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आवारदसा.
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-सूत्र ३७
तस्स गं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहासवे समणे वा माहणे वा जावपडिसुणिज्जा ? हंता ! पडिसुणिज्जा।
से णं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा ? णो तिणठे समठे । अभविए णं से तस्स धम्मस्स सद्दहणयाए।
से य भवति महिच्छे जाव--दाहिणगामि-णेरइए; आगमेस्साए दुल्लभबोहिए यावि भवति ।
एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेयारवे पावए फलविवागे।
जं जो संचाएति केवलि-पणतं धम्मं सद्दहित्तए वा, पत्तियत्तिए वा, रोइत्तए वा।
प्रश्न--उस (पूर्व वणित) पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण-ब्राह्मण केवलिप्रज्ञप्त धर्म का उपदेश सुनाते हैं...यावत्... वह सुनता है ?
उत्तर-हाँ सुनता है।
प्रश्न-वह केवलिप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा प्रतीति करता है ? या रुचि रखता है ? ____उत्तर-नहीं, श्रद्धा नहीं कर सकता है अर्थात् वह सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा करने के अयोग्य है। . वह उत्कट अभिलाषायें रखता हुआ...यावत्... दक्षिण दिशावर्तीनरक में नैरयिक रूप में उत्पन्न होता है । भविष्य में भी उसे बोध (सम्यक्त्व) की प्राप्ति दुर्लभ होती है।
हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान शल्य का यह विपाक-फल है । इसलिए वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर न श्रद्धा प्रतीति कर पाता है और न रुचि रखता है।
छठं णियाणं सूत्र ३८
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्तेतं चेव । से य परक्कमेज्जा ; परक्कममाणे माणुस्सएसु-काम-भोगेसु निव्वेदं गच्छेज्जा; माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अणितिया ।