Book Title: Chousath Ruddhi Poojan Vidhan
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 41
________________ [३८] बाहिज षट् विधि तप यही, सब कर्म निर्जरा थानो जी। आभ्यन्तर तप भेदतें, धारत पद है निवाणो जी । तपऋद्धिधारक जे मुनि बन्दों तिन शीष नवाई जी ॥८॥ प्रायश्चित दश भेदतें, सोधे संयमको अतिचारो जी। रात्रिदिवस में दोष जे लागे तिनको निवारो जी ॥तप०॥९॥ दर्शन ज्ञान चरित्रको अरु तपको विनय करावै जी। इनके धारकको करै सो विनयाचार कहावै जी ॥तप०॥१०॥ दश प्रकार के मुनिनकी धरि भक्ति हृदय के मांही जी। टहल करै मृति रोगमें वैयाव्रत तप सुखदाई जी ॥तप॥११॥ . वाचन प्रच्छन चितवन अरु आज्ञा सर्व की धारें जी । धर्मोपदेश विधि पंच ये तप स्वाध्याय संभालै जी ॥तप०॥१२॥ बाह्य अभ्यन्तर उपाधिको त्यागि कर्यो समभावो जी। तप व्युत्सर्ग महान यह तन ममत्व तज्यो करि चाहोजी ॥तप०॥१३॥ आर्त रौद्र दुर्ध्यान हैं तिनको मन वच तन त्यागै जी। धर्म शुक्ल शुभ ध्यान द्वय ध्यावै तिनको अनुरागै जी ॥तप०॥१४॥ ऐसे द्वादश तप तपै तिनके हो केवलज्ञानो जी। सकल कर्मको नाशिकै पद पावै निरवाणो जी ॥तप०॥१५॥ ऐसे मुनि तिष्ठत जहां तहां मरी आदि सब रोगाजी। सिंह सर्प डाकिनी शाकिनी नाशै भूत प्रेत सब शोकाजी ।तप०॥१६॥ ऐसे गुरु हमको मिलें तब होवे मम निस्तारो जी। यातें मुनि-चरणन विर्षे अब लाग्यो ध्यान हमारो जी ॥तप०॥१७॥ (दोहा) सुनो हमारी बिनती, है ऋषिवर ! चित लाय । निजस्वरूपमय मो करो, पूजों मन वच काय ॥ ॐ ह्रीं तपोतिशय-ऋद्धि-प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्यो जयमालार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।

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