९॥ गाथार्थ : वैताढ्य पर्वतों पर विद्याधर मनुष्यों तथा अभियोगिक देवों की दो दो श्रेणियाँ हैं, इन चौंतीस वैताढ्य पर्वतों की चार श्रेणियों को चौगुणी करने से कुल श्रेणियाँ एक सौ छत्तीस होती हैं। चक्कीजेअव्वाइं, विजयाइं इत्थ हुंति चउतीसा । महदह छप्पउमाई, कुरुसु दसगंति सोलसगं ॥२०॥ श्री लघुसंग्रहणी प्रकरण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : जंबूद्वीप में चक्रवर्त्तियों के जीतने योग्य विजय चौंतीस (३४) हैं । पद्म आदि छह महाद्रह और देवकुरु क्षेत्र में दस लघुद्रह हैं ये दोनों मिलकर सोलह द्रह होते हैं । गंगा सिंधू रत्ता, रत्तवड़ चनइओ पत्तेयं । चउदसहिं सहस्सेहिं, समगं वच्चंति जलहिम्मि ॥ २१ ॥ गाथार्थ : गंगा, सिन्धु, रक्ता, रक्तवती ये चार नदियाँ एक - एक चौदह चौदह हजार नदियों के परिवारवाली हैं, ये अपने परिवार सहित लवण समुद्र में जाकर मिलती हैं । एवं अब्भितरिया, चउरो पुण अट्ठवीस सहस्सेहिं । पुणरवि छप्पन्नेहिं, सहस्सेहिं जंति चउसलिला ॥२२॥ गाथार्थ : इसी तरह आभ्यन्तरचारी चार नदियाँ अट्ठाइस - अट्ठाइस हजार तथा फिर भी चार आभ्यन्तरचारी नदी छप्पन छप्पन हजार नदियों के परिवार से लवणोदधि में जाकर मिलती हैं । कुरुमज्झे चउरासी, सहस्साइं तहय विजयसोलससु । बत्तीसाण नईणं, चउदस सहस्साइं पत्तेयं ॥२३॥ गाथार्थ : देवकुरु तथा उत्तरकुरु की सीतोदा और सीता इन दो नदियों में चौरासी चौरासी हजार नदियों के परिवार से छ: छ: अन्तरनदियाँ मिलती हैं, उसी तरह सोलह विजयों में प्रत्येक विजय की दो-दो नदियाँ गिनने से बत्तीस दंडक - लघुसंग्रहणी २२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदियाँ चौदह-चौदह हजार नदियों के परिवार से सीतोदा और सीता नदी में मिलती हैं । चउदससहस्सगुणिया, अडतीसनइओ विजय मज्झिल्ला । सीओयाए निवडंति, तहय सीयाई एमेव ॥२४॥ गाथार्थ : विजयों के अन्दर बहनेवाली तथा चौदह हजार से गिनी गई अडतीस नदियाँ सीतोदा नदी में तथा सीता नदी में भी इतनी ही नदियाँ पडती हैं यहाँ किसीकिसी आचार्य का कहना है कि अन्तरनदियों की परिवारभूत एक भी नदी नहीं है, इसलिये ये नदिया परिवार रहित हैं। सीया सीओया वि य, बत्तीससहस्स पंचलक्खेहि ।। सव्वे चउदस लक्खा , छप्पन्न सहस्स मेलविया ॥२५॥ गाथार्थ : पाँच लाख बत्तीस हजार नदियों के परिवार से सीता नदी और इतने ही परिवार से सीतोदा नदी भी लवणोदधि में मिलती है। सभी नदियों को एकत्रित करने से चौदह लाख ५६ हजार नदिया हैं । छज्जोयणे सकोसे, गंगासिंधूण वित्थरो मूले । दसगुणिओ पज्जंते, इय दु दु गुणणेण सेसाणं ॥२६॥ ___गाथार्थ : गंगा और सिंधु नदी का प्रारम्भ में विस्तार ६ योजन एक कोस का है, अन्त में दस गुणा ६२॥ योजन का है, शेष नदियों विस्तार का इससे दोगुणा होता है। श्री लघुसंग्रहणी प्रकरण Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोयणसयमुच्चिट्ठा, कणयमया सिहरिचुल्लहिमवंता । रुप्पि-महाहिमवंता, दुसउच्चा रुप्पकणयमया ॥२७॥ चत्तारि जोयण सए, उच्चिट्ठो निसढ नीलवंतो अ । निसढो तवणिज्जमओ, वेरुलिओ नीलवंतगिरि ॥२८॥ सव्वेवि पव्वयवरा, समयखित्तम्मि मंदरविहूणा । धरणीतले उवगाढा, उस्सेह चउत्थ भायम्मि ॥२९॥ गाथार्थ : शिखरी पर्वत और चुल्लहिमवंत पर्वत सौ योजन ऊँचाई में तथा स्वर्णमय है, रुक्मिपर्वत और महाहिमवन्त पर्वत ऊँचाई में दो सौ योजन के हैं तथा क्रम से चांदीमय एवं सुवर्णमय हैं, निषधपर्वत और नीलवंत पर्वत ऊँचाई में चार सौ योजन के हैं, तथा निषध पर्वत रक्तस्वर्णमय और नीलवन्त पर्वत वैडूर्यरत्नमय हैं । समयक्षेत्र में सुमेरु पर्वत के बिना सभी श्रेष्ठ पर्वत पृथ्वी के अन्दर ऊँचाई के चौथे भाग में गहरे स्थित हैं । खंडाइ गाहाहिं, दसहिं दारेहिं जंबूदीवस्स । संघयणी सम्मत्ता, रइया हरिभद्दसूरिहिं ॥३०॥ गाथार्थ : खंडादि गाथाओं से निर्दिष्ट दस द्वारों के द्वारा जम्बूद्वीप की इस संग्रहणी की आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने रचना की और यहाँ समाप्त हुई । दंडक-लघुसंग्रहणी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ज्ञान द्रव्य से लाभार्थी : श्री मुनिसुव्रतस्वामी श्वेताम्बर मूर्ति पूजक जैन संघ 210/212, कोकरन बेसिन रोड, विद्यासागर ओसवाल गार्डन, कुरूक्कुपेट, चेन्नई 600021 KIRIT GRAPHICS 09898490091