Book Title: Ched Suttani Aayar Dasa
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: Aagam Anyoug Prakashan

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Page 205
________________ १८५ आयारवसा सूत्र ४६ एवं खलु समणाउसो ! तस्स नियाणस्सइमेयारवे पाप-फल-विवागेजं णो संचाएति तेणेव भवग्गहणणं सिझज्जा जाव--सव्वदुक्खाणमंतं करेज्जा। हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान शल्य का पापरूप विपाक-फल यह है कि वह उस भव से सिद्ध बुद्ध नहीं होता....यावत्....सब दुखों का अन्त नहीं कर पाता। णियाण-रहिय तवोवहाणफलं सूत्र ५० एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते- .. इणमेव निग्गंथ-पावयणे जाव-से य परक्कमेज्जा सव्वकाम-विरत्ते, सम्वरागविरत्ते, सत्वसंगातीते, सव्वहा सव्व-सिणेहातिक्कते, सव्व-चरित्त परिवुड्ढे । . तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं गाणेणं, अणुत्तरेणं वंसणेणं, अणुत्तरेणं परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणंते, अणुत्तरे, निव्वाघाए, निरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे, केवल-वरनाण-दंसणे समुपज्जेज्जा। .. . निदान-रहित तपश्चर्या का फल हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है....यावत् ....तप-संयम की उग्र साधना करते समय काम, राग, संग-स्नेह से सर्वथा विरक्त हो जाये और ज्ञानदर्शन चारित्र रूप निर्वाण मार्ग की उत्कृष्ट आराधना करे तो उसे अनन्त, सर्व प्रधान, बाधा एवं आवरण रहित, संपूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होता है। सूत्र ५१ तए गं से भगवं अरहा भवतिजिणे, केवली, सव्वण्णू, सव्वदंसी,

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