Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ ४. कौन-सा आगम पाठ स्व-मत का है, कौन-सा जी म० ने मुझ पर अनुग्रह करके व्याकरणाचार्य श्रीमहेन्द्र परमन की मान्यता वाला है ? नथा भ्रान्तिवश परमत ऋषि जी म० कोथत-सेवा में सहयोग करने के लिये मान्यता वाला कौन-सा पाठ आगम में संकलित हो भेजा था अतः मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। गया है। सम्पादकीय-सहयोग :इस प्रकार के अनेक प्रश्नों के समाधान इस शैली से सौभाग्य से इस श्रमसाध्य महाकार्य में थी तिलोक प्राप्त हो जाते हैं जिनका आधुनिक शोध छात्रों/प्राच्य छात्रामाण्य मनिजी का अप्रत्याशित सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है। विद्या के अनुसन्धाता विद्वाना के लिय बहुत महत्व है। इसकी अनन्य न त भक्ति और संयम साधना देखकर अनुयोग कार्य का प्रारम्भ :-- ऐसा कौन होगा जो प्रभावित न हो, श्रमण जीवन की लगभग आज से ५० वर्ष पूर्व मेरे मन में अनुयोग- वास्तविक श्रमनिष्ठा आपकी रग-रग में समाहित है। वर्गीकरण पद्धति से आगमों का संकलन करने की भावना आपका चिन्तन और आपके सुझाव मौलिक होते हैं । जगी थी। श्री दलसख भाई मालवणिया ने उस समय गत सात वर्षों से विदुषी महासती डा० मुक्तिप्रभाजी, मोगा दर्शन विना प्रेरणा नी और नि:स्वार्थ निस्पृह १० दिव्यप्रभा जी एवं उनकी साक्षर मिष्या परिवार का भाव से आत्मिक सहयोग दिया। उनकी प्रेरणा व सह- ऐसा अनुपम सुयोग मिला की अनुयोग का कार्य आगे बढ़ता योग का सम्बल पाकर मेरा संकल्प दृढ़ होता गया और गया। मुझे अतीव प्रसन्नता है कि महासती मुक्तिप्रभाजी मैं इस श्र.त-सेवा में जुट गया। आज के अनुयोग ग्रन्थ आदि विदूषी श्रमणियों ने इस कार्य में तन्मय होकर जो उसी बीज के मधुर फल हैं। सहयोग किया है उसका उपकार आगम अभ्यासी जन सर्वप्रथम गणितानुयोग का कार्य स्वर्गीय गुरुदेव श्री युग-युग तक स्मरण करेंगे । इनकी रत्नत्रय साधना सर्वदा फतेहचन्दजी म. सा. के सानिध्य में प्रारम्भ किया था। सफल हो, यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है। किन्तु उराका प्रकाशन उनके स्वर्गवास के बाद हआ । अनूयोग सम्पादन कार्य में प्रारम्भ में तो अनेक बाधाएँ कुछ समय बाद धर्मकथानुयोग का सम्पादन प्रारम्भ आई। जैसे आगम के शुद्ध संस्करण की प्रतियों का किया । वह दो भागों में परिपूर्ण हुआ। तब तक गणिता- अभाव, प्राप्त पाठों में क्रम भंग और विशेषकर "जाव" नयोगका पूर्व संस्करण समाप्त हो चुका था तथा अनेक शब्द का अनपेक्षित/अनावश्यक प्रयोग । फिर भी धीरेस्थानों से मांग याती रहती थी। इस कारण धर्मकथानु- धीरे जैसे आगम सम्पादन कार्य में प्रगति हुई बैसे-वैसे योग के बाद पुनः गणिसानुगोग का संशोधन प्रारम्भ किया, कठिनाईयां भी दूर हई। महावीर जैन विद्यालय बम्बई, संशोधन क्या, लगभग ५० प्रतिशत नया सम्पादन ही हो जैन विश्व भारती लाडन तथा आगम प्रकाशन समिति गया। उनका प्रकाशन पूर्ण होने के बाद चरणानुयोग का व्यावर आदि आगम प्रकाशन संस्थाओं का यह उपकार यह संकलन प्रस्तुत है। ही मानना चाहिए जि. आज आगमों के सुन्दर उपयोगी कहावत है "श्र यांसि बहु बिध्नानि" शुभ व उत्तम संरकरण उपलब्ध हैं, और अधिकांश पूर्वापेक्षा शुद्ध कार्य में अनेक विध्न आते हैं। विघ्न-बाधाएँ हमारी सम्पादित हैं । यद्यपि आज भी उक्त संस्थाओं के निदेदृढ़ता व धीरता, संकल्प शक्ति व कार्य के प्रति निष्ठा की शकों की आगम सम्पादन शैली पूर्ण वैज्ञानिक या जैसी परीक्षा है। मेरे जीवन में भी ऐमी परीक्षाएँ अनेक बार चाहिए बसी नहीं है। लिपि दोष, लेखक के मतिभ्रम व हुई हैं। अनेक चार शरीर अस्वस्थ हुआ, कठिन वीमा- वाचना भेद आदि कारणों से आगमों के पाठों में अनेक रियां आई। सहयोगी भी कभी मिले, कभी नहीं, किन्तु स्थानों पर ट्युत्क्रम दिखाई देते हैं। पाठ-भेद तो है ही, मैं अपने कार्य में जुटा रहा। "जाव' शब्द कहीं अनावश्यक जोड़ दिया है जिससे अर्थ सम्पादन में सेवाभावी विनय मुनि 'वागीश" भी मेरे चैपरीत्य भी हो जाता है, कहीं लगाया नहीं है और कहीं साथ सहयोगी बने, वे आज भी शारीरिक सेवा के साथ- पूरा पाठ देकर भी "जाब" लगा दिया गया है। प्राचीन साथ मानसिक दृष्टि से भी मुझे परम साता पहुंचा रहे हैं प्रतियों में इस प्रकार के लेखन-दोष रह गये हैं जिससे और अनुयोग सम्पादन में भी सम्पूर्ण जागरूकता के साथ आगम का उपयुक्त अर्थ करने व प्राचीन पाठ परम्परा सहयोग कर रहे हैं। का बोध कराने में कठिनाई होती है। विद्वान सम्पादकों खम्भात सम्प्रदाय के आचार्य प्रवर श्री कान्ति ऋषि को इस ओर ध्यान देना चाहिए था। प्राचीन प्रतियों में

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 782