Book Title: Chovish Jina Prachin Stuti Chaityavandan Stavan Thoyadi Sangraha
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Vidyarthi Kalyan Kendra

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Page 46
________________ (४०) श्री सिद्धचक्र (नवपद ) जीनी स्तुति अर्हन्तो भगवंत इन्द्र महिता, सिद्धाञ्च सिद्धिस्थिता; आचार्य जिनशासनोन्नति कराः, पूज्या उपाध्यायकाः, श्री सिद्धान्तपाठका मुनिवराः, रत्नत्रयाराधका, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलं ॥ चैत्यवंदन : 9 ओरि सिरि अरिहंत मूल, दृढ पीठ पई डिभो, सिद्ध सूरि उवज्झाय साहू, चिंहु पास गरिट्ठिओ ॥१॥ दंसणनाण चरित्त तवहि, पडिसाह सुंदरूं, तत्तख्खर सरवग्ग लद्धि, गुरुपयदल दुंबरूं ॥२॥ दिसिपाल जक्ख-जक्खिणी-पमुह, सुरकुसुमेहिं अलंकियो, सो सिद्धचक्क गुरू कप्पतरू, अम्ह मनवंछिय फलदियो ॥३॥ स्तवन : अवसर पामीने रे, कीजे नव आयंबिलनो भोळी, भोळीकरतां आपद जाये, ऋद्धि-सिद्धि लही भे बहुली ॥१॥ अव ... आसोने चैत्रे आदरशुं, श्री सातमथी संभाली रे, आळस मेळी आंबिल करशे, तसघर नित्य दिवाळी ||२|| अव.... पूनमने दिन पूरी थाये, प्रेमशुं पखाली रे, सिद्धचक्रने शुद्ध आराथी, जाप जपे जपमाली ||३|| मच..... देहरे जईने देव जुहारो, आदीश्वर अरिहंत रे, चोवीसे चाहीने पूजो, भावशुं भगवंत ॥४॥ भव... बे टंके पडिक्कमणुं बोल्युं, देववन्दन ऋण काल रे, श्री श्रीपालतणी परे समजी, चित्तमां राखो चाल ||५|| अव . . . .

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