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सच्चे अर मीस असच्चमोस, मणवय विउव्वि आहारे । उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा देसिया समए ॥ २१ ॥
गाथार्थ : सत्य, असत्य, मिश्र और असत्य - अमृषा, मन और वचन, वैक्रिय, आहारक, औदारिक, मिश्र और कार्मण; इस प्रकार सिद्धांत में योग कहे गए हैं ॥ २१ ॥ इक्कारस सुर- निरए, तिरिएसु तेर पन्नर मणुएसुः । विगले चउ पण वाए, जोगतिगं थावरे होई ॥ २२ ॥
गाथार्थ : देव - नारक में ग्यारह तिर्यंच में तेरह, मनुष्य में पंद्रह, विकलेन्द्रिय में चार, वायुकाय में पाँच और स्थावर में तीन योग होते हैं ।
योग अर्थात् आत्मप्रदेशों में होनेवाला स्पंदन | पुद्गल के संबंध के कारण आत्मप्रदेशों में हलन चलन होता रहता है ||२२||
ति अनाण नाण पण चउ, दंसण बार जिअलक्खणुवओगा । इय बारस उवओगा, भणिया तेलुक्कदंसिहिं ॥ २३ ॥
गाथार्थ : तीन अज्ञान, पाँच ज्ञान और चार दर्शन ये बारह जीव के लक्षण रूप उपयोग हैं। तीन जगत् के सभी पदार्थो को प्रत्यक्ष देखनेवाले जिनेश्वर भगवंत ने ये 12 उपयोग कहे हैं ॥२३॥
श्री दंडक प्रकरण
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